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जनजातीय धार्मिक परंपरा और देवलोक…

जनजातीय धार्मिक परंपरा और देवलोक…

महाकौशल ही नहीं संसार की सभी जातियों में धार्मिक मान्यताएं, परंपराएं आदि काल से विद्यमान रही हैं । सृष्टि के आरंभ काल से ही मानव में अपने सृष्टा के प्रति विश्वास व आस्था का उदय हुआ । प्राचीन काल में समाज बहुतायत में वनों, गांवों में रहता था फिर धीरे-धीरे नगरों का विकास हुआ और दो प्रकार की सभ्यताएं विकसित हुई नगरी व ग्रामीण ।

ग्रामीण व वनांचल समाज आस्था, विश्वास ,मान्यताओं ,परंपराओं में अधिक दृढ़ता, कठोरता से विश्वास करता आ रहा है। वहीं नगरों में आधुनिकतावाद ,क्षणिकबाद, भौतिकताबाद ,पश्चिमीकरण का बोलबाला दिखाई देता है । भारत वर्ष के सभी वनांचल भागों में हमारा वनवासी जनजाति समाज रहता है ।

इस वनवासी समाज की अलग-अलग परंपराएं, रीति -रिवाज ,मान्यताएं ,आस्थाये हैं किंतु यह समाज बीहड़ वनों में रहता है । अपने में मस्त है,शहरोंसे दूर यह जनजाति समाज अपने को अधिक सुखी अनुभव करता है ।व भारतीय सनातन हिन्दू संस्कृति का कट्टरता ,दृढ़ता से पालन करता है। वहीं असली भारत बस्ता है।

महाकौशल क्षेत्र के वनांचल में गौड़ ,बैगा, मारिया, भील ,मीणा ,गरासिया, डामोर, सहरिया, कंवर ,सांसी ,महादेव ,काली, बाली, डबल जनजातियां निवास करती हैं । गोंड महाकौशल की एक प्रमुख जनजाति है। यह भारत के कटी प्रदेश महाकौशल, विंध्याचल, सिवान सतपुड़ा पठार से छत्तीसगढ़ मैदान होते हुए दक्षिण- पश्चिम में गोदावरी नदी तक फैली हुई है। यह पहाड़ों में रहने वाली आस्ट्रोलाईड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति है।

गोंड जनजाति की कुल जनसंख्या मध्यप्रदेश में 4 करोड़ के लगभग है। ‘ग’खुला आकाश ,’अ ‘आंधी , ‘ऊ ‘सूर्यताप ‘न’ नीर ( जल )’डी’ स्थान (पृथ्वी )इन चारों तत्वों के संयोग से ‘गोंड ‘शब्द की व्युत्पत्ति- निर्माण हुआ था ,ऐसी मान्यता है। यह विश्व भी पंचमहाभूतों से ही बना है । गोंड जनजाति में (‘जीवातनु तोड़ी सियाना’ ) ‘पुनेम ‘,’मंदशूल ‘(दाउन दई रूपि परसा पेन)’ की मान्यता,उक्ति, परंपराएं हैं।

इनका मानना है कि प्रकृति के विघटन से जीव तत्व से जल, अग्नि ,वायु ,आकाश विलीन हो गया शेष पृथ्वी तत्व (माटी) जिसे समाधि कर पृथ्वी में दफन किया जाता है ।अतः कोया पूनम में अमात्य (आत्मा )को कोई स्थान नहीं इसलिए ‘कोयावंशीयों ‘ने बड़ा बड़ा पेन बड़ा /कड़ापेन/ परसा पेन/ सजोर पेन की कल्पना अपनाई थी ।

ऐसा जान पड़ता है पुनेमानुसार प्रकृति में ‘सल्ला’ व ‘गान्गरा ‘ यह दो शब्द ‘पूना’ व ‘ऊना’ (प्लस /माइनस) तत्व सक्रिय हैं । जिनकी क्रिया/ प्रक्रिया से प्रकृति का कालचक्र संचालित है ।अर्थात पंचतत्वों के संयोग से जीव का निर्माण- ‘ दाऊ दई ‘रूपी ‘परसा पेन ‘शक्ति करती है । ऐसी गोंड जनजाति की देवलोक के संबंध में मान्यता अथवा परंपरा है।

गोंडी भाषा गोंडवाना क्षेत्र की मातृभाषा है। गोंडी भाषा का निर्माण आराध्य देव ‘शंभूशेक’ यानी शंकर के डमरू से के नाद से हुई है। इ से ‘ गोइंदाणी वाणी ‘ या ‘ गोंडवाणी ‘कहा जाता है। गोंडी भाषा की अपनी लिपि है। गोंड जनजाति समाज में’ प्रधान नेगी ‘ जनजाति वहां देव पूजन का कार्य करते हैं और प्रधान नेगी को अब ‘ परधान ‘ कहा जाता है ।

प्रधान की अनुपस्थिति में ‘ नेगी’ देव पूजन का कार्य करता है। वही’ उराव ‘जनजाति में ‘ टोटमबाद ‘ उनकी विशेषता है। इस जाति में 20 से अधिक टोटम है। या टोटम एक प्रकार से अलौकिक शक्ति/ देवता -देव हैं जिनकी आराधना से उनके सभी कार्य सुख -शांति से सफल होते हैं। यह जनजाति प्रकृति पूजक है।

पशु- पक्षियों, वृक्षों को भी टोटम देवी के रूप में स्वीकार करते हैं। उत्सवों में गाए जाने वाले गीतों में ‘ टोटम ‘ का स्मरण किया जाता है यह जनजाति आत्मा,परमात्मा, दुष्टआत्मा सब पर विश्वास करती है । यह लोग पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं ।सदाचरण- धर्मआचरण पर विशेष जोर देते हैं।

वनवासी समाज प्रकृति पूजक है। प्रकृति उनका परिवेश ,अवलंबन ,उद्दीपन है। प्रकृति के साहचर्य में यह सभी जनजातियां अपना जीवन यापन करती हैं ।इनके त्यौहार भी प्रकृति से जुड़े हुए हैं ।छोटा नागपुर की जनजातियों के दो बड़े त्यौहार ‘कर्मा ‘व सरहुल हैं इनमें प्रकृति की उपासना होती है। अन्य त्योहारों में भी प्रकृति को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। ‘करमा ‘ को पर्व के रूप में भी जाना जाता है। यह भादो की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है ।

‘सरहुल’ वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है ।वही ‘ सोहराई ‘लक्ष्मी पूजन का त्यौहार है।यह पांच दिन तक चलता है। जनजातीय समाज में देवताओं को बैरागी बाबा,सिद्ध बाबा, ठाकुर बाबा, बड़ादेव, बूढ़ादेव, मरहीमाता ,खेतहीदाई, खेरवामाता ,खेरदाई ,रक्षादेव ,महादेव ‘पिल्चुहड़ाम ‘ के रूप में पूजन ,स्मरण करते हैं ।

इन्हीं देवताओं को गैर जनजाति समाज मैं शिव ,महेश, महादेव ,नीलकंठ इत्यादि नामों से जानते वह मानते पूछते हैं ।विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की मूर्ति जनजाति समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही स्वप्न में प्राप्त हुई थी नीलगिरी की पहाड़ियों में ,ऐसा प्रसंग आता है। भुवनेश्वर के भगवान लिंगराज को ‘ बाड ‘ जनजाति के पुजारियों द्वारा शान करवाया जाता है।

उत्तर पूर्व की ‘ मिशमिश ‘ जनजाति सूर्य व चंद्रमा की पूजा ‘ दांयी -पोलो’ के रूप में करते हैं। अंततः निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि वनवासी समाज भोला -भाला ,प्रकृति- पूजक, सनातन हिंदू परिवार का ही हिस्सा है एवं आधुनिक सभ्यता- संस्कृति से दूर अवश्य है। किंतु वह धार्मिक मान्यताओं ,परंपराओं ,आस्था के मामले में आधुनिक समाज से अधिक कट्टर यानी निष्ठावान है ।

अंतर मात्र इतना है कि हम जिन्हें शिव- शंकर कहते हैं ,उसे वह बड़ादेव, ठाकुर बाबा ,बूढ़ादेव के रूप में पूजते हैं । आदिशक्ति को वह खेतहीदाई, खेरदाई, मरहीमाता के रूप में पूजते हैं ।सिर्फ शब्द व भाषा, परिवेश का अंतर है ।

वनवासी समाज नगरीय आधुनिक समाज से अधिक सभ्य धर्माचारी, प्रकृति पूजक, रक्षक समाज है। जिसे आज कुछ आधुनिक सुविधाओं शिक्षा, स्वास्थ्य ,विज्ञान की तकनीकी ,सिखाने की आवश्यकता मात्र है ।आदिवासी जनजाति संस्कृति श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति है।

इस समाज का परलोक -देवलोक की भारतीय मान्यताओं में गहरा विश्वास है । अतः ऐसे वनांचल के समाज को संरक्षण -संवर्धन व शोधकार्य की परम आवश्यकता है तभी आधुनिक जगत से सामंजस्य ,सौहार्द ,संबंध, ज्ञान विकसित होगा जो मानव मात्र के लिए कल्याणकारी व प्रेरणादाई होगा।

डॉ नितिन सहारिया