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अछूत कांग्रेस ‘जी हुजूरी’ के शोरगुल में फिर चूक गई!

वंशवाद के खिलाफ आम चुनाव की घोषणा होते ही नरेंद्र मोदी ने पहला प्रहार कर बयान दिया और राजनीतिक इच्छाशक्ति बताई, तब लोगों ने इसे ‘चुनावी शिगूफा’ और जनता का दिल बहलाने वाला एक स्टंट माना! लेकिन, जब उन्होंने अपनी पार्टी में वंशवाद की प्रदत्त परिस्थिति के आधार पर टिकट नहीं बंटने दिए, तब जनता को लगा कि वास्तव में वे जो कह रहे हैं, वह कर भी रहे हैं! इस तरह चुनाव का एजेंडा सेट हो गया! आज पराजय के बाद राहुल गाँधी वही ‘पुत्र मोह’ का रोना रो रहे हैं! क्या उन्हें यह पहले समझ में नही आ रहा था, जो नरेंद्र मोदी समझ रहे थे! लेकिन, समझाता कौन हैं? क्योंकि, वे भी ‘वंशवादी पैराशूटर’ होकर अपनी एप्रेंटिसशिप के दौर में थे यही प्रदत्त परिस्थिति है!

  ‘इंदिरा गाँधी’ वंशवाद की अर्जित परिस्थिति का उदाहरण थीं, सोनिया और राहुल तो कदापि नहीं! इंदिराजी ने राजनीति की यथार्थ पाठशाला की नर्सरी क्लास से एडमिशन लिया था और राहुल बिना मैट्रिक पास किए एम.फिल. कर रहे थे, तो स्वाभाविकता कहाँ से आएगी? राजनीति की पथरीली, कंटकाकीर्ण मार्ग की सच्चाइयों से रूबरू नहीं होने का परिणाम था कि कांग्रेस की कार ऐसे कुचालक ड्राइवर को सौंप दी, जो लर्निंग पीरियड में था! ऐसे में तो दुर्घटना अवश्यम्भावी थी! गांधी के छुआ-छूत मुक्ति अभियान चलाने वाली पार्टी आज भारतीय राजनीति में अछूत हो गई! एक समय भाजपा पर साम्प्रदायिकता का लेबल चिपकाने वाले कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल, कांग्रेस को साथ रखने से कतराने लगे चाहे सपा-बसपा हो, टी.डी.पी. हो या ममता की टी.एम.सी., बी.जे.डी., टी.आर.एस., इनेलो, और कांग्रेस विरोध कर उभरी ‘आप’ के अलावा वह वामदल जो कभी कांग्रेस के साथ सत्ता में भागीदार रहे थे! लेकिन, गलबहियाँ कर रूस की दोस्ती जिंदाबाद के नारे लगाते थे! वे कांग्रेस की छाया के साथ भी नहीं रहना चाहते थे, शायद उन्हें राजनीतिक इलहाम हो गया था कि ‘डूबते जहाज़’ में सवारी नहीं करना 22 राज्यों में कांग्रेस अकेली लड़ी, 17 राज्यों में शून्य की सवारी की।

  चुनाव परिणामों ने ‘अछूत’ रखने के अन्य विपक्षी दलों के निर्णय पर मुहर लगा दी, जब लालू के राजद और रालोसपा (उपेन्द्र कुशवाहा) का सफाया हो जाता है और शरद पंवार जैसे-तैसे पुरानी 4 सीटों की वापसी कर इज्ज़त बचाते हैं! कर्नाटक की जे.डी.एस.की भी कांग्रेस का हाथ थामने से सीटें आधी रह गई! केरल में कांग्रेस को वाम विरोधी वोट मिला और तमिलनाडु में डी.एम.के. की पुण्याई से आठ सीटें मिल गई वहाँ भी भाजपा विरोधी वोट नहीं था! पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर का व्यक्तिगत कमाल रहा, राहुल का कोई असर नहीं था! 1998 पचमढ़ी अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘एकला चलो’ की नीति अपनाई जिसे आज उनके साथी विपक्ष ने पूरा करवा दिया। पराजय में क्षत्रप ढह गए, किले ढह गए क्योंकि राहुल गाँधी को उनकी ‘बच्चा ब्रिगेड’ उन्हें यह समझाने में नाकामयाब रही कि 2014 का चुनाव नकारात्मक प्रचार का चुनाव था, 2019 का चुनाव सकारात्मक प्रचार उम्मीदों को पंख लगाने, विश्वसनीयता बनाम अविश्वसनीयता के बीच फैसला करने का है! जहाँ एंटी इनकम्बेंसी नहीं है प्रो-इनकम्बेंसी है जिसे बाद में लहर, सुनामी कहा गया! इसमें अशिष्टता, उद्दंडता, अमर्यादित भाषा नहीं बल्कि जनता में जो सकारात्मक उम्मीद बंधी थी। उसे परवान चढ़ाकर दिलासा देने का चुनाव था कि हम आएँगे तो इससे ज्यादा ‘लास्ट मेन डिलीवरी’ के उद्देश्य से सत्ता चलाएँगे! इनके अलावा घुसपैठ का मुद्दा हो या राष्ट्रवाद या राष्ट्रद्रोह का सुरक्षा का मामला हो या आतंकवाद का कांग्रेस ने भाजपा विरोधी रुख अपनाने में यह ध्यान नहीं रखा कि यह जन-भावना विरोधी रुख साबित होगा।

  दरअसल कांग्रेस को यह समझ लेना चाहिए था कि वह जमाना लद गया जब उनके बारे में कहा जाता था ‘ये कांग्रेसी कमाल के लोग हैं, जो चूहे से हाथी को हार पहनवा देते हैं!’ तब भ्रष्टाचार की सर्वानुमति से कांग्रेस चलती थी! मोदी ने ईमानदारी की सर्वानुमति का एजेंडा तय कर दिया! लेकिन, राहुल को क्या कनिष्कसिंह, निखिल अल्वा, के.राजू, प्रवीण चक्रवर्ती, सचिन राव, अलंकार सवाई, दिव्या स्पंदना और संदीपसिंह जैसे जे.एन.यू. या अन्य वाम मार्ग (उल्टा) से प्रशिक्षित टीम में सीधी सलाह देने का माद्दा था? क्या राजनीतिक अनुभव था इनका? यही न कि ‘प्रधानमंत्री को चोर’ और देशद्रोह की धारा हटाने का वचन और मिराज एच ए एल ने बनाए यह राहुल से कहलवाते रहे! जबकि,मिराज न कभी एच ए एल बनाएगा,ना ही उसने बनाए! कहाँ गए जनार्दन द्विवेदी, वीरभद्रसिंह, गिरधर गमांग, तरुण गोगोई, पी.चिदम्बरम, दिग्विजयसिंह, जयराम रमेश, अशोक गेहलोत, अम्बिका सोनी, नारायण सामी, मोतीलाल वोरा,मोहसिना किदवई, गुलाम नबी आजाद, मारग्रेट अल्वा, मोहन प्रकाश, किरन कुमार रेड्डी, रमेश चेन्निथल्ला, पृथ्वीराज चव्हाण और तो और महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया को पूर्वी उत्तरप्रदेश की कमान दी गई! वो कितने दिन वहाँ गए और रहे यह उनके द्वारा जारी प्रवास कार्यक्रमों से समझा जा सकता है! चलते चुनाव में वे अमेरिका पुत्र के दीक्षांत समारोह में चले जाते हैं, तो इससे जाहिर है कि वे बराए-नाम थे काम उनके पास कुछ नहीं था सभी राहुल गाँधी की टीम कर रही थी! लेकिन, राहुल का इस्तीफा स्वीकारने में कांग्रेस फिर चूक गई, उस परम्परागत ‘जी हुजूरी’ के बीच एक सार्थक क्षण की तलाश में?

  राहुल ने काँग्रेस को राहू की दशा में ला पटक दिया। अब न इस फ़टे दूध की मिठाई बनेगी, न ही पनीर या मख्खन निकलेगा और न छाछ बनेगी। काँग्रेस को गाँधी परिवार के तबेले की बजाए  किसी नई गाय का  दूध दुहना पड़ेगा।

 – श्री गोविन्द मालू

(लेखक : मध्यप्रदेश राज्य खनिज विकास निगम के पूर्व उपाध्यक्ष व स्वतंत्र पत्रकार है)