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हिन्दुओं को भी उतने ही धार्मिक अधिकार मिले, जितने अन्यों को

हिन्दू इस देश में बहुसंख्यक है, लेकिन उन्हें उतने धार्मिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जितने अन्य उपासना पद्धतियों के अनुयायियों को प्राप्त हैं। यह विविधता क्यों है-इस पर प्रश्न क्यों नहीं उठना चाहिऐ? क्या यह अपेक्षा अनुचित हैं कि हिन्दुओं को भी उतने ही धार्मिक अधिकार मिलने चाहिये, जितने अन्य मतावलम्बियों के पास हैं। इस संदर्भ में इस तीखी सच्चाई को भी नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता कि आठवाीं सदी में भारत की धरती पर इस्लाम के पदार्पण के बाद भारत की सर्वमान्य एवं अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाले मानकों को न केवल अपमानित किया गया, वरन् उन्हें सदैव अपमानित करते रहने के लिये लगातार दुष्चक्र चलाये गये।

इस्लामी आक्रान्ताओं द्वारा किये गये मंदिरों के विध्वंश और मूर्तिभंजन के दुष्कृत्यों के इतिहास को मुस्लिम समुदाय भले ही स्वीकार करे या न करे। सत्य तो सत्य ही रहेगा-कब तक उस सत्य पर पर्दा डाले जाने के प्रयास होंगे? अब यह नया युग है, नया भारत है, सत्य का अन्वेषण आवश्यक है।

यद्यपि सत्य के उजागर होने का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका है। जिसे कम्युनिष्ट लेखकों, इतिहासकारों ने अंग्रेजों के मार्ग पर चलते हुये भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को गलत रूप से प्रस्तुत करने का अपराध किया है। इस्लामी आक्रान्ताओं के आक्रमणों के पहले भारत में लाखों मंदिर थे। हर सनातनी भारतवासी की मंदिरों के प्रति अगाध श्रृद्धा होती है। इतिहास बताता है कि आठ सौ वर्षों के कालखंड में भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से ही मंदिरों को तोड़ा गया, पुस्तकालय जलाये गये, हिन्दू महिलाओं के साथ अमानुषिक अत्याचार एवं बलात्कार हुये, उन्हें नग्न कर बाजारो में बेचा गया-इन सब कुकृत्यों के बावजूद इस्लाम मानने वालों ने उन्हें महान बतलाया और उन्होंने बेशर्मीपूर्वक  यह नेरेटिव भी बना लिया कि वे तो अपने हिन्दू पड़ोसियों के साथ अमनोमुहब्बत के साथ रह रहे हैं।

लम्बे समय तक झूठ पर झूठ बोलते हुये सत्य को पर्दे से ढाँकने की कोशिशें की गयीं। अयोध्या, मथुरा, काशी हिन्दुओं के अत्यन्त पवित्र उपासना स्थल रहे हैं। मंदिरों को ध्वस्त कर उन्हीं की सामग्री से मस्जिदें बनायी जाकर भारतीय स्वामिभान को चुनौती दी जाती रही। इस्लाम मानने वाले मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग गजनी, बाबर, औरंगजेब जैसे आक्रान्ताओं और अत्याचारियों को महान मानता है, ये लुटेरे थे और भारत के दुश्मन। मंदिरों का विध्वंश- हिन्दुधर्म का विध्वंश एक सच्चा इतिहास है। इनके कुकृत्यों को देश की जनता के सामने आने नहीं दिया गया। ऐतिहासिक तथ्य छुपाने की इन काली करतूतों को कोई अंत नहीं है।

काशी के ज्ञानवापी, मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि की दीवार से सटाकर मस्जिद और दरगाह बनाने का मकसद और मानसिकता को सरलता से समझा जा सकता है, ज्ञानवापी क्या किसी मस्जिद का नाम हो सकता है? जौनपुर का अटालादेवी मंदिर, अहमदाबाद में भद्रकाली मंदिर आदि हजारों उपासना स्थलों को तोड़कर मस्जिद बना ली गयीं।

पहला हमला मोहम्मद- बिन-कासिम और बाद में महमूद गजनवी ने 17 बार हमले किये, गोरी और चंगेजखाँ जैसे लोभी, लुटेरे आक्रान्ताओं के नाम सूची में जुड़ते चले गये। तैमूललंग, बाबर, नादिर शाह आदि जिन्होंने हिन्दू धर्म स्थलों को तोड़ा, कब्जाया और चारमीनार, कुतुबमीनार अपने अत्याचारों की दास्तान को आगे बढ़ाया। सन् 1191-92  में (कुतुबमीनार) सूर्यस्तम्भ के घेरे में 27 मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनायी गयी जिसका उल्लेख फारसी में लिखे वहाँ पर स्थित एक शिलालेख में हुआ है।

हिन्दू शताब्दियों से ऐसे कलंकों को छाती से चिपकाये बैठा है। जो खुलासे हुये हैं और जो होते जा रहे हैं, वे इस वास्तविकता का ढ़िंढौरा पीट रहे हैं कि ऐसे सभी विध्वंश एक मंदिर या ढाँचे मात्र के लिये ही नहीं वरन् यह एक पूरी सभ्यता, संस्कृति, आस्था और करोड़ों लोगों के विश्वास को रौंद डालने के उद्देश्य से किये गये थे। यह सिलसिला भारत में हिन्दुओं की तीज-त्यौहारों के समय बाधायें डालते हुये, उपद्रव करते हुये हिंसक वारदातों के साथ चलते रहे हें। सन् 1937 में मस्जिद के सामने से बैंडबाजा बजाते निकलने पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की गयी थी।

इन तमाम प्रकार की इस्लामी हरकतों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’’ में लिखा है कि ‘‘हिन्दुओं की कमजोरी से लाभ उठाना मुस्लिमों की भावना है। मुसलमानों के लिये हिन्दू सम्मान के योग्य नहीं है। मुसलमानों का भाई-चारा केवल और केवल मुसलमानों के लिये है।’’ कुरान गैर मुसलमानों को दोेस्त या मित्र बनाने का विरोध करती है। इसके अतिरिक्त ‘शरिया’ और ‘कुरान’ में स्पष्टतः काफिर की संपत्ति नष्ट करना  (शरिया मैन्युअल (9.15), संख्या बल (कुरान 17.ब्), डराना- धमकाना (कुरान-03, 151), हथियार समेत समूह में निकलने, (कुरानः04,71), घात लगाकर मारने (कुरान 09.5), 29/13/111/1237, जैसी उन तमाम बातों के विषय में निर्देश आदेशित किये गये हैं, जिन्हें आज और गत आठ-नौ सौ वर्षों से हिन्दुओं के खिलाफ प्रयोग में आते देखा गया है।

इन तमाम हालातों और इतिहास के पन्नों से सबक लेते हुये यह फैसला लेना सामयिक ही माना जाना चाहिये कि हिन्दुओं के पीछे हटने का वक्त बीत चुका है। इतिहास ने नये मोड़ पर पहुंचा दिया है, जहां आत्मरक्षा करना प्रत्येक का अधिकार है, वह भी जन्म सिद्ध, साथ ही संवैधानिक भी – इसे ठीक से समझा जाना चाहिये।

जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है- क्या वे इस्लामिक ‘लाॅ’ को मानते हैं? उसके अनुसार दूसरे समुदाय के धर्मस्थल पर मस्जिद नहीं बन सकती। उसमें की गई इबादत स्वीकार नहीं होती। वहाँ अभी तक की गयी इबादतें ‘अल्लाह’ द्वारा मंजूर की गयी होगी?

भारत के सिवाय विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं है, जहां उन्हें बहुसंख्यक हिन्दू समाज से अधिक सुविधायें प्राप्त हों। पाकिस्तान, बंगलादेश, इंडोनेशिया में भी नहीं। इस्लाम में कब्र पर इबादत, उसे महत्व देना, मकबरा आदि बनाना मना है। इसीलिये ‘अरब देशों में’ किसी पीर, सुल्तान की छोड़िये खुद पैगम्बर की भी कोई मजार, स्मारक नहीं है।

आज अधिकांश मुसलमान औरंगजेब का नाम लेने में गर्व का तो अनुभव करते हैं, लेकिन उसके कुकृत्यों से अनजान हैं। उसके अत्याचारी होने का सबसे बड़ा सबूत यह है कि जिसने सत्ता हथियाने के लिये अपने भाई की हत्या कर दी, अपने बाप को जिन्दगी भर जेल में डालकर रखा और तरह-तरह की यातनायें दी। ये मुसलमान इस बात पर गौरव महसूस करते हैं कि उसने भारत पर राज किया।

दुनिया इस्लाम के पहले भी थी और बड़ी अच्छी हालत में थी। इस्लामी विवरणों में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है, कहीं भी लोगों ने स्वेच्छा से इस्लाम नहीं कबूला समूह के समूह ‘इस्लाम या मौत’ के घोषित विकल्प के कारण ही मुसलमान हैं। प्रत्येक मुसलमान के पूर्वज कई पीढ़ियों पहले कोई और मतपंथ मानते थे।

समझने की बात है कि आज गैर इस्लामी दुनिया ही हर मामले में उन्नत और अग्रगामी है। इस्लाम का आध्यात्म, नैतिकता, उच्च विचार आदि से दूर-दराज तक कोई संबंध नजर नहीं आता। इसके विपरीत यह एक राजनीतिक मतवाद है, जो जबरदस्ती या प्रलोभन से अपनी सत्ता बनाये रखने के अतिरिक्त किसी बात में रूचि नहीं रखता। ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। उनका यह भी मानना है कि इस्लामिक रवैया लचीला नहीं है। जेहन में कट्टरपंथी मानसिकता हावी रहती है जिससे मुसलमान मुहम्मद साहब और इस्लाम, कुरान के आसपास घूमते रह जाते हैं।

इसी प्रकार अपने देश में सेकुलर, गांधीवादी वामपंथी और समाजवादी लोग हैं, जिन्होंने शपथ ले रखी है कि वे इतिहास से कुछ नहीं सीखेंगे। वे भी उदारवादी और उग्रवादी इस्लाम की बात करके गंभीरता को मोड़ देते हैं। दोनों एक ही हैं, उनमें फर्क करना या बताना बेमानी है।

जिस प्रक्रिया से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश भारत से अलग हुये थे, उसी प्रक्रिया को उलट देने से ही तो वे वापिस आयेंगे। सामान्य सा सिद्धान्त है जो व्यक्ति अपने इतिहास को जितने पीछे तक देख सकता है, वह अपने देश के भविष्य को उतने ही आगे तक सम्हाल सकता है। अपने इतिहास को भुलाकर कोई भी देश खड़ा नहीं हो सकता, इतिहास को पढ़ना बहुत जरूरी है।

लेखक – डाॅ. किशन कछवाहा
संपर्क सूत्र – 9424744170