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5 अप्रैल 1978 : मशीनीकरण के कारण किरंदूल गोली कांड , आगज़नी व मज़दूर संघर्ष।

  1. सर्वहारा की बात करने वाले , इमरजेंसी में रुस से हुए मशीनीकरण के समझौते पर चुप थे , खेमका कम्पनी का रुस से समझौता हो गया की खुदाई के लिए लोकल मज़दूरों की जगह मशीनों का प्रयोग हो , रूसी वाहनों पर वैश्विक बाज़ारों में अमेरिकी दबाव में प्रतिबंध के बाद उन्हें भारत में खपाया जाना था । 

भनोत कम्पनी (जबलपुर के बड़े नेता , बनारसी दास भनोत) , अशोक कम्पनी (धनबाद के बड़े साहूकार, जो पहले साहूकारी करने रायपुर आए थे) व बोरा कम्पनी ये तीन कम्पनियाँ ही NMDC की बैलाडिला पहाड़ियों के लिए मज़दूरों को 2 पैसा प्रति टन की दर से भुगतान करती थीं।

लगभग 3500 परिवार बच्चों समेत लगभग 10000 मज़दूरों के साथ खुदाई करती होती थी । रूसी उपकरण आने से वामसमर्थक मौन थे , चूँकि रुस से बना मशीन सर्वहारा ने बनाया था , तो उसका विरोध रुस का विरोध हो जाता , सो लाल गमछा धारी मज़दूर नेताओं ने बंद कमरे में मशीनीकरण की स्वीकृति कर दी ।

तीन रंग गमछाधारी मज़दूर यूनियन के खान व सिद्दीक़ी ने खेमका कम्पनी व भनोत कम्पनी से बंद कमरे में मंत्रणा की और अगले एक माह के लिए , किसी पुराने प्रकरण का बहाना बनाते हुए भूमिगत हो गए । तब दिल्ली में मोरार जी भी नए थे , NMDC ने उत्पादकता बढ़ाने के लिए उनसे अनुमति ले ली , क्यूँकि कम्पनियों को मशीनों का भुगतान भी करना था , तो मज़दूरों की छटनीं तय थी ।

सकलेचा जी जब तक इस व्यूह को समझ पाते , कम्पनियों ने लोकल प्रशासन को अपना मुरीद बना लिया था , भोपाल रटी रटाई बातों की रिपोर्टिंग हो रही थी , जैसे सब कुछ सामान्य है । छटनी से पहले कम्पनियों का मज़दूरी टेंडर निरस्त कर दिया गया , और कम्पनियों ने गंजम से मशीनों को चलाने वाले बुला लिए गए , खबर फैल गई की अब मज़दूरों की छटनी होगी ।

मज़दूर सर्वहारा के पैरोकार और ग़रीबी हटाने में माहिर मज़दूर नेताओं को तलाश कर ही रहे थे की , उनके विरोध प्रदर्शन पर गोलियाँ चल गई, और इस से पहले की गोली कांड का विरोध होता , 3500 परिवारों के मज़दूर केम्प में अचानक आग लग गई , आग इतनी सुनियोजित लगी , की जिसके तन पर जो था बस वो लेकर ही भाग पाया , शिफ़्ट में काम किए कई मज़दूर और वो नन्हें जो माता पिता के काम में जाने पर केम्प में रहते थे , काल कव्लित हो गए ।

मज़दूरों की भीड़ कही सम्पत्ति (मेनेजर व कम्पनी ठेकेदारों) को नुक़सान ना पहुँचाएँ इसीलिए गोलियाँ चलानी पड़ीं , यही कहा गया प्रेस को फ़ोन पर , मात्र 10 मज़दूर मारे गए हैं , आग की दुर्घटना में जान माल के नुक़सान की कोई सूचना नहीं मिली है ।

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गोली कांड और आगज़नी की घटना , में कम्पनियों , ठेकेदारों , मेनेजरों के वक्तव्यों में अजीब सी दुर्गंध थी , मशीनी करण से छटनी हुए बस्तर के मज़दूरों की जगह , धनबाद और गंजम के मज़दूरों ने ले ली थी । मगर ठेकेदारों का सल्फ़ी सेवन और पीकी मोटियारियों का शोषण यथावत चालू था ।

मशीनीकरण और लोकल आदिवासियों की जगह , बाहरी मज़दूरों को लाकर बसाने के वक़्त , लाल गमछे धारी सर्वहारा की आवाज़ होने का दावा करने वाले , कहाँ चले गए थे ? उनकी आवाज़ें तब , रूसी मशीनों के आगे नहीं सुनाई दे रहीं थीं । अब जब चीनी बर्जुआ और सर्वहारा एक हो गए हैं ,

तब भी वे आदिवासियों को बर्जुआ के विरोध में खड़े करने , और चीनी हथियारों / विचारों को खपाने , माओवादी खूनी क्रांति का मुखौटा पहने , आदिवासी जंगलों में कम्पनी कम्पनी खेल रहे हैं ।आदिवासी अस्तित्व के नाम पर , राज्य विभाजन हुआ था , आज शाहिद होने वालों में अधिकांश छत्तीसगढ़ के माटी के लाल हैं , जो उसी सर्वहारा समाज से हैं ,

जिनके परिवार या किसान हैं या मज़दूर , इसके विपरीत चीनी बर्जुआ के बनाए हथियारों ये लेस , माओवादी कमांडर , छत्तीसगढ़ी लड़कों और मोटियारियों को जबरन भर्ती करके , खूनी क्रांति के लिए पैदल सेना खड़े कर रहे हैं । नक्सलवाद निवारण सेमिनार में एक रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक मुझसे बोले “ वाय डोंट दीज आदिवासी गेट सेट्टलड इन अर्बन एरियाज ? “

मैं बोला उन्होंने प्रयास किया था , मगर दल्ली राजहरा और किरणदुल में वे मशीनों से और कम्पनियों से हार गए थे , सरकारें मुफ़्त राशन दे सकती हैं , मगर मुफ़्त के जीवन में , गीत नहीं होते , जंगल पहाड़ों नदियों का अपनापन नहीं होता , बीस बाय तीस के प्लॉट के टुकड़े उस जंगली जीवन के आगे नीरस हैं , जंगल में न्यूटन आइंस्टाइन की मैकाले पद्धति से भी बड़ी जीवट किताबें हैं , जिन्हें ख़रीदने के लिए मोल कुछ भी नहीं हैं ।

नक्सल ओपरेशनों और किरणदुल कांड की बरसी पर इतना ही संदेश है , समाधान के लिए वतनुकूलित कमरों में आरामदायक कुर्सियों पर बैठकर बनाई नीतियों के सहारे मत रहना , बस इतना कहना :

“ अब एक भी आदिवासी का खून बहा , तो शहरों में बैठे माओवादी विचारकों से क़ीमत अदायगी होगी , माँ दंतेश्वरी का न्याय होगा , नर नरमूँड़ों के चढ़ावे होंगे , सबको क़ीमत चुकानी होगी बस्तर के नुक़सान की “

“ भाषण , साहित्य और माओवादी विचार देकर , आदिवासी बेटों बेटियों को अगली पंक्ति में खड़े करके मारने मरने को उकसाने वाले , खुद पाँचसितारा में बैठे शहरी नक्सल रणनीतिकारों , अर्थशास्त्रियों , बुद्धिजीवियों को क़ीमत चुकानी पड़ेगी , एक एक आंसू का हिसाब होगा । “

आलेख : लक्ष्मण राज सिंह मरकाम