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विश्वनियन्ता बनना चाहता है – चीन…!

कुलदीप मेहंदीरत्ता

अंतर्राष्ट्रीय जगत में चीन और अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है. अमेरिका जहां विश्व में अकेली महाशक्ति के रूप में अपना साम्राज्य स्थापित किए हुए है. वहीं चीन विश्व में नंबर एक स्थान प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत है. भूमंडलीकरण के दौर में विश्व की अर्थव्यवस्था ने अपना स्वरूप बदला है. पिछले कुछ सालों में चीन का उदय इलेक्ट्रॉनिक्स और उपभोक्ता वस्तुओं के प्रमुख उत्पादक के रूप में हुआ है. वास्तविकता तो यह है कि इन वर्षों में विश्व का कोई कोना ऐसा बाकी नहीं बचा है, जहां चीनी सामान की पहुंच ना बनी हो, और मजे की बात यह है कि चीन ने ये पहुंच विश्व व्यापार संगठन के उन्हीं प्रावधानों का उपयोग करके सुनिश्चित की है. जिन प्रावधानों को इन पूंजीवादी लोकतांत्रिक देशों द्वारा अपने लिए बनाया गया था. सस्ते श्रम और बड़े स्तर पर उत्पादन के कारण चीन ने शीघ्र ही विश्व के सभी बाजारों तक न केवल अपनी पहुंच बना ली, बल्कि बहुत से देशों में स्थानीय औद्योगिक इकाइयों को बंद करवा दिया. स्वयं को मजदूरों और किसानों की विचारधारा पर आधारित कहने वाले चीनी शासन ने औद्योगिक साम्राज्यवाद का एक नवीन उदाहरण प्रस्तुत किया. यह विडंबना ही है कि जिन पूंजीवादी नीतियों की आलोचना चीन द्वारा एक समय की जाती थी, उन्हीं नीतियों पर चलकर चीन ने अपने विकास का मार्ग तय किया और संसार के किसी भी समाजवादी देश अथवा राजनीतिक दल ने 21वीं सदी के इस औद्योगिक साम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया.

चीन ने न केवल इलेक्ट्रॉनिक्स तथा उपभोगवादी सामान के उत्पादन, बल्कि इसकी बिक्री के भी नये आयाम स्थापित किये. परन्तु 2008 के बाद विश्व में आर्थिक मंदी का दौर शुरू हुआ और धीरे-धीरे इसकी चपेट में सारा विश्व आने लगा. उपभोक्ता या उपभोगवादी सामान की बिक्री शुरू में काफी तेजी से होती है, परन्तु एक समय ऐसा आता है जब ऐसा सामान अधिकाधिक लोगों के पास उपलब्ध हो जाता है या सामान प्राप्ति के नये विकल्प पैदा हो जाते हैं तो ऐसे सामान की बिक्री कम होने लगती है. ऐसी स्थिति में जब आर्थिक मंदी का असर भी काम करे तो स्वाभाविक है कि इस प्रकार के सामान की बिक्री कम होने लगती है. बढ़ते व्यापार घाटे के कारण बहुत से देशों में आर्थिक राष्ट्रवाद भी पैदा होता है.

अमेरिकन तथा अमेरिका फर्स्ट की नीति इसी प्रकार के परिणाम हैं. ऐसा लगता है कि चीन की अर्थव्यवस्था भी सम्भवत: इन्हीं हालातों का सामना कर रही है. शायद इसीलिए चीन को नए बाजारों की आवश्यकता पड़ी और चीन द्वारा सिल्क रूट, वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव, तथा ग्वादर बंदरगाह आदि के प्रयास नए बाजारों की खोज कर अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवन देने के प्रयास हैं. जिससे चीन अपनी आर्थिक गति को जारी रख सके और अपने आपको आने वाली गंभीर आर्थिक मंदी से बचा सके.

आर्थिक मंदी के इस दौर में चीन अगर स्वयं को दुष्प्रभावों से बचाना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि विश्व व्यवस्था के राजनीतिक और आर्थिक पक्ष पर चीन का प्रभुत्व हो. यह सर्वविदित है कि प्राचीन समय से मिडल किंगडम काम्प्लेक्स के विचार के प्रभाव में चीन की महत्वाकांक्षा संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने की रही है. हाल ही में दक्षिण चीन सागर पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का निर्णय अस्वीकार कर चीन ने अपनी मंशा का परिचय दिया है.

विश्व के बहुत से विद्वान यह मानते हैं कि चीन सारे विश्व पर येनकेन प्रकारेण अपना प्रभुत्व स्थापित करना  चाहता है. चीन की इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति में दो बहुत बड़ी बाधाएं हैं. इनमें से क्षेत्रीय स्तर पर भारत तथा वैश्विक स्तर पर अमेरिका. हालाँकि ये दोनों देश चीन के सन्दर्भ में बड़ी सावधानीपूर्वक विदेश नीति का संचालन कर रहे हैं, परन्तु चीन दोनों देशों को आर्थिक और रणनीतिक तौर पर घेरने में लगा है. पर्ल्स ऑफ़ स्ट्रिंग पालिसी के तहत चीन भारत के चारों और एक आर्थिक और सैन्य दीवार बनाना चाह रहा है, जिससे भारत जैसी उभरती शक्ति को सीमित कर सके और भविष्य में अपने आश्रित रख सके. वहीं अन्तर्रष्ट्रीय सन्दर्भों में चीन पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि अमेरिका तथा यूरोप को ध्वस्त करने के लिये जानबूझकर कोरोना वायरस का उपयोग किया गया है. चीन पर यह आरोप लगाने वालों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है कि कोरोना वायरस को लेकर चीन ने सारे विश्व को अँधेरे में रखा, अन्यथा मानव जाति को ऐसी महामारी से इतनी क्षति न हुई होती. चीन का व्यवहार इस शक को यकीन में बदलने लगा है, अन्यथा सारा विश्व जहां कोविड-19जैसी आपदा से लड़ रहा है. वहीं कुछ दिन पहले कोरोना पर विजय के नाम पर ख़ुशी मनाने के लिए लाखों करोड़ों जानवरों को मारा गया.

उल्लेखनीय है कि इटली, स्पेन, ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के अन्य देशों में रोज सैंकड़ों-हजारों की संख्या में  लोग कोविड-19 के संक्रमण के कारण मर रहे हैं. अमेरिका ने स्वीकार किया है कि अमेरिका में लगभग एक लाख से ढाई लाख लोग कोविड-19 से मर सकते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति यह भी कह चुके हैं कि अगर संक्रमण के समय सोशल डिस्टेंसिंग आदि नियमों का पालन ना किया गया तो यह संख्या बहुत ज्यादा हो सकती है. अमेरिका जैसी महाशक्ति की स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से संसार के लिए खतरे की घंटी है. अमेरिका द्वारा भारत से कुनीन आदि दवाओं की सार्वजनिक रूप से मांग करना बताता है कि अमेरिका की कैसी हालत है. अमेरिका की इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए आने वाले समय में कोविड-19 के इलाज के नाम पर चीन ना केवल अमेरिका को दवाईयां तथा अन्य संसाधन बेचेगा, बल्कि विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करेगा.

चीन के अमेरिका पर बढ़ते प्रभाव और अमेरिकी शक्ति में गिरावट के संकेत स्पष्ट दिखाई देते हैं. जो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप निरंतर कोरोनावायरस के संक्रमण को लेकर चीन की आलोचना कर रहे थे, बार-बार कोरोना को चीनी वायरस बता रहे थे. चीन के राष्ट्रपति से बात होने के बाद ट्रंप ने न केवल चीन की आलोचना बंद कर दी, बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों के प्रति भी उनका रुख एकदम बदल गया. अमेरिका का मनोवैज्ञानिक पराभव करना चीन की एक अन्य महत्वाकांक्षा हो सकती है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति का कोई भी जानकार इस बात को बड़ी आसानी से समझ सकता है कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका के घुटने टेकने के बाद विश्व के सभी देश स्वत: चीन के प्रभुत्व को स्वीकार कर लेंगे.

वैश्विक आपदा की इस घड़ी में चीन द्वारा ताइवान के निकट सैन्य अभ्यास किया जाना भी चीन की मंशा पर संदेह पैदा करता है. ताइवान और अमेरिका में बहुत अच्छे सम्बन्ध रहे हैं. अमेरिका ने समय समय पर ताइवान की सहायता की है और चीन की शक्ति को संतुलित करने और उसकी शक्ति पर अंकुश लगाये रखने हेतु अमेरिका ने ताइवान की सैन्य-आर्थिक सहायता की है. सम्भवत: ताइवान के निकट चीन द्वारा सैन्य अभ्यास किये जाने का उद्देश्य अमेरिका की शक्ति और उसकी प्रतिक्रिया को आंकना हो सकता है. उल्लेखनीय है कि ताइवान द्वारा बार-बार कोरोनावायरस को लेकर चीन पर संदेह व्यक्त किया जाता रहा है. यह सैन्य अभ्यास ताइवान को डराने धमकाने के लिए है, लेकिन इसका दूरगामी संदेश अमेरिका के लिए भी है.

यह एक ऐसा समय है, जब अमेरिका न केवल आर्थिक मंदी से जूझ रहा है और ऐसे में कोविड-19 के कारण हजारों लोगों की मृत्यु होना, अमेरिका की कमर तोड़ कर रख देगा. चीन यह बात भलीभांति जानता है कि विश्व व्यवस्था पर चीनी प्रभुत्व के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा अमेरिका है. अमेरिका अगर मनोवैज्ञानिक रूप से इस संकट में चीन से पराजित हो जाता है, तो लंबे समय तक अमेरिका या अन्य कोई देश चीन के मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता और शायद चीन ऐसा ही चाहता है.