विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति- 25

(भारतीय धर्मानुयायी कंबोडिया -1)
इतिहासकार केंटलई और ली. टाओ युआन के कथनानुसार ईसा की तीसरी शताब्दी में कंबोडिया में हिंदू राज स्थापित हो चुका था। वहां उपलब्ध लेखों से विदित होता है कि प्राचीन काल में वहां एक असभ्य जाति रहती थी। इसकी रानी का नाम ल्यू ए अथवा ‘सोमा’ था। भारत से पहुंचे कौडींय नामक ब्राह्मण से उसने विवाह कर लिया। यह इंद्रप्रस्थ के राजा ‘अमृत्यवेश’ का पुत्र था। सोमा और कौडींय से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वही आगे चलकर कंबोडिया का शासक बना। उसने छोटे-छोटे कई राज्य स्थापित किए इंद्र-वर्मन, श्रेस्ठ वर्मन, जयवर्मन, रुद्र वर्मन, गुण वर्मन, भव वर्मन आदि शासक इसी वंश के थे। पीछे इसी वंश में वीर बर्मन, ईशान बर्मन, महेंद्र वर्मन, शुंभ वर्म, यशो वर्मन, राजेंद्र वर्मा ,उदयादित्य वर्मन आदि शासकों की लंबी परंपरा चल पड़ी। इन लोगों ने कोई 6 राज्य बनाएं, जिनके नाम कपिलवस्तु, श्रावस्ती आदि रखें। भारतीयों की जत्थे इसके बाद लगातार पहुंचते रहे और पांचवी, छठवीं शताब्दी में हिंदू धर्म के साथ बौद्ध धर्म भी जड़ें जमाने लगा। गुण वर्मन द्वारा अंकित कराए शिलालेखों से स्पष्ट है कि उसके शासनकाल में शिव, विष्णु एवं वुद्द की उपासना प्रचलित थी। वेद पाठी विद्वान ब्राह्मण वहां मौजूद थे। हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के मानने वाले प्रेम पूर्वक साथ रहते थे। चीनी इतिहास ग्रंथ – “तांग वंश का इतिहास” और “सुईवंश का इतिहास” यह बताते हैं कि छठी और सातवीं शताब्दी में कौडींय वंशी शासकों द्वारा कंबोडिया में सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था चलाई जा रही थी और चीनी व्यापारी भी वहां घुस-पैठ करने में दत्तचित्त थे।
कंबोडिया प्राचीन काल में ‘कंबुज’ कहा जाता था और अब उसे ‘अनाम’ कहते हैं। अब उसके निवासी किसी भी बंश या धर्म के हो, प्राचीन काल में निश्चित रूप से भारतीय धर्मावलंबी और भारतवंशी थे। यहां की ‘मेकांग’ नदी का नामकरण भी ‘कोन्ग’ शब्दों को मिलाकर किया गया है। जिसका अर्थ वहां की भाषा में ‘गंगा माता’ होता है। सचमुच वहां उस सरिता को मात्र जल प्रवाह नहीं माना जाता वरन् भारतीयों द्वारा गंगा के प्रति जो श्रद्धा-भाव है, उसी के अनुसार ‘मेंकांग’ को भी उस देश में सम्मानास्पद – श्रद्धास्पद माना जाता है।
यों प्राचीनकाल में इस देश का भारत और चीन से स्थल संपर्क भी था। पर जल यात्रा अधिक सरल और निरापद होने से प्राय: उसी का प्रयोग किया जाता था। भारतीय सभ्यता वहां समुद्र मार्ग से ही पहुंची।
कंबोडिया में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार ‘कंबू’ अर्थात ‘स्वयंभू मनु’ नामक महापुरुष ने उस देश को बसाया उसकी संताने कंबू कहलाए। भारत में जिस प्रकार मनु की संतान का मानव कहलाना प्रचलित है। उसी प्रकार उस देश के निवासी भी अपने को ‘कंबू’ अर्थात ‘स्वयंभू मनु’ की संतान मानते हैं। अन्य कंबोज गाथाओं के अनुसार भारत से कम्बु ऋषि वहां पहुंचे। उस देश की राजकुमारी मीरा से उन्होंने विवाह किया और उन्हीं के नाम पर उस देश का नाम ‘कंबोज’ पड़ा।
वर्तमान राजधानी ‘नाम पेंद्र’ का इतिहास यह बताया जाता है कि पेन नामक एक महिला को नदी में बुद्ध भगवान की मूर्ति मिली। वह उसने निकाली और एक झोपड़ी में रखकर उन्हीं के समक्ष साधना करने लगी लोग उसके दर्शन करने पहुंचने लगे और धीरे-धीरे वहां एक बस्ती बस गई, जिसका नाम पड़ा ‘पनीम पेन’ पनीम का अर्थ होता है पहाड़ी। तपस्विनी पेन वाली पहाड़ी को ध्यान में रखते हुए उस बस्ती का जो नाम पड़ा वही पीछे बदलकर ‘नीम पेनया नाम पेंह’ हो गया। इसके समीपवर्ती क्षेत्र में कितने ही भव्य बौद्ध अवशेष उपलब्ध हैं। उस तपस्विनी के उपरांत वह क्षेत्र बौद्ध- धर्म का क्षेत्र बनता चला गया। चौदहवी सदी का यह आरंभ 18 वीं सदी तक फलता-फूलता ही चला गया।
अब वहां तिब्बती वर्मी और ‘मो रुपेट’ नस्ल के लोगों का बाहुल्य है, पर पुरातत्व बेताओं को खुदाई में जो अवशेष मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि उनमें “प्रोटो इंडोनेशियन नस्ल” के लोग ही थे। मध्य और पूर्व भारत में मुंड और खस जातियां इसी नस्ल की हैं। श्री बागची ने अपनी पुस्तक “पूर्व आर्य और पूर्व द्रविड़” ग्रंथ के इतिहासकार लेवी, प्रीजुलस्की की तथा जूब्लैक के लेखों का संकलन किया है। इन लेखों से यही सिद्ध होता है कि कंबोडिया के प्राचीन निवासी भारतीय नस्ल के थे ।पुरातत्ववेता ‘क्रोम’ तो इससे एक कदम और भी आगे बढ़ गए हैं उन्होंने तो कहा है कि – “जावा निवासी पहले भारत में बसे, वहां उन्होंने अपनी जड़ें जमाई और पीछे मजबूत होकर कंबोडिया आदि पहुंचे।”
कंबोडिया की प्राचीन भाषा भारत में उन दिनों प्रचलित ‘मुंड’ और ‘खस’ लोगों की भाषा से बहुत कुछ मिलती है। वौद्ध जातक कथाओं में इस देश का उल्लेख ‘कर्पूर द्वीप’ – नारीकेल द्वीप के नाम से किया गया है। यहां नारियल, कपूर और मसालों का अधिक उत्पादन है। ‘टालेमी’ के “हिंद-चीन तथा इंडोनेशिया के हिंदू राष्ट्र” ग्रंथ में उस समय भारतीयों द्वारा बनाए गए ऐसे विशाल जल पोतो का वर्णन है जिन पर सवार 700 व्यक्ति आसानी से लंबी समुद्री यात्राएं करते थे। इन्ही पर सवार होकर धर्म प्रचारक, व्यापारी तथा राजवंशी लोग वहां पहुंचे थे। इस क्षेत्र में प्राचीन प्रचलन जिस प्रकार की ‘वर्ण व्यवस्था’ तथा ‘धर्म व्यवस्था’ का था, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि वहां पहले धर्म प्रचारकों का ही पदार्पण हुआ होगा। इन लोगों ने न केवल कंबोडिया में वरन हिंद-चीन, इंडोनेशिया, ब्रह्मा मलाया आदि में भी भारतीय संस्कृति की पताका फेहराई थी। ब्रह्मा से लेकर हिंद चीन तक के सारे क्षेत्र में हिंदू सभ्यता का प्रचलन था। फ्रांसीसी शोधकर्ता ‘पीलियो’ ने लिखा है कि – “इस क्षेत्र में उपलब्ध प्राचीन शिलालेखों की लिपि हिंदू सभ्यता की देन है।” इतिहासकार पेरिपीयस ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए थे। उनने अपने समय में भारतीय जहाजों से मलाया, हिंदी- चीन आदि के लिए जाने का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि अब से लगभग 2000 वर्ष पूर्व भारतीयों द्वारा अपनी सभ्यता का प्रवेश उस क्षेत्र में हो चुका था।