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“हिंदी की वैश्विक पटल पर उपस्थिति”

निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की ये पंक्तियां हमे मातृभाषा के महत्व से परिचित करवाती है।बिन मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की प्रगति संभव नहीं है।

भाषा मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है। यह मनुष्य के मध्य संवाद का माध्यम भर नहीं है बल्कि इसमें उसके संस्कार ,अस्मिता और गौरव भी अंतर्निहित है। भाषा केवल शब्दों का संकलन मात्र नहीं है बल्कि इसका दायित्व समाज को विचारशील और बोधगम्य बनाना है। भाषा मनुष्य की सभ्यता ,संस्कृति ,साहित्य और ज्ञान विज्ञान की उत्तम धरोहर को अक्षुण्ण रखती है। भाषा ही है जो मनुष्य की रचनाशीलता की गहन शिराओं को सामाजिक सन्दर्भ प्रदान करती है। किसी भी देश की पहचान उसकी भाषा ,उसका राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान होता है।

इस संदर्भ में बात करें तो आज हमारी भाषा जो हमारी अस्मिता की घोतक है विदेशी भाषा के शब्दों की बैसाखियों पर चलने को मजबूर है।

हिंदी विश्व की प्राचीन, समृद्ध और सरल भाषा है। इसी के साथ ही इसकी लिपि भी वैज्ञानिक है।
हिंदी में हमारी संस्कृति और सभ्यता की सुगंध समाई हुई है। आदिकाल के कवि सरहपा ,स्वयंभू से लेकर सूर ,तुलसी ,कबीर से होती हुई यह पंत, निराला तक निरंतर विकसित  होती गई। आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता के माध्यम से इसने देशवासियों में देश प्रेम का जज्बा पैदा करने में अपना योगदान दिया। राष्ट्रभाषा हिंदी को सम्मान दिलाने जन जन तक पहुंचाने में न जाने कितने असंख्य लोगों ने अपना जीवन समर्पित कर दिया।

अपनी भाषा की उपेक्षा कर हम उसे कहां ले जा सकते हैं यह सोचने का विषय है। हमारी विश्व की किसी भी भाषा में निष्ठा हो सकती हैं, हम उसे सीख सकते हैं, बोल सकते हैं पर हम से हमारी भाषा की अवमानना नहीं होनी चाहिए। अपनी पुस्तक “संस्कृति भाषा और राष्ट्र” में रामधारी सिंह लिखते हैं- “जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वह अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती है तथा सांस्कृतिक दासता का भयानक रूप वह होता है जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती हैं। फल यह होता है कि वह जातिअपना अस्तित्व खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का विनाश हो जाता है “। इसी आधार पर गांधीजी ने कहा था कि भारत की सर्वमान्य भाषा हिंदी होनी चाहिए।

आज हिंदी शिक्षा के क्षेत्र में लगातार पिछड़ती जा रही है। कई शोधकार्य हिंदी में नहीं होते। देश में मीडिया, साहित्य और भाषा की रिश्तेदारी बहुत पुरानी है पर आज देश में शिक्षण की भाषा अंग्रेजी हो गई है। नई पीढ़ी इंग्लिश की है जिसके मन में मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के लिए कोई सम्मान नहीं है। इसी पीढ़ी का हवाला देकर मीडिया भी इंग्लिश के पीछे भागता है।

आज साहित्य और मीडिया के बीच दूरियां बढ़ रही है। भाषा साहित्य एवं मीडिया की बढ़ती दूरी चिंताजनक है। आज हम जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं क्या वह हिंदी है, वह हिंदी है या कुछ और। आलोचकों के अनुसार आज हमारी भाषा हिंदी नहीं वरन हिंगलिश है यानी  हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का घालमेल। एक ऐसा  मिश्रण जिसमें र्हिंदी के कम और अंग्रेजी के शब्द ज्यादा है और उच्चारण का तरीका भी ऐसा मानो हमें हिंदी बीच में किसी मजबूरी में बोलना पड़ रही है।

वैश्वीकरण के नाम पर अंग्रेजी चारों ओर छाई है। वर्तमान दौर सोशल मीडिया का है। इसने अपनी एक नई भाषा गढ़ ली है। भाषा और शब्दों के सौंदर्य, स्वरूप और गरिमा की चिंता करने वाले इस नई भाषा के युवाओँ पर बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित है।कारण स्पष्ट है कि इस विकृत, अटपटी, शॉर्ट एवम खिचड़ी भाषा को अपनाकर युवा पीढ़ी भविष्य मे किसी एक भाषा मे अपनी बात सशक्त और प्रभावी तरीके से सम्प्रेषित कर भी पायेगी या नहीं। ये खतरा इसलिए भी बढ़ रहा है कि इस आभासी दुनिया मे दिन-रात कैद रहने वाली पीढ़ी साहित्य पढ़ने औऱ मनन- चिंतन से लगातार दूर होती जा रही है। बिना पढ़े किसी भाषा पर अच्छी पकड़ स्थापित नही होती और बिना प्रभावी भाषा के गंभीर चिंतन और ज्ञान में नवाचार संभव नहीं है।

हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग करने हेतु अनेक संस्थाएं हैं परंतु इनके प्रयास इतने सालों में भी हिंदी की स्थिति को बेहतर नहीं कर पाए।कई लोग हिंदी को ज्ञान विज्ञान और तकनीकी स्तर पर कमजोर कहते हैं वह शायद भूल जाते हैं कि खगोल विज्ञान, गणित, रसायन विज्ञान, पादप विज्ञान आदि क्षेत्रों में कई आविष्कार और खोज भारत की देन हैं। इसी के साथ भाषा विज्ञान, व्याकरण पर अति महत्वपूर्ण काम भारत के भाषा वैज्ञानिकों की देन है। 12 वीं सदी से 18 वीं सदी तक भारत में विज्ञान पर करीब 10000 से ज्यादा पुस्तकें लिखी गई।

हिंदी की प्रकृति प्रगतिशील है। अन्य भाषा के शब्दों को स्वयं में समाहित करने की शक्ति इसकी विशेषता है। यह लचीली है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए, अपने घर में उपेक्षित होते हुए भी हिंदी वैश्विक पटल पर अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करा रही है। व्यापार, अध्ययन की दृष्टि से तथा वेब मीडिया में वह अपना स्थान बना रही है। हमारे लिए गौरव की बात है कि हिंदी का विदेशों में अध्ययन अध्यापन करवाया जा रहा है।

विश्व के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालय तथा अनेक केंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर अनुसंधान स्तर तक हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है। हिंदी की अनेक पत्रिकाएं विदेशों से प्रवासी भारतीयों द्वारा निकाली जा रही है जिनमें से कई पत्रिकाओं के ऑनलाइन संस्करण भी उपलब्ध है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी लगातार आगे बढ़ रही है। आज ऐसे सॉफ्टवेयर उपलब्ध है जो हिंदी भाषा में कंप्यूटर पर कार्य को सहज बनाते हैं। हिंदी इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।विदेशों में हिंदी के प्रभाव को बढ़ाने में हिंदी सिनेमा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत के बाहर श्रीलंका, फिजी, दक्षिण पूर्वी अफ्रीका, मलाया में भी हिंदी बोलने वालों की संख्या ज्यादा है। एशिया महाद्वीप की भाषाओं में हिंदी ही वह भाषा है जो अपने देश के बाहर लिखी और बोली जाती है। इससे इसकी व्यापकता का पता चलता है।

आज जरूरत इस बात की है कि हम हिंदी को सम्मान दिलाने, जन जन तक पहुंचाने में अपना सहयोग प्रदान करें। हमें बदलते परिवेश में अपनी भाषा और संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए काम करना होगा। 21वीं सदी के इस संचार क्रांति एवं वैश्वीकरण के युग में भाषा, संस्कृति, आचार-विचार सभी पर बाजारीकरण एवं उदारीकरण का प्रभाव दिखाई दे रहा है। हिंदी भी इस प्रभाव से बची नहीं है। हिंदी को अंग्रेजी की पराधीनता से उबारने के लिए हमें अपनी मानसिकता में बदलाव करने की आवश्यकता है। हमे हिंदी के विकास के मार्ग में आने वाली प्रत्येक चुनौती से निपटना होगा। हिंदी को इसका सम्मान दिलाने हेतु, इसका वैश्विक प्रभाव बढ़ाने हेतु हमें समूह, जाति, क्षेत्र की मानसिकता से ऊपर उठकर राष्ट्र हित मे सामूहिक प्रयास करने होंगे। यदि हम ह्र्दय से हिंदी का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र मे करेंगे तभी यह विकास के सोपान तय कर विश्व पर अपना वैश्विक प्रभाव स्थापित कर पाएंगी।

प्रो.मनीषा शर्मा
संपर्क सूत्र:- 9827060364