महामति प्राणनाथ महाराज वीर छत्रसाल के समकालीन अत्यन्त प्रभावशाली सन्त थे। वे प्रेम, उदारता और सहिष्णुता की मूर्ति थे। उनकी यही मान्यता थी कि धार्मिक संघर्ष शक्ति से नहीं अपितु धार्मिक विचारों के परस्पर आदान-प्रदान से सुलझाये जा सकते हैं। हृदय परिवर्तन बल से नहीं, प्रेम से सरल और साध्य है। लेकिन धर्म शून्य राजनीति की कुटिल चालों को प्रेम से नहीं, शक्ति के माध्यम से ही तोड़ा जा सकता है।
महामति प्राणनाथ औरंगजेब को उसी प्रेम, सहिष्णुता से समझाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने के उपरान्त कोई प्रयास सफल होते न देखे तो उन्होंने मेवाड़, राजस्थान और मध्यप्रदेश के प्रमुख राजा-महाराजाओं, छत्रपतियों, मुखियों, देश के धर्माचार्यों और धर्मरक्षक वीरों का धर्मरक्षण हेतु आव्हान किया तथा औरंगजेब का धर्म-भेदनीति के विरूद्ध संगठित् होकर आगे आने का आव्हान किया वरन् दिल्ली दरबार को गम्भीर स्वर में ललकारा भी।
इस आशय का पता उनकी इन पंक्तियों से लग जाता है:-
‘‘राजा ने मलोरे राजे रायतणों, धर्म जाता रे, कोई दोड़ो।
जगों ने जोधा रे उठ खड़े रहो, नींद निगोड़ी रे छोड़ो।।’’
इस संदर्भ में महाामति प्राणनाथ जी विक्रम संवत् 1736 से 1739 तक अनूपशहर, आमेर (जयपुर), सांगानेर, पौहड़, उदयपुर, रामपुर, बुढ़ानपुर, औरंगाबाद, आकोट, कामस्तानी, एलिचपुर, देवगढ़, रामनगर, गढ़ा, बिलहरी अगरिया आदि राज्यों की पदयात्रा करते हुये श्री सुन्दर साथ संगठन के माध्यम से जन आवाहन करते हुये भ्रमण किया। इस संगठन के माध्यम से औरंगजेब के आक्रमणों और धर्म विरोधी कृत्यों का विरोध किया। एक बड़ा सैन्यदल अजमेर में अपना केन्द्र बनाये रहा।
औरंगजेब द्वारा अनेक सूबेदार उदयपुर, मन्दसौर और रामनगर तक भेजे जाते रहे, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। अगरिया में दीवान देव करण बुन्देला ने उन्हें बुन्देलखण्ड शाईल, उपाधि से विभूषित किया। प्रख्यात युद्धवीर छत्रसाल के निवेदन पर वे अपने समस्त सहयोगियों वीरयुवकों के साथ व श्री सुन्दर साथ संघ सहित (विक्रम संवत् 1740 ई. सन् 1683) को पन्ना पहुंचे।
छत्र साल महामति के दर्शन के लिये आतुर थे लेकिन मऊ के समीप पड़वारी में इलाहाबाद का सूबेदार शेर अफगान अपनी बड़ी सेना लिये डेरा डाले हुये था, समया नुकूल न होने कारण वे वहां महामति के स्वागत के लिये नहीं पहुंच सके। लेकिन महामति परिस्थितियों को भाँपकर स्वयं वहाँ पधारे जहाँ वीर छत्रसाल से वहीं मुलाकात की और माया, ब्रह्म, जीव और जगत आदि धर्म संबंधी उपदेश दिये। छत्रसाल ने भी देश के लिये सर्वस्व अर्पण कर देने का वचन दिया।
पन्ना में वीर छत्रसाल के अनुरोध पर महामति ने धर्म प्रचार हेतु बुन्देलखण्ड क्षेत्र कर भ्रमण किया। इसके बाद महामति चित्रकूट भी पधारे। पन्ना वापिस लौटने पर छत्रसाल का भव्य तिलक समारोह आयोजित किया गया और उन्हें महाराजा पद से विभूषित भी किया। इसके बाद महामति प्राणनाथ जी महाराज ने पन्ना में अपना स्थायी धर्म केन्द्र ‘‘श्री पद्मावतीपुरी’’ धाम के नाम से स्थापित किया। यहीं उन्होंने अपने महान ग्रंथों के लेखन का कार्य किया। उनकी सबसे अन्तिम वाणी ‘‘मारफत सागर’’ (वि.सं. 1748) में यहीं पूर्ण हुयी। यद्यपि महामति जी भाषा सिंधी थी पितृ भाषा गुजराती। इसके बावजूद उन्होंने सर्वसुलभ भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी में ही अपने संबोधन दिये।
उन्होंने स्वयं उसके महत्व पर प्रकाश डालते हुये लिखा हैः-