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नागरिकता संशोधन विधेयक – 1947 का कार्य 2019 में पूर्ण हुआ

अंततः देश विभाजन के तुरंत बाद किया जाने वाला बहू प्रतीक्षित व प्राकृतिक न्याय वाला कार्य संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के साथ अब पूर्ण हुआ. चाणक्य ने कहा था कि ऋण, शत्रु और रोग को समय रहते ही समाप्त कर देना चाहिए. जब तक शरीर स्वस्थ और आपके नियंत्रण में है, उस समय आत्म साक्षात्कार के लिए उपाय अवश्य ही कर लेना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के पश्चात कोई कुछ भी नहीं कर सकता. नीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र के प्रणेता कौटिल्य को यदि आज के संदर्भ में पढ़ें तो राज्य का रोग तुष्टिकरण की राजनीति ही होता है. यदि राजनीति सही चली होती या रोगपूर्ण न होती तो धर्म के आधार पर भारत का विभाजन न हुआ होता और वर्तमान सरकार को नागरिकता संशोधन बिल लाने की आवश्यकता न पड़ती. देश विभाजन के समय से लेकर आज तक हिन्दुओं के साथ हो रहे सामाजिक, राजनैतिक अत्याचारों को रेखांकित करते हुये गृहमंत्री ने विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में कहा कि –

सन् 1947 में पाकिस्तान में 23 फीसदी हिन्दू थे, लेकिन साल 2011 में ये आंकड़ा 1.4 प्रतिशत रह गया है. पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को देखते हुए भारत मूकदर्शक नहीं बना रह सकता. पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या चिंतनीय स्तर पर कम हुई है, वहीं, भारत में मुस्लिम आबादी के प्रतिशत में असामान्य बढ़ोतरी हुई है.

बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के छह अल्पसंख्यक समुदाय हिन्दू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिक्ख लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. इस बहू प्रतीक्षित अधिनियम में घोषित रूप से तीनों इस्लामिक देशों में अत्याचार सह रहे हिन्दुओं के भारत आने व यहां की वैध नागरिकता प्राप्त करने का स्वप्न साकार हो सकेगा.

तथाकथित तौर पर कई राष्ट्रीय नेताओं के मत की अनदेखी कर नेहरू ने लियाकत अली खान के साथ जो समझौता किया था, वह प्रारंभ से ही दरक गया था. इस समझौते के अनुसार कभी भी हिन्दुओं को पाकिस्तान में किसी भी प्रकार की सुरक्षा या सरंक्षण नहीं मिला और सबसे बड़ी बात विगत सत्तर वर्षों में भारतीय सरकारों ने कभी भी इन देशों मे छूटे हिन्दुओं की चिंता नहीं की. यहां छूट गए हिन्दू अत्याचार सहते सहते या तो धर्मांतरण को मजबूर हुए या भागकर दूसरे देशों में अवैध नागरिक कहलाने लगे. वस्तुतः देश का विभाजन ही गलत वातावरण में किया गया था. जब गांधी जी की देश में अतीव विश्वसनीयता थी, उस कालखंड में गांधी जी कई बार बोलते थे कि “देश विभाजन मेरी लाश पर होगा”. उसी समय जिन्ना मुस्लिम समुदाय को विश्वास दिलाते थे कि मुस्लिमों का पाकिस्तान बनकर रहेगा. देश भर के हिन्दुओं में गांधी जी की विश्वसनीयता के कारण व उनकी राजनैतिक शक्तियों के कारण हिन्दू समाज आश्वस्त था कि विभाजन नहीं होगा. विभाजन में सबसे बड़ी हानि हिन्दुओं की हुई. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान पाकिस्तान में उस समय की अधिकांश संपत्तियां, व्यवसाय व संसाधनों पर हिन्दुओं का ही स्वामित्व होता था, वहीं मुस्लिमों की स्थिति निर्धनता की थी. अतः इस दृष्टि से भी विभाजन हिन्दुओं हेतु अतीव पीड़ादायक व हानिकारक रहा,  मुस्लिमों को बनी बनाई संपत्तियां, व्यवसाय आदि कब्जा करने को मिल गए थे. सर्वविदित व अकाट्य तथ्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात जो हिन्दू पाकिस्तान या बांग्लादेश में बच गए थे, वे प्रताड़ित होते रहे व उनके संसाधन छीने गए. जबकि भारत में अल्पसंख्यक समुदाय की स्थिति व संख्या सुदृढ़ होती गई. वस्तुतः नागरिकता संशोधन विधेयक विभाजन के बाद अधूरे कार्य को पूर्ण करने का बड़े विलंब से लाया गया विधिक मार्ग है.

धार्मिक रूप से प्रताड़ित होकर आए लाचारी का जीवन जी रहे हिन्दुओं व अन्य समुदायों को पाकिस्तान, बांग्लादेश, अगानिस्तान के नरकीय जीवन से बाहर निकलने का सम्मानपूर्ण मार्ग निकल सकेगा. विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था व तब बड़ी संख्या मे इस आधार पर ही जनसंख्या की अदला बदली भी हुई थी. भारत में रहे मुस्लिम सम्मानपूर्वक नागरिक जीवन जीते रहे, जनसंख्या में असामान्य वृद्धि हुई. जबकि, पाकिस्तान में छूटे 23% हिन्दू पाशविक अत्याचार व बलपूर्वक धर्मांतरण का शिकार हुए, आज दयनीय दशा में हैं. यह कार्य (नागरिकता संशोधन विधेयक) स्वतंत्रता के तुरंत बाद नेहरू सरकार को करना चाहिए था. नेहरू सरकार ने इसके विपरीत कार्य किया, उसने पाकिस्तान में छूटे हिन्दुओं को अनाथ समझकर अनदेखा किया और भारत में छूटे मुस्लिमों को तुष्टिकरण की राजनीति के माध्यम से अपना वोट बैंक बनाया.

हो यह रहा था कि पाकिस्तान में मुस्लिमों के अत्याचारों से तंग आकर जो हिन्दू भारत को अपनी भूमि समझकर यहां आकर रह रहे थे, उन्हें अवैध माना जा रहा था व उन्हें नागरिक नहीं माना जा रहा था. हिन्दू अपनी ही जन्मभूमि में पराया व अपमानित जीवन जीने को अभिशप्त था. इस अधिनियम के माध्यम से यह स्थिति समाप्त होगी.

नागरिकता अधिनियम 1955 के अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान में अत्याचारों से तंग होकर बिना किसी दस्तावेज़ के भारत में प्रवेश कर चुके हिन्दू अवैध अप्रवासी माने जाते थे. अवैध प्रवासियों को या तो जेल में रखा जा सकता है या फिर विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट अधिनियम, 1920 के तहत वापस उनके देश भेजा जा सकता है. सरकार ने इस संवेदनशील विषय में अपने पहले कार्यकाल में कार्य प्रारंभ कर दिया था और 2015 व 2016 में उपरोक्त 1946 और 1920 के कानूनों में संशोधन करके अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई को छूट दे दी थी. इसका मतलब यह हुआ कि इन धर्मों से संबंध रखने वाले लोग अगर भारत में वैध दस्तावेजों के बगैर भी रहते हैं तो उनको न तो जेल में डाला जा सकता है और न उनको निर्वासित किया जा सकता है. यह छूट उपरोक्त धार्मिक समूह के उन लोगों को प्राप्त है जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत आए हैं. इन्हीं धार्मिक समूहों से संबंध रखने वाले लोगों को भारत की नागरिकता का पात्र बनाने के लिए नागरिकता कानून-1955 में संशोधन के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 संसद में पेश किया गया था, विधेयक लोकसभा में पारित हो गया था, लेकिन राज्यसभा में पारित नहीं हो सका था.

प्रवीण गुगनानी