राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी का एक वक्तव्य पढ़ा कि भारत को संस्कृत भाषा में ही समझा जा सकता है। कई अन्य प्रबोधनों में भी वे मातृभाषा में शिक्षा और संवाद की महत्ता के बारे में स्पष्टता के साथ कहा। स्मृतियों पर जोर देते हुए इस पर कुछ विचार कर ही रहा था कि फेसबुक ने छह साल पहले इन्हीं दिनों लिखी एक रिपोर्ट को सामने हाजिर कर दी।
यह रिपोर्ट थी भाषा आंदोलन के एकल योद्घा श्यामरुद्र पाठक पर। श्यामरुद्र पाठक का संघर्ष हिन्दी के लिए संघर्ष का अद्वितीय उदाहरण है। इसलिए उनके बहाने हम आगे की बात करेंगे।
श्यामरुद्र पाठक मातृभाषा के सवाल पर काँग्रेस के मुख्यालय 24 अकबर रोड़ पर धरने में बैठे थे। वह 16 जुलाई 2013 का दिन था। तुगलक रोड़ थाने की पुलिस आई उनका टेंट-सेंट जब्त कर गिरफ्तार किया और तिहाड़ जेल भेज दिया। इत्तेफाक से मैं उस दिन दिल्ली में घटना स्थल पर ही था और उनसे मिलने की गरज से ही गया था।
श्यामरुद्र पाठक का मैं 1985 से ही मुरीद हूँ जब उन्होंने आईआईटी दिल्ली में पढते हुए बी.टेक की परियोजना रपट हिन्दी में प्रस्तुत की थी और संस्थान ने उन्हें डिग्री देने से मना कर दिया था। इस खबर को प्रभाष जोशी के जनसत्ता ने पहले पेज की सुर्ख खबर बनाई थी। इसके बाद भाषा के सवाल पर संसद में अभूतपूर्व हंगामा हुआ। संस्थान को श्यामरुद्र पाठक की हिन्दी की परियोजना रपट स्वीकार करनी पड़ी। इस लड़ाई में अटलबिहारी वाजपेयी जैसे तत्कालीन कई बड़े राजनेता,छात्र पाठक के साथ खड़े हो गए थे।
जब हम मातृभाषा के सवालों को लेकर विमर्श करें तो श्यामरुद्र पाठक के संघर्ष का अभिनंदन करना पहला नैतिक कर्तव्य बनता है। प्रायः आंदोलन और आह्वान पर उपदेश कुशल बहुतेरे.. होते हैं। इसके उलट श्यामरुद्र ने अपने संघर्ष को ही मिसाल बनाया। चलिए संक्षेप में इनके बारे में जानते हैं। श्यामरुद्र पाठक बिहार के सीतामढी में पैदा हुए। गांव की सरकारी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की।
1979 में हायरसेकंडरी की परीक्षा में प्रवीण्यसूची में दूसरे नंबर रहे। राज्य सरकार ने इन्हें इस उपलब्धि के लिए रजतपदक दिया। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा भी उनदिनों लगभग सिविल सेवा की परीक्षा जैसे कठिन होती थी, गांव की फुटही सरकारी स्कूल से निकले श्यामरुद्र ने पहले ही प्रयास में प्रवीण्यता के साथ इसे पास किया। आगे की पढाई के लिए आईआईटी दिल्ली को चुना। भाषा के सवाल पर यहीं से लड़ाई शुरू की।
आईआईटी में अँग्रेजी के वर्चस्व से आहत पाठक ने तय किया कि बी.टेक की अंतिम परियोजना रपट हिंदी में ही प्रस्तुत करेंगे। सन् 85 में उनका यह भाषाई “दुस्साहस” देश के सामने आया। जीवट पाठक के इस संकल्प से संसद हिल गई। भाषा के सवाल पर लोकसभा में ऐतिहासिक बहस हुई। जीत पाठक की हुई आईआईटी को झुकना पड़ा। नियम बदलने पड़े और इस एकल योद्घा ने हिंदी का झंडा गाड़ दिया। यह तो लडा़ई की शुरूआत थी। इसके तत्काल बाद ही अभियान शुरू किया कि आईआईटी की प्रवेश परीक्षा भी हिन्दी और भारतीय भाषाओं में हो। इसके लिए एकल आंदोलन छेड़ दिया। केन्द्रीय सचिवालय की समूची अफसरशाही एक तरफ और डेढ पसली के श्यामरुद्र पाठक एक तरफ।
1990 में पाठक ने तय किया कि अब तो करो या मरो वे आमरण अनशन में बैठ गए। 19 दिन के सत्याग्रही उपवास से एक बार दिल्ली फिर हिल गई। श्यामरुद्र के साथ ही हिन्दी और उसकी सहोदर भाषाओं की जीत हुई। सरकार ने आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में मातृभाषा को शामिल कर लिया।
श्यामरुद्र के सामने चमकदार करियर और विभिन्न पार्टियों के टिकट के प्रस्ताव थे पर उन्होंने मातृभाषाओं को सम्मान दिलाने का कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। 1985 में ही गेट परीक्षा में 99.89 परसेंटाइल हासिल करते हुए पूरे देश में प्रथम रहे। ऊर्जा के क्षेत्र में पीएचडी शुरू की। पढाई और सत्याग्रह साथ साथ। ऐसी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। श्यामरुद्र पाठक ने शिक्षा के अलावा दूसरे क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं के प्राणप्रतिष्ठा की लड़ाई शुरू की।
4 दिसम्बर 2012 को वे काँग्रेस के मुख्यालय 24 अकबर रोड़ के दरवाजे पर अपनी माँगों के साथ बैठ गए। इस बार उनकी मांग थी कि न्याय की भाषा मातृभाषा हो। उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 के संशोधन की बात रखी। यही अनच़्छेद उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में सिर्फ अँग्रजी के संव्यवहार की बात करता है। पाठक की मांग थी कि उच्चन्यायालयों में अँग्रेजी के साथ ही वहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं में सुनवाई हो,उसी भाषा में फैसले और आदेश लिखे जाएं। सर्वोच्च न्यायालय में अँग्रेजी के साथ हिन्दी भी व्यवहार में लाई जाए। हिन्दी में भी बहस और सुनवाई हो। फैसले अँग्रेजी के साथ हिन्दी में भी लिखे जाएं।
225 दिन के धरने के बाद क्रिमिनल लायरों से लैस कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सत्याग्रही श्यामरुद्र पाठक को तिहाड़ जेल में डाल दिया। पाठक को लाठी,गोली, जेल की परवाह कहाँ। वे 2014 में छात्रों के साथ फिर निकल पड़े नई मांग को लेकर कि यूपीएससी से अँग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की जाए। यूपीएससी में भारतीय भाषाओं को स्थान मिले।
श्यामरुद्र पाठक का मिशन सतत् जारी है भले ही चैनलों के पैनलिए उन्हें अपनी बहस के मुद्दे में शामिल न करें। पाठक कहते हैं- जबतक लोगों को उनकी मातृभाषा में पढ़ने व काम करने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक कैसे कहा जा सकता है कि पूर्ण आजादी मिली है। मातृभाषा का सवाल हमारी अस्मिता से जुडा़ है”। अँग्रेजी अभी भी शासकों की भाषा है। यही मजबूरी अभिभावकों को अपने बच्चों को मँहगी पब्लिक स्कूलों में भर्ती कराने ले जाती है। यह व्यवस्था बच्चों से उनके माँ की जुबान छीन रही है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की यही चिंता है इसलिए इस विषय को एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है। भारतीय भाषाओं को लेकर 18 जनवरी 1968 को संसद में एक संकल्प पास हुआ था। संकल्प में वही माँग है जो श्यामरुद्र की है। वही चिंता है जो संघ की है। इस ओर आगे बढ़ा जा सकता है। संकल्प को कानूनी जामा पहनाने हेतु सरकार सक्षम है।
मातृभाषा चाहे देश के किसी हिस्से की हो अब उसकी पुनः प्राणप्रतिष्ठा का समय आ गया है। यह काम शिक्षारंभ से हो और इसके समानांतर ही प्रशासनिक व न्यायिक सेवाओं में इन्हें जगह मिले। यह देश की बहुसंख्य भावना से जुडा़ है। मुठ्ठी भर अँग्रेजी दा लोगों का गिरोह कब तक इस देश को ढोरडंगर की तरह हांकता रहेगा…?