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भारत जोड़ने के नाम पर तोड़ने का…

अपनी तथाकथित भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने महाराष्ट में विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें देश वीर सावरकर के नाम जानता है, उनका एक पत्र दिखाते हुये कहा कि सावरकर अंग्रेजो से मिले हुये थे और पत्र में उन्होंने अंडमान जेल से रिहाई करने हेतु अंग्रेजो से माफी मांगी थी, और पत्र के अंत में ‘योर ओबिडेन्ट सर्वेन्ट’ लिखा था।

राहुल गांधी के अनुसार इसका आशय यह था कि सावरकर अंग्रेजो से यह याचना कर रहे हैं- ‘सर मैं आपका आज्ञाकारी सेवक बने रहना चाहता हूँ।’ राहुल गांधी के अनुसार ऐसा उन्होंने जेल के डर से किया। अब जहाँ तक ‘योर आबिडेन्ट प्यूपिल’ जैसे शब्द का सवाल- यह शब्दावली तो उस दौर में महात्मा गांधी ने भी ब्रिटिश सरकार के प्रति प्रयोग की थी।

22 जून 1920 वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को पत्र लिखते हुये अंत में उन्होंने- ‘योर एक्सलेंसी ओबीडेंट सर्वेन्ट’ लिखा तो एक जगह उन्होंने फेथफुल सर्वेन्ट लिखा। तो क्या राहुल गांधी के अनुसार गांधी जी अंग्रेजो के आज्ञाकारी और निष्ठावान सेवक थे? यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि काकोरी कांड में फांसी की सजा पाने पर राम प्रसाद बिस्मिल ने क्रान्तिकारी गतिविधियों से अलग रहने की बाते लिखी थी, तो क्या इससे किसी ने बिस्मिल की देशभक्ति पर प्रश्न-चिन्ह उठाया? स्थिति तो यह थी कि अमेरिका के राष्ट्रपति इब्राहीम लिंकन ने एक सांसद को पत्र लिखते हुये अंत में ‘योर ओबिडेंट सर्वेन्ट’ लिखा था। क्या लिंकन उस सांसद के आज्ञाकारी सेवक हो गये? वस्तुतः यह उस समय की प्रथा या परिपाटी थी, जिसें शिष्टाचार के चलते ऐसे शब्द लिखे जाते थे। जहाँ तक माफीनामा लिखने का सवाल है, वहाँ पर पण्डित जवाहर लाल नेहरू के जीवन का एक घटनाक्रम भी उल्लेखनीय है- पंडित नेहरू 1923 में वगैर अनुमति के नाभा स्टेट में प्रवेश कर गये, जिससे उन्हें दो वर्ष की सजा घोंषित कर जेल में डाल दिया गया। जिस पर उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने अंग्रेज सरकार को माफीनामा दिया और यह वचन भी दिया कि वह भविष्य में कभी भी नाभा राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे, फलतः वह 12 दिन में ही जेल से छूटकर आ गये।

वाद-विवाद का प्रश्न अपनी जगह पर हैं, पर वीर सावरकर का देश की आजादी की लड़ाई में जो योगदान रहा, वह तो वर्णनातीत है। वह अकेले ऐसे स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे, जिन्हें दोहरे काले पानी की सजा दी गई। उनके परिवार की सभी संपत्तियाँ अंग्रेज सरकार द्वारा जप्त कर ली गईं। इतना ही नहीं उनका पूरा परिवार ही कहीं-न-कहीं आजादी की लड़ाई के लिये समर्पित था। उनके भाई गणेश सावरकर भी उसी अंडमान जेल में बन्द थे, पर 11 साल तक उन्होंने एक दूसरे का मुंह तक नहीं देखा और पूरे 10 वर्षाें तक अंडमान जेल में योतनाएं भुगतते रहे।

वीर सावरकर स्वतंत्रता संग्राम के महान और अतुलनीय सेनानी ही नहीं, वह ऐसे व्यक्तित्व के थे। जिन्होंने कई राष्ट्रवादियों और राजनीतिक नेताओं को प्रेरित किया। इनमें एम.एन. राय, हीरेन्द्र नाथ मुखर्जी और श्री पाद अमृत डांगे जैसे नेता भी थे। यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दुत्व की विचारधारा से तीब्र मतभेद होते हुये भी एम.एन. राय और ई.एम.एस. नम्बूदरियाद जैसे ख्यातिलब्ध कम्युनिष्ट सावरकर के प्रति बहुत ऊँचा सम्मान रखते थे।

वस्तुतः सावरकर के जिन पत्रों को काफीनामा बतौर प्रचारित किया जाता है, वह क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्तार के भी दृष्टि से लिखे गये थे। इतिहास में ऐसे अनेको उदाहरण हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज जब औरंगजेब के दरबार में जाकर उसकी अधीनता स्वीकार करने की बात करते हैं, तो कोई यह आत्म समर्पण नहीं, बल्कि परिस्थितियों के चलते एक रणनीतिक कदम था। इसी तरह से बुंदेल केशरी छत्रसाल ने कई बार औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करने की बातें कहीं- पर यह सब परिस्थितियों के चलते रणनीतिक कदम थे। जैसे कि आगे चलकर साबित भी हुआ। पर सावरकर को गांधी के विरोध में खड़ा करने के बावजूद उनके विरोधी यह पूरी तरह छिपाने का प्रयास करते हैं, कि गांधी के सावरकर पर क्या विचार थे? यह बड़ी हकीकत है कि सावरकर का पूरा जीवन शौर्य, साहस एवं बलिदान की गाथा है। ऐसी स्थिति में देश की स्वतंत्रता को लेकर दोनो के रास्ते अलग भले थे, पर सिर्फ वीर सावरकर पर ही नहीं, उनके भाई जी.डी सावरकर पर भी ‘कलेक्टेट वर्क्स आफ महात्मा गांधी’ (बाल्यूम 20 पेज 368) में देखा जा सकता है। जिसमें महात्मा गांधी ने स्वतः कहा है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक कैदियों को राजकीय क्षमादान दिए जाने के बावजूद सावरकर बन्धुओं के साथ अन्याय किया गया। जबकि वह छोड़े गये दूसरे कैदियों की तरह राजनीतिक अपराधी ही थे। इस लेख को गांधी जी ने 26.05.1920 को ‘सावरकर ब्रदर्स’ टाइटिल के नाम से लिखा था। सच्चाई यह है कि उस दौर में बड़ी संख्या में राजनीतिक कैदी इस तरह के राजकीय क्षमादान के लिये लिखते थे, जो सावरकर के लिये बहुत बड़ा अपराध हो गया। उक्त आलेख में गांधी जी ने वी.डी. सावरकर पर ही नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई जी.डी. सावरकर पर भी उनके संघर्ष और बलिदान को लेकर विस्तार से लिखा। उन्होंने इसमें विशेष तौर से यह भी लिखा, दोनो सावरकर बन्धुओं ने अपने राजनीतिक दृष्टिकोंण को घोषित किया है और यह भी कहा है कि वह किसी क्रान्तिकारी गतिविधि हिंसक में भाग नहीं लेंगे। यदि उन्हें मुक्त किया जाता है तो वह रिफार्म ऐक्ट (1919) के अन्तर्गत कार्य करेंगे, क्योंकि यह भारत को राजनैतिक जिम्मेदारी के लक्ष्य के अनुरूप हैं। इन पत्रों में कही भी अपने कृत्यों के लिये कहीं मांफी या क्षमा मांगना तो दूर पश्चाताप तक नहीं व्यक्त किया गया है। तभी तो गांधी जी ऐसे पत्र की पूरी जानकारी के बाद सावरकर को भारत का विश्वसनीय और वीरपुत्र बताते हैं। गांधी ने यह भी लिखा था- यदि भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे भय है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र (सावरकर और उनके बड़े भाई) सदा-सदा के लिये हाथ से चले जायेंगे। इसका मतलब उन्हें सावरकर के जीवन और उनके कुशल-क्षेम को लेकर बेहद चिंता थी। गांधी जी ने आगे यह भी लिखा है कि वायसराय ने सावरकर को लोक शांति के खतरे के चलते मुक्त नहीं किया। स्पष्ट है कि यदि सावरकर जेल से छूटकर बाहर आते तो वह शांत न बैठकर भारत माता की आजादी के लिये ही कार्य करते। तभी तो अंग्रेज उन्हें खतरा ही मान रहे थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री रहते 1970 में वीर सावरकर के संदर्भ में डाक टिकट जारी किया था, उनके जीवन पर वृत्त फिल्म बनवाई थी और 11 हजार रूपये का चंदा भी दिया था।

20 मई 1980 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पंडित बाखले जो सावरकर शताब्दी समारोह के सचिव थे को पत्र लिखकर कहा- ‘वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध हमारे स्वंतत्रता आंदोलन के लिये बेहद अहम है। मैं आपको देश के महान सपूत के शताब्दी समारोह में आयोजन के लिये बधाई देती हूँ।’’ पर मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी अंडमान के सेल्यूलर जेल में जाकर वीर सावरकर की नाम पट्टिका को तोड़-फोड़ का जघन्य कृत्य करते हैं।

यह भी उल्लेखनीय है कि ड़ेढ़ दशक बाद जब वीर सावरकर जेल से छूटे, तब समाज सेवा के क्षेत्र में उन्होने उल्लेखनीय कार्य किया। निसंदेह यह उनके हिन्दुत्व का ही विस्तार था कि वह समाज में समरसता के इतने बड़े पक्षधर थे। उनका कहना था- ‘हमारे 1 करोड़ धर्मावलंबियों को अस्पृश्य’ व पशुओं से बदतर कहना न केवल मानव जाति का बल्कि हमारी आत्मा का भी अनादर करना है। इसलिए मेरा अटूट विश्वास है कि अस्पृश्यता का समूल उन्मूलन होना चाहिए।

1920 में अंडमान से भेजे गए एक पत्र में उन्होंने लिखा, जैसा कि मेरा मानना है कि मैं हिन्दुस्तान पर विदेशी हुकूमत के खिलाफ बगावत करू, इसी तरह मैं यह मानता हूँ कि जातिगत भेदभाव और आस्पृश्यता के खिलाफ भी बगावत करनी चाहिए। बतौर हिन्दू महासभा अध्यक्ष उनकी कोई यात्रा अस्पृश्य रहे लोगो के घरों में जाए बिना पूरी नहीं होती थी। गणेशोत्सव के अवसर पर वह एक ही शर्त पर व्याख्यान देते थे कि उस अवसर पर अस्पृश्य माने जाने वाले लोग भी मौजूद रहे।

1933 को उन्होंने एक कैफे की शुरूआत की जो अन्य जातियों के साथ अस्पृश्यों के लिये भी था। वह समूचे भारत में इस तरह का पहला हिन्दू कैफे था। इसमें चाय, पानी आदि महार जाति के व्यक्ति द्वारा ही दिया जाता था। सावरकर से मिलने आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये उस कैफे में जाकर पहले चाय पीना अनिवार्य था। उन दिनों ऐसे कृत्य कितने साहस के काम थे, यह सावरकर के अंध-निंदक नहीं समझ सकते। उस समय की परिस्थितियां यह थी कि ब्राह्मण, मराठो तक के साथ बैठकर नहीं खाते थे। मराठे, महारो व कुम्हारो साथ बैठकर नहीं खाते थे। महार व कुम्हार सफाईकर्मी वर्ग के साथ भोजन नहीं करते थे। सावरकर महारो के साथ बैठकर भोजन करते थे और ऐसी ही जातियों के लोगो से पानी लेकर पीते थे।

22 फरवरी 1933 को उत्सव के रूप में उन्होंने अस्पृश्यता का पुतला भी फूंका था। ऐसे कार्याे के लिये उन्होंने डॉ.अम्बेडकर के अभियानों का खुलकर समर्थन किया था। इसी को दृष्टिगत रखते हुये उन्होंने पतित पावन मंदिर की स्थापना कराई थी। स्नान के बाद कोई भी हिन्दू यहां पूजा कर सकता था। इतना ही नहीं मंदिर के न्यास में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व अस्पृश्य सभी वर्गाें के लोग थे।

फरवरी 1933 में रत्नागिरि आए ब्रह्म समाज के नेता व दलित वर्ग के मंडल प्रमुख विट्ठल रामजी शिंदे ने उनके बारे में कहा था- ‘मैं सावरकर की उपलब्धियों को देखकर अभिभूत हूँ और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरा बचा हुआ जीवन भी सावरकर को दे दे, ताकि वह मेरी आकांक्षाओं को पूरा कर सकें। सावरकर ने उन लोगो के लिये शुद्धिकरण का, घर वापसी की भी शुरूआत की- जिन्होंने किसी भय या प्रलोभन के चलते हिन्दू धर्म छोड़ा था।

इनके उपरोक्त महती कृतत्वों के अलावा ‘1857 का स्वतंत्र्य समर’ उनकी ऐसी पुस्तक है जो अतुलनीय है। किसी के शब्दों में जो इतिहास की पुस्तक नहीं, स्वयं इतिहास है। बहुत से प्रबुद्धजनों को पता होगा कि सावरकर ने कितनी विपरीत परिस्थितियों में लंदन में रहते हुये इस पुस्तक को लिखा था। इस पुस्तक को छिपाकर भारत लाना एक साहसपूर्ण क्रान्ति कर्म बन गया था। वह देशभक्त क्रान्तिकारियों की गीत बन गई थी। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अतः करणों में क्रान्ति की ज्वाला सुलगा जाती थी। यहां तक कि जब 1910 में यह पुस्तक फ्रेंच भाषा में अनूदित हुई तो फ्रांसीसी क्रान्तिकारी व पत्रकार ई. परियोन ने उसका प्राकथन लिखा- ‘‘यह पुस्तक एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चार है, देश भक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्तक हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंकि महमूद गजनवीं के बाद 1857 में ही हिन्दुओ और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरूद्ध युद्ध लड़ा। यह सही अर्थाें में राष्ट्रीय क्रान्ति थी। इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है।’’

यह सावरकर जैसा हिन्दुत्ववादी ही कह सकता था- ‘‘आप मुस्लिम हैं तो मैं हिन्दू हूँ, वरना मैं तो विश्व मानव हूँ।’’ राहुल गांधी जैसे लोग कहने को तो भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं, पर इस तरह से हिन्दुत्व जो देश को जोड़ने का प्रमुख कारक है, उसके प्रतीक सावरकर पर हमला कर कहीं-न-कहीं भारत तोड़ो अभियान ही चला रहे हैं। असलियत में राहुल का उद्देश्य गुजरात विधानसभा चुनाव में इस तरह से मुस्लिम मतों का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण करना है।

वीरेन्द्र सिंह परिहार
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