पूज्य सन्त शिरोमणि गुरू रविदास जी महाराज सनातन धर्म के महान स्तम्भ हैं। भारतीय समाज में सामाजिक समरसता एवं आध्यात्मिक ज्योति, जो उनके द्वारा प्रज्जवलित की गयी थी, उसको व्यापक प्रकाश का आज भी प्रभाव बरकरार है। उस युग के महान सन्तों सूर-तुलसी, जायसी, मीरा आदि के समकक्ष उनकी गणना होती है। इन सन्तों का आर्विभाव भारत भूमि में व्याप्त निराशा-हताशा की ऐसी कालावधि में हुआ था,
जब इस्लामी सम्प्रदाय द्वारा हिन्दुओं पर भारी अत्याचार किये जा रहे थे। यह समय सम्वत् 1375 से 1700 लगभग 300 वर्षों का था। उस समय तलवार की नौंक पर हिन्दुओं को बलात् मतांतरित कर मुसलमान बनाया जा रहा था।
सन् 1398 में तैमूर ने आक्रमण कर दिल्ली के आसपास ही लगभग पाँच हजार से अधिक हिन्दुओं का कत्लेआम किया था। इस महान सन्त का जीवनकाल 15वीं से 16वीं शताब्दी के बीच का माना जाता है।
रविदास जी का जन्म सन् 1433 में माघ पूर्णिमा के पावन पर्व पर काशी के निकट ग्राम मांडर में हुआ था। आपने अपने वंश की विशेषतायें बतलाते हुये कहा है कि ‘‘सुनि रविदास कही अस बानी, बोले झूठ नीच अभिमानी। हमरों एक सत्य से नाता, चँवर वंश राहू मम त्राता हैं हम काशीपुरी निवासा, हरि के भक्त नाम रविदासा। पिप्पल गोत विदित जग माही, यामे नैक अन्यथा नाहीं।’’
वे महान मानवतावादी, समरसता मूलक, ईश्वरत्व के सजग अनुयायी थे। उनका प्रभाव, उनकी प्रशस्ति, उनकी भक्ति तन्मयता से अभिभूत होकर महान कृष्णभक्त मीरा ने अपना गुरू-मार्गदर्शक मान लिया था। वे उनकी भक्ति से अत्यधिक प्रभावित हो गयी थीं। उनकी महत्ता और महानता इस बात से भी जानी जा सकती है कि सिखों के सर्वमान्य ‘‘गुरूग्रंथ साहिब’’ में भी उनकी प्रभावी वाणियों का उल्लेख मिलता है।
भक्त शिरोमणि सन्त रविदास जी हमारी विरासत, हमारे वांगमय और आर्य मनीषा की विलक्षण प्रतिमूर्ति माने जाते हैं। उनके उपदेशों ने अद्भुत और चमत्कारिक ढंग से तात्कालिक समाज में नव चेतना का संचार किया। उन्होंने आडम्बरों से दूर रहते हुये आन्तरिक भक्ति को जो मार्ग दिखाया वह अपूर्व था।
उन्होंने मुगलों द्वारा बरती जा रही बर्बरता से भयभीत समाज में आत्मविश्वास और निर्भीकता पैदा करने के लिये समाज से जुड़े अन्य सन्तों के साथ जन जागरण का अद्भुत कार्य किया। यह आने वाली पीढ़ी के लिये संदेश था कि जागरूक बनो। आज भी उनकी प्रेरणा और भक्ति का प्रमुख सूत्र है कि समरस समाज की रचना द्वारा देश को मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है। उनकी वाणी युगों-युगों तक मानव जाति को पे्ररणा देती रहेंगी।
सन्त रविदास जी द्वारा सामाजिक क्षेत्र में की गयी एक बड़ी क्रांति थी। लम्बे समय से चली आ रही अस्पृश्यता के अभिशाप को समाप्त करने के उन्होंने तत्कालीन समाज को बड़ा नैतिक सम्बल प्रदान किया था। उसका विद्युतगति से प्रभाव भी परिलक्षित हुआ। परिणाम स्वरूप वंचित समझे जाने वाले जनसामान्य को अपना खोया स्थान प्राप्त हो सका।
सन्त रविदास जी ने जाति-वर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर सभी के लिये भक्ति के द्वार खोल दिये। उन्होंने सभी को भक्ति का अधिकारी मान लिया। उन्होंने एक ओर तो हिन्दुत्व के प्रचार की पताका लहराई और प्रचार किया, दूसरी ओर उन्होंने सरनी नाम इस्लाम के अनुयायी को शिखा धारण करवा कर एक नया मार्ग भी प्रशस्त किया।
यह तो भारत भूमि में जन्में सन्त-महात्माओं की विशेषता ही रही है कि उन्होंने समय पर परस्पर विरोधी वातावरण के चलते न केवल भक्ति की सरिता प्रवाहित करने का सत्कार्य किया वरन् समाज में एद्भावना, एकता और सौहर्द्र की त्रिवेणी में अवगाहन कराते हुये नवीन चेतना का प्रसारण किया तथा समाज के उत्थान के लिये लोगों को प्रेरित किया।
उनकी मधुर वाणी से गाये जानी वाली भजनावलि और वाणियों के माध्यम से ऊँच-नीच के भेदभाव को अपने सद्व्यवहार को आचरण में उतार लेने के आग्रह के साथ, उसे सारहीन एवं निरर्थक निरूपित किया। समाज में उनके उपदेशों का व्यापक प्रभाव हुआ। उस समय यह भेदभाव अने चरम पर था। उनका यह भी आग्रह था कि ईश्वर की प्राप्ति सदाचार, परहित की भावना से ही संभव है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘जन्म-जाति को छोड़, करनी जान प्रधान। इहो वेद को धर्म है, कहे रविदास बखान।’’
उन्होंने अपनी रचनाओं और भक्ति के प्रभाव से एक ऐसा आन्दोलन खड़ा किया, जिसके मूल में सामाजिक एकता, समानता, समरसता और मानवीय मूल्यों के सूत्र गुँथे हुये थे।
वर्तमान परिस्थितियों में भी संत शिरोमणि रविदास महाराज के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान की दृष्टि से सामयिक हैं। उनके द्वारा रचित, पद, भजन, दोहे, चैपाईयाँ, वाणियाँ और उपदेश आज भी उतने ही प्रभावी हैं। उन्होंने अपने आचरण, व्यवहार, भक्ति की तन्मयता से यह प्रमाणित कर दिया कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता वरन्, अपने कर्मों, विचारों की श्रेष्ठता से, समाज हित की परोपकारी भावना से किये गये कृत्यों से ही महान बन सकता है।