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गुरुद्वारा श्री बड़ी संगत साहिब, असीरगढ़ (बुराहनपुर)

श्री गुरु गोविंद सिंह जी के 1708 में आगरा, चित्तोरगढ़, उज्जैन होते हुए नांदेड़ जाने के बीच असीरगढ़, आगमन की स्मृति में निर्मित हुआ था, यहाँ पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हस्तलिखित प्रति (बीर) है, जिसमें श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने भी कई बंद लिखे थे। यहाँ पर श्री गुरु गोविंद सिंह जी, जीवन दास जी से मिले, जिन्होंने श्री गुरु तेग़ बहादुर जी के साथ आसाम तक की संगत की थी।

यहाँ से ही कई संगतें, वापस भेजी गईं थीं, इसी लिए इस गुरुद्वारे को श्री बड़ी संगत साहिब का नाम स्वयं श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने दिया था।

आसीर गढ़ का इतिहास (दक्कन का द्वार): नर्मदा ताप्ती घाटी व सतपुडा शृंखला पर स्तिथ है, महाभारत युद्ध के बाद, अश्वत्थामा यहाँ पर आकर रहे, अश्वत्थामा, ने गुप्तेश्वर महादेव मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा की, जो की तांत्रिक सिद्धियों के लिए प्रसिद्ध है. यह एक जनजाती बहुल क्षेत्र है.

आठवीं सदी के राष्ट्रकूट (753-982) शासन से पहले यहाँ भील, आहीरी, बारेला/ पावरा जनजातियों का आधिपत्य रहा. राष्ट्रकूट साम्राज्य के बाद असीरगढ़ क्षेत्र पुनः आहिरी जनजातिय सरदारों के आधिपत्य में रहा.

एक समय उत्तर से दक्षिण के बीच के मध्य व्यापारिक केंद्र रहे असीरगढ़ (बुरहानपुर), पर 1388 में फ़ारूक़ी शासन (शिया मुस्लिम-ईरानी) रहा, जिन्होंने इसे खानदेश की राजधानी बनाया। अकबर (मुग़लों) ने असीरगढ़ पर क़ब्ज़ा किया और इसे 1601 में मुग़ल सूबा बनाया, शाहजहाँ की बेग़म मुमताज़ महल बुरहानपुर से थीं.

जिनके पति को शाहजहाँ ने छल से मरवाकर, उन्हें जबरन पत्नी बनवाया था, मुमताज़ महल को चौदहवें पुत्र की प्रसव मृत्यु उपरांत, पहले यहाँ दफ़नाया गया था, बाद मे छह महीने बाद आगरा ले ज़ाया गया।

1720 में पेशवा बाज़ीराव ने इसे वापस मराठा आधिपत्य में शामिल किया , 1750 में सदाशिव भाऊँ के नेतृत्व में मराठा सेनाओं ने हैदराबाद निज़ाम की सेनाओं को हराया था।

मराठा आधिपत्य में इसे होलकर व सिंधिया सरदारों ने दक्कन के लिए सामरिक महत्व के कारण अपने आधिपत्य में रखने हेतु प्रयोग किया।

द्वितीय एंगलो – मराठा युद्ध के बाद 1818 में ये शहर अंग्रेज़ी आधिपत्य में गया, अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को खानदेश ज़िले के रूप में बरार का हिस्सा बनाया।

अंग्रेजों ने यहाँ कपास व कच्चा माल संग्रह के लिए रेल्वे का विस्तार किया, एक समय ये भारत का सबसे अधिक माल भाड़ा पाने वाला केंद्र था, यहाँ से पूरे उत्तर भारत के कच्चे सामान को बंदरगाहों के लिए रेलवे द्वारा भेजा जाता था। आज ये पश्चिमी मध्यप्रदेश का महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र है।

(लेखक-लक्ष्मण राज सिंह “लक्ष्य”)