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“आत्मनो मोक्षार्थ, जगत हिताय च” – यही भारत का विचार और आचरण है

डॉ. मनमोहन वैद्य

अब समाज और राष्ट्र के नाते आगे कैसे बढ़ना इस पर विचार करेंगे.

भारत ने कभी भी केवल अपने बारे में नहीं सोचा है. अपने साथ-साथ विश्व के कल्याण की बात ही भारत ने हमेशा सोची है. “आत्मनो मोक्षार्थ जगत हिताय च” यही भारत का विचार और आचरण रहा है.

अपने “स्वदेशी समाज”  नामक निबंध में गुरुवर रविंद्रनाथ ठाकुर निःसंदिग्ध शब्दों में कहते हैं कि “हमें सबसे पहले हम जो हैं, वह बनना पड़ेगा.” इस “हम” की पहचान, अपनी अध्यात्म आधारित और इसीलिए एकात्म और सर्वांगीण जीवनदृष्टि से जुड़ी हुई है. हिमालय से लेकर अंडमान तक फैली इस भूमि पर रहने वाला विभिन्न भाषा बोलने वाला, अनेक जातियों के नाम से जाना जाने वाला, अनेक उपास्य देवताओं की उपासना करने वाला, यहाँ पर सदियों से रहने वाला, प्रत्येक समाज “हम” की इस पहचान को  साँझा करता है, इसे अपनी मानता है. इस पहचान को लोग जानते हैं, उसे अनेक नामों से पहचानते हैं. यह हमारी पहचान – “एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति.”, “विविधता  में एकता”, “प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है”, और “उस” ईशतत्व से जुड़ने के मार्ग प्रत्येक के, उसकी रूचि, प्रकृति और पात्रता के अनुसार, विभिन्न हो सकते हैं, केवल “उस” से जुड़ने की, “उस” से नज़दीक जाने की दिशा में जीवन सतत चलना चाहिए. इन चार प्रमुख बातों पर आधारित  हमारी यह “पहचान” है. वह जीवन के हर क्षेत्र में अभिव्यक्त होती दिखनी चाहिए, यही “हम जो हैं, वह बनने” का मर्म है.

आज भी 70% भारत गांव में रहता है. परन्तु पहले ये गांव कैसे थे? गाँव तक रास्ते नहीं थे, शिक्षा और स्वास्थ्य की अच्छी सुविधा नहीं थी, रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं थे, गांव में रहना पिछड़ेपन का लक्षण है, यह माना जाने लगा था. इसलिए पढ़ने के लिए, और पढ़ने के बाद आजीविका कमाने के लिए पढ़ा-लिखा वर्ग, प्रतिभा-बुद्धि, गांव से पलायन करती थी. परन्तु अब स्थिति बदल गयी है, बदल रही है और भी बदल सकती है. इतना ही नहीं यह बदलनी आवश्यक है. अब रास्ते  बन गए हैं, बिजली, इंटरनेट, मोबाइल, आवागमन के साधन गांव में उपलब्ध हैं, और भी हो सकते हैं. गांव में ही स्वास्थ्य की, अच्छी शिक्षा की व्यवस्था कर सकेंगे तो गांव में ही लोग रहना पसंद करेंगे. शहर केंद्रित के स्थान पर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था, उद्योग आदि की सम्भावना बढ़ी है.

कोरोना के कारण शहरों से लोग अपने गांव में, अपने लोगों में, जहाँ उनकी जड़ें जमीन से जुड़ी हैं, वहां पहुंच गए हैं, पहुँच रहे हैं. इस में शिक्षित वर्ग भी है. यदि उन्हें गांव के विकास के कार्य में जोड़कर वहीं रखा जाए, काम के अवसर वहीं तलाशे जाएं, निर्माण किये जाएं तो गांव में पहुंचे 40% वर्ग को हम वहीं स्थिर, उद्योगरत रख सकते हैं.

आज के शिक्षित वर्ग में जिस इनोवेशन की, नया सोचने की कमी रह गयी है, उन्हें इसके लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से इनोवेशन के लिए  प्रशिक्षित किया जा सकता है. ग्रामीण जीवन सम्बंधित और कृषि आधारित अनेक नए उद्योग, गांव में शुरू हो सकते हैं. ग्राम समूहों के माध्यम से (क्लस्टर्स) परस्पर पूरक उद्योगों की श्रृंखला वहाँ  विकसित कर सकते हैं. गांव में ही उत्पादित वस्तुओं को सूचना तकनीक के माध्यम से सीधे ग्राहक तक या स्थानिक खुदरा बाज़ार तक पहुंचा सकते हैं. इस कार्य से भी अनेक युवकों को रोजगार उपलब्ध करवाया जा सकता है. आज उबर या ओला के माध्यम से एक अच्छी सुविधायुक्त सेवा आपके दरवाजे पर, एक कॉल करते ही उपलब्ध है. वह कितने मिनट में आएगी, कितने समय में पंहुचाएगी यह जानकारी तुरंत उपलब्ध है. उसके लिए सीधा भुगतान करने की सुविधा भी आधुनिक तंत्रज्ञान के कारण संभव है. लोग अनुभव कर रहे हैं, उपयोग कर रहे हैं. इस कारण अनेक युवकों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हुए हैं.

आज रासायनिक खाद से दुनिया, और धरती त्रस्त है. जैविक खेती का महत्त्व और मूल्य लोग समझ रहे हैं. थोड़े अधिक दाम दे कर भी लोग शुद्ध अन्न चाहते हैं. माँग और पूर्ति के इस कार्य व्यवहार को परस्पर उपयोगी, संतुलित अर्थतंत्र के रूप में  विकसित  किया जाए, सीधा ग्राहकों तक यह उत्पाद पहुँचाए जाएँ तो इस के माध्यम से बड़ी संख्या में रोजगार निर्माण हो सकते हैं. देशी नस्ल की गौ के दूध और अन्य गौ उत्पाद की मांग बढ़ सकती है, ये सारी योजनाएं ग्राम केंद्रित या ग्राम समूह केंद्रित हो सकती हैं, होनी चाहिएं.

आज रोजगार उपलब्ध कराने की सर्वाधिक क्षमता लघु और मध्यम उद्योगों में है. यदि बिजली और अन्य आवश्यक सुविधाएं गांव में दी जाएं तो वहीं पर लघु उद्योग शुरू करने के लिए प्रोत्साहन और विशेष रियायत देनी चाहिए. सरकार को चाहिये कि ऐसे उद्योग शुरू करने की सुलभता और सहजता निर्माण करे. शुरू में ग्रामीण क्षेत्र में उद्योग शुरू करने वालों को कम ब्याज में कर्ज और अन्य कुछ रियायतें उपलब्ध कराएं.

दुनिया में अपने उत्पादन को बेचना है तो उत्पाद के डिज़ाइन पर भी ध्यान देना होगा. कोरिया और जापान जैसे देशों ने डिज़ाइनिंग का बहुत पहले से ध्यान दिया था. इसलिए वहाँ निर्मित वस्तुएँ दुनिया भर में खप रही थीं. भारत में हमें डिज़ाइनिंग के लिए ऑनलाइन कोर्सेस — कार्यशालाएँ शुरू करनी चाहिएं.

भारत की आर्थिक स्थिति पर चीन का बहुत प्रभाव था. इस कोरोना महामारी के चलते चीन बहुत विवाद में आया है. अब यदि भारत में चीन में उत्पादित वस्तुओं के बहिष्कार की बात आती है तो समाज का स्वतःफूर्त प्रतिसाद मिलने की पूर्ण सम्भावना है. परन्तु उसके पहले भारत को उन सभी वस्तुओं के लिए, जो चीन से केवल इसलिए बड़ी मात्रा में आती थीं क्योंकि सस्ती पड़ती हैं, उनके स्वदेशी विकल्प खड़े करने होंगे. यह एक प्रकार का आर्थिक युद्ध ही है. इसलिए युद्धस्तर पर इसके लिए तैयारी की जाए तो अनेक युवकों को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो सकते हैं.

अनेक देश चीन से व्यापार बंद करने का सोच रहे हैं, ऐसी बाते मीडिया में आती रहती हैं. यदि हम चीन से आने वाली वस्तुओं का अच्छा और सस्ता स्वदेशी विकल्प बड़ी मात्रा में दे सकेंगे, तो दुनिया के अनेक देश चीन के स्थान पर भारत से व्यापार करेंगे. यह भारत के युवकों को रोज़गार के नए अवसर देगा. ऐसा यदि हुआ तो भारत का निर्यात बढ़ेगा. भारत की आर्थिक स्थिति और सुदृढ़ होगी. सरकार-राज्य निर्यात की सुविधा और सहूलियत की व्यवस्था करें. बाक़ी सारी चुनौती समाज स्वीकार करेगा.

स्थानिक रोज़गार को ध्यान में रखकर ही सारी योजनाएँ बनानी होंगी. प्रत्येक देश के लिए स्वदेशी महत्व की और आवश्यक बात है. वैश्वीकरण (globalisation) का “one size fits all”  यह विचार अनुचित है. परस्पर सहमति से, परस्पर पूरक आर्थिक सहयोग एवं व्यापार के करार दो देशों के बीच होना उपयोगी सिद्ध होगा.

ये सारे उद्योग ग्राम-समूह केंद्रित होंगे तो वहां निर्मित वस्तुओं का मूल्य भी तुलना में कम रह सकता है, कारण गांव में जीवन जीना (cost of living) शहर की तुलना में सस्ता होगा. और जीवन का स्तर (quality of life) काफी अच्छा होगा. वह अपने लोगों के बीच रहेगा, जमीन से जुड़ा रहेगा, गांव के सामाजिक जीवन में भी अपना योगदान देता रहेगा. शहर में रहने का अनुभव होने के कारण गांव में अनेक नयी पहल वह कर सकेगा.

यह सारा केवल सरकार के भरोसे नहीं चल सकेगा. समाज की पहल और सरकार का सहयोग दोनों के द्वारा ही यह सम्भव होगा. एक सर्वंकष (total) और एकात्म (integrated) योजना बनानी होगी. धीरे धीरे राज्य पर अवलंबन कम करते हुए, समाज स्वावलम्बी बनकर इन योजनाओं को चला सकेगा. रविंद्रनाथ ठाकुर की स्वदेशी समाज की यही कल्पना है. वे कहते हैं, वह समाज जो राज्य (state power) पर कम से काम अवलम्बित होता है, वह स्वदेशी समाज है.

भारत में नई शिक्षा नीति की तैयारियाँ चल रहीं. उस पर पूर्ण विचार कर वह शीघ्र ही लागू हो. यादि ऐसा हुआ तो भारत की जड़ों से जुड़कर, भारतीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीने का लक्ष्य रखने वाली पीढ़ी तैयार होगी. सभी दृष्टि से भौतिक समृद्धि और सम्पन्नता को साधते हुए भी अपने अंतर के “ईश” तत्व को समझना और उसे आत्मसात् करने का प्रयत्न करना इन दोनों को एकसाथ साधना, भारत सहस्राब्दियों से इसे जीवन की पूर्णता मानता आ रहा है. “यतोSभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः.” भारत की इस प्राचीन मान्यता का यही अर्थ है. भारत की आध्यात्मिक चिंतन पर आधारित समाज रचना होगी तो समाज को समृद्ध और संपन्न बनाने के लिए स्वेच्छा से, कर्त्तव्य बोध से समाज को देने की वृत्ति बढ़ेगी. समाज के पास एकत्रित इस सामाजिक पूँजी से समाज का प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्न समृद्ध बनेगा.

विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता कहती हैं, कि “जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रख कर समाज को देते हैं, उस समाज में, इस एकत्र हुई सामाजिक पूँजी के आधार पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्न और समृद्ध बनता है. पर, जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ लोग तो सम्पन्न और समृद्ध होते हैं, पर समाज दरिद्री रहता है.” हमारे यहाँ समाज को अपना मानकर देने को ही “धर्म” कहा गया है. राज्य शक्ति पर आधारित नहीं, तो इस धर्म पर आधारित समाज शक्ति के आधार पर ही समाज टिका रहा है, सम्पन्न और समृद्ध रहा था.

श्रेष्ठ लोगों को देख कर अन्य लोग भी उसका अनुसरण करेंगे,

“यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः.

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते..”

इन सारी संभावनाओं को ध्यान में लेकर भविष्य के भारत का, इसकी व्यवस्थाओं का वृहद् खाका खींचा जाए, एक मास्टर प्लान बनाया जाये. “कोरोना काल” की सीख तो यही है.

सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ