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वेगड़ जी का जाना – प्रशांत पोळ

जबलपुर (विसंके). १९८३ का दिसंबर या जनवरी का महीना. मेरे जिगरी दोस्त के बड़े भाई का विवाह था, भोपाल में. बाराती बन के हम भी गए थे. सुबह थोड़ा समय था, सोचा भारत भवन घूम के आते हैं. हम दो-तीन दोस्त भारत भवन में गए. वहां सैयद हैदर रझा जी के चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. चित्र देखकर आनंद आ रहा था. पता चला, प्रत्यक्ष रझा साहब वहां उपस्थित हैं. मैंने दोस्तों से कहा, ‘चलो, मिलते हैं उनसे.’ अस्सी के दशक के प्रारंभ में रझा साहब का आभा मंडल, उनका फ़्रांस में रहना, यह अपने आप में चर्चा के विषय होते थे. हम मिले. ऊँचे पूरे, गोरे, प्रसन्न व्यक्तित्व के रझा साहब को मैंने चित्रों से जो अनुभूति हुई, वह बताई. एलीमेंट्री और इंटर की चित्रकला परीक्षा पास करना (वो भी इंटर मात्र ‘सी’ ग्रेड में) यही मेरा ‘क्वालिफिकेशन’ था. शायद रझा जी को मेरा, उनके चित्रों में समरस होना भा गया, या उनकी तारीफ़ भा गयी, पता नहीं. पर उन्होंने हमसे बहुत अच्छे से बात की. और पूछा, ‘कहा से आए हो..?’ मैंने कहा, जबलपुर. जबलपुर सुनते ही उन्होंने पूछा, ‘हमारे वेगड़ जी कैसे है..?’ मैं एकदम समझ नहीं पाया. फिर ध्यान आया, की वो, हमारे मोहल्ले में, बाबुराव जी के मकान के नीचे रहने वाले ‘वेगड़ सर’ के बारे में बात कर रहे हैं. मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. और बाद में रझा जी, वेगड़ जी के बारे में ही बोलते गए. उन्होंने हमारे पास, वेगड़ जी के लिए एक चिठ्ठी, हाथ से लिखकर दी. 

 जबलपुर पहुंच कर मेरे चचेरे भाई विवेक के साथ मैं उनसे मिलने गया. विवेक उनका विद्यार्थी था. मेरी उनसे हुई यह पहली प्रत्यक्ष भेंट. अत्यंत सरल, सादे पाजामा-कुर्ता पहने हुए वेगड़ सर को जब मैंने रझा साहब की चिठ्ठी दी और वे उनके बारे में क्या बोल रहे थे वो बताया, तो वे बस मुस्कुरा दिए, और विषय बदल दिया. उनसे हुई बातचीत से ही मुझे मालूम हुआ, रझा जी अपने मंडला के हैं. बड़ी श्रध्दा और आदर के साथ, वेगड़ सर, रझा जी के बारे में बात कर रहे थे. दुनिया के दो बड़े कलाकारों का आपस में स्नेह, सम्मान और आदर मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा था.

 चूंकि वेगड़ जी मोहल्ले वाले ही थे, तो दिखते जरुर थे. पैदल चलना उनका शौक था या उनके यायावर जिन्दगी का हिस्सा, नहीं मालूम. लेकिन वे खूब चलते थे और शायद इसीलिए सदा प्रसन्न दिखते थे. 

 सन २००५ में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी के जन्मशताब्दी के अवसर पर ‘विश्व संवाद केंद्र’ के अंतर्गत एक संगोष्ठी मानस भवन में आयोजित की थी. यह तय हुआ की इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करने के लिए अमृतलाल वेगड़ जी को कहा जाए. प्रश्न यह था, ‘संघ के कार्यक्रम में वेगड़ जी आयेंगे या नहीं.’ नरेंद्र जी और मैं उनसे मिलने गए. उन्होंने निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया. वे आए. अत्यंत सारगर्भित, चुटीले व्यंग से भरपूर, रोचक भाषण दिया. बहुत अच्छा बोले. 

बाद में उनकी पुस्तक पढी, और वेगड़ जी का एक और रूप देखा, ‘सामान्य वर्ग की भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति करने वाले, लोकप्रिय साहित्यकार का’. यह बड़ा मोहक रूप था. नर्मदा माई, उनके जीवन का हिस्सा थी, वैसे ही, जैसे चित्रकला थी. इन दो हृदयस्थ विषयों के संगम से आभिजात्य कलाकृति का निर्माण होना स्वाभाविक था. उनके ‘सौदर्यनी नदी नर्मदा’ इस मूल गुजराती पुस्तक को सन २००४ में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला. इस पुस्तक का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ. उनके चार हजार किलोमीटर के नर्मदा परिक्रमा पर आधारित यह पुस्तक जिवंत अनुभवों का चित्रण थी. ‘तीरे तीरे नर्मदा’ और ‘अमृतस्य नर्मदा’ उनकी अन्य पुस्तके थी. उसके कुछ वाक्य तो अभी भी याद हैं. एक जगह उन्होंने लिखा हैं, ‘रोटी यह प्रकृति हैं, पूड़ी यह विकृति हैं और भाकर (गाँवों में बनने वाली ज्वार की मोटी रोटी) यह संस्कृति हैं..!’

 पिछले कुछ महीनों में दो बार उनके घर जाना हुआ. रा. स्व. संघ के सह सरकार्यवाह, डॉ. मनमोहन जी वैद्य का जबलपुर में प्रवास था. उन्होंने इच्छा प्रकट की, की ‘इस प्रवास में अमृतलाल जी से मिलना हैं’, मैंने वेगड़ जी को फोन लगाया. उन्होंने सहर्ष आमंत्रित किया. मनमोहन जी गुजरात में अनेक वर्षों तक प्रचारक रहे हैं. इसलिए, गुजराती उनकी दूसरी मातृभाषा हैं. हम जब मिलने गए, और मनमोहन जी उनसे गुजराती में संवाद करने लगे, तो वेगड़ जी इतने प्रसन्न हुए की वे मनमोहन जी को उन्ही के घर रुकने को कहने लगे. यह संवाद दीर्घ था, जिसमे दोनों को यह लगा, ‘हम पहले क्यूँ नहीं मिले..?’

 दो माह पहले, माखनलाल चतुर्वेदी विश्व विद्यालय द्वारा वेगड़ जी को ‘विद्या वाचस्पति’ की उपाधि प्रदान की गयी. चूंकि वेगड़ जी अस्वस्थ होने के कारण उनका भोपाल में जाना संभव नहीं था. अतः कुलपति श्री जगदीश उपासने जी ने तय किया, की यह उपाधि, वेगड जी को, उनके घर पर जाकर देंगे. पिछले माह यह कार्यक्रम हुआ. विश्व विद्यालय के महापरिषद का सदस्य होने के नाते मैं भी उस कार्यक्रम में था. वेगड जी व्हील चेयर पर थे. बीच बीच में ऑक्सीजन की आवश्यकता होती थी. किन्तु फिर भी वे प्रसन्न थे. उन नब्बे वर्षों के उनके अनुभवों की, यायावर जीवन की, कला के शिखर की, साहित्य के सृजन की ऊर्जा तब भी तरुणाई की ताकत से प्रकट हो रही थी. 

 वेगड जी का जाना, हमारे बीच के एक ऐसे व्यक्ति का जाना हैं, जो कला, साहित्य का मर्मज्ञ होते हुए भी अत्यंत सरल था. सहज था. हम सब के लिए दीपस्तंभ था. जीवन भरा-पूरा लेकिन मूल्यों के साथ कैसे जीना चाहिए इसका वस्तुपाठ थे, वेगड़ जी..!