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विकास का शोकगीत कहां गाएं, किसे सुनाएं!

हमारे गांव के सीवान में महुआ के दो बड़े दरख्त हुआ करते थे, उम्र कोई दो सौ वर्ष। उन्हीं के बगल से गांव जाने का रास्ता गुजरता था। पहले ढर्रा था, फिर मुरमवाली सड़क से पक्की डामर रोड़ होते हुए तरक्की ऐसी हुई कि अब शानदार टू लेन काँक्रीट रोड़ जो मेरे गांव से गुजरते हुए आगे जाकर इलाहाबाद और बनारस जाने वाली नेशनल हाइवेज में मिल जाती हैं। पर इस तरक्की में दो सौ सालों से आँधी, तूफान, अकाल, सुकाल झेलते तने रहने वाले ये पुरखे से वृक्ष शहीद कर दिए गए।

हम लोग जब जबलपुर से रीवा अपने गाँव जाया करते थे तो अम्मा की सख्त हिदायत रहती थी कि जब वहाँ पहुंचें तो रुक कर उन दोनों महुआ के पेड़ों को प्रणाम् कर लिया करें, उनमें ग्राम देवता निवास करते हैं जो हमारे गांव की रक्षा करते हैं। शादी-ब्याह या कि संतान होने के बाद गांव में प्रवेश के पहले इनकी पूजा होती थी,कम से कम नरियल, अगरबत्ती तो चढ़ती ही थी।

मैं बचपन से ही इन पेंडों को बुजुर्ग भाव से देखता था। और सचमुच हमेशा यह अहसास रहता कि इनकी कृपा हम पर है। इन पेंडों का भी बुजुर्गों की भाँति हमसे आत्मिक लगाव सा था। इन हरे भरे पेंडों के फडफड़ाते पत्ते गाँव का कुशल-मंगल प्रवेश करते ही बता देते थे। वैसे भी ये गाँव आने वालों के स्वागत के लिए सजे बंदनवार और बाहरी लोगों के लिए शाइनबोर्ड की थे।

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सरकार की अधोसंरचना विकास के आड़े आ गये और बिना गवाह, बिना सुनवाई के कत्ल कर दिए गए। यही हश्र गांव घुसते तालाब के किनारे खड़े उस पीपल का भी हुआ। अम्मा के अनुसार इसमें दानव मामा रहा करते थे जो छोटी बड़ी निशाचर शक्तियों के प्रशासक माने जाते थे।

हम लोग बचपन में जब गांव मेंं रहते तो दिन में एक बार पीपल के दानव मामा को प्रणाम् करके रात भर के लिए निश्चिंत हो लेते थे कि भूत-प्रेत अब हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। कोई दो-ढाई सौ साल का इतिहास अपने में जज्ब किए पीपल को वहीं आरे से काटकर मृत्युदंड दे दिया गया। हाँथ-पाँव आरियों से काटकर अलग कर दिये गए।

जब गांव जाता हूँ तो कुल्हाड़ी की खटाक और आरामशीन की खरखराहट अवचेतन मन में गूँजती है। यह भी सवाल गूंजता है कि अम्मा के वो ग्राम देवता और दानव मामा कहां गए होंगे..?

हमारे देश में विकास ऐसा ही रोबोटिक है। न कोई संवेदना, न किसी रिश्ते की परवाह, न दर्द, न करुणा। विकास के आड़े जो भी आएगा, मारा जाएगा। जीडीपी, ग्रैथरेट बढ़ाने के लिए यही शर्त है। इसी शर्त के चलते हरे भरे पुराने दरख्तों का ग्रोथरेट में तबतक कोई योगदान नहीं जबतक कि उन्हें काटकर आरा मिल न भेज दिए जाएं। हरहराती नदियों का बाँधा जाना और गांव के गांव को डुबा देना ग्रोथरेट के लिए अनिवार्य हैं। सीधी खड़ी पहाडियों को जबतक सड़कों में न पसरा दिया जाए तबतक ये निरर्थक हैं। विकास का ये नए जमाने का फलसफा है। यही समूचे देश में चौतरफा चल रहा है। अम्मा के वे महुआदेव जिसमें ग्राम्यदेवता निवास करते और वे दानवमामा वाली पीपल दोनों ही मरकर ग्रोथरेट के आँकडें बनकर अमर हो गये होंगे।

भोपाल के एयरपोर्ट रोड़ के सुंदर हरे भरे दरख्तों को भी मैट्रो कल्चर ने खा लिया। अब एयरपोर्ट को इंटरनेशनल बनाना है तो इन बेचारे वृक्षों को तो आपनी जान देना ही पड़ेगी, जीडीपी और ग्रोथरेट का मामला है भाईसाहब।

बड़ी जीडीपी और भारी ग्रोथरेट वाले यूरोपीय देशों में ऐसे मामलों में सुना है कि कोई पेंड़ सड़क के आड़े आ जाए तो इंजीनियर उसका नक्शा बदल देते हैं क्योंकि वे खुद भी संवेदनशील होते हैं और लोकभय भी रहता है क्योंकि ऐसे मामलों के प्रतिकार के लिए जनता सड़क पर आ जाती है। यदि पेंड़ या कोई प्राकृतिक संरचना हटाना जरूरी ही हुआ तो काटने की बजाय उनकी लिफ्टिंग की जाती है। पुराने दरख्तों और यहां तक कि पहाडियों तक के लिफ्टिं एन्ड प्लांट के दृष्टांन्त हैं। हमारे यहां तो सड़क की योजना बाद में बनती है कुल्हाड़ी पहले चलनी शुरू हो जाती है। कसाई की तरह ताके बैठे रहते हैं टाल, पल्प, पेपर, प्लाई इंडस्ट्री वाले।

हमारे रीवा जिले से पाँच नेशनल हाइवेज गुजरते हैं। छठे का भी नोटीफिकेशन हो गया है। सभी का विस्तारीकरण हो रहा है। चारों तरफ दरख्तों का कत्लेआम हो रहा है। दो सौ से तीन सौ साल तक के आम, इमली, जामुन, पीपल, नीम के पेड़ लाखों की संख्या में काट डाले गए। जो बचे हैं काट डाले जाएंगे। इन बे जुबानों की कौन सुने। ये वोट नहीं हैं।

आजकल बड़े शहरों में भागवत पुराण कथाओं के सुनने का चलन हैं। करोड़ों के असामी मर्सडीजधारी गुरूबाबा अपने पूँजीपति और सत्ताश्रयी जजमानों को मत्स्यपुराण का दृष्टान्त सुनाते हैं- कि दस तालाब बराबर एक पुत्र, दस पुत्रों बराबर एक वृक्ष। पीपल साक्षात विष्णुअवतार, नीम में माता शीतला, शमी में शनिदेव, बरगद में ब्रह्मा, आम सर्वदेवों का निवास, पाकरि- जंबु- रसाल- तमाला के नीचे प्रभु श्रीराम की पर्णकुटी। ये सबके सब कट गए/काटे जा रहे। जजमान जी गिनिए कितने पुत्रों की हत्याएं हो गई इस ग्रोथरेट की होड़ में। कंठी माला लेकर धरम जपने और संस्कृति बचाने वालो कहाँ हो।

रीवा से देश का सबसे पुराना राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है। कहते हैं इसे शेरशाह सूरी ने उत्तर दक्षिण को जोड़ने के लिए बनवाया था। पहले इसे ही ग्रांड ट्रंक रोड़ कहा जाता था। आजादी के बाद इसे एनएच7 का ऩबर दिया गया। अब कोई नया नंबर अलाट हुआ है। यह एनएच कश्मीर को कन्याकुमारी से जोड़ता है।

अँग्रजों के जमाने में तैयार किए गए रीवा स्टट गजेटियर म़ें म़े एक ब्रिटिश ट्रेवलर लेकी की डायरी का जिक्र है। रीवा के राजा अजीत सिंह के समय लेकी ने इस राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे घने फलदार वृक्षों व सुनिश्चित दूरियों पर कुओं व बावड़ियों का खूबसूरती से वर्णन किया है।

बनारस व इलाहाबाद से आने वाले साहित्यकारों ने सड़क के किनारे के आम्रकुंजों का अपनी रचनाओं म़ें वर्णन किया है। विद्यानिवास मिश्र, महादेवी वर्मा, धरमवीर भारती और न जाने कितने साहित्यकारों के निबंधों और कथानकों में इनका वर्णन मिल जाएगा। ये सबके सब काट डाले गए हैं।

 

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कोई डेढ सो दो सौ वर्ष पुराने वृक्ष लाखों की संख्या में। इन्हें बचाया जा सकता था। पर वही इसके बारे में सोचता जिसके आँखों का पानी बचा हो। विकास की हवश ने आखों का पानी सोखकर संवेदनाओं को मरुभूमि में बदल दिया है कौन याचना सुने, कौन इंसाफ करे। ये हमारे पुरखे कत्ल होने तक मौन रहे आए। अपने हिस्से आया शोकगीत वो लिख देता हूँ जब बेचैनी रहने नहीं देती,क्रोध नपुंसक हो जाता है और करुणा बर्फ बन कर आँख के दहाने में जम जाती है।

 लेखक:- जयराम शुक्ल