सामाजिक समरसता के संदर्भ में : श्री गुरुजी

– वीरेंद्र सिंह परिहार
कांग्रेस पार्टी के बड़बोले नेता दिग्विजय सिंह का कहना है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवलकर ने ‹जिन्हें इस देश में करोड़ों करोड़ लोग आदर और श्रद्धा के साथ श्री गुरु के नाम से संबोधित करते हैं,› अपनी किताब में लिखा है, “ मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने को तैयार हूं, लेकिन जो दलितों पिछड़ों और मुसलमानों को अधिकार देती हो ऐसी आजादी मुझे नहीं चाहिए. “दिग्विजय ने यह भी कहा –“ श्री गोलवलकर यह भी लिखा है, जब भी सत्ता हाथ लगे, देश की धन संपत्ति, राज्यो की जमीन और जंगल 2 -3 विश्वसनीय व्यक्तियों को सौंप दो, और 95% जनता को भिखारी बना दो, उसके बाद सात जन्मो तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी.
दिग्विजय श्री गुरुजी पर ऐसे आरोप लगाते हुए यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि श्री गुरुजी ने अपनी किस किताब में किस पेज नंबर में ऐसी बातें लिखी हैं. वास्तविकता में दिग्विजय के उक्त आरोप पूरी तरह निराधार और झूठे हैं.श्री गुरु जी का स्पष्ट रूप से यह मानना था कि आत्मविस्मृति और उसके कारण सभी प्रकार की स्वार्थ परायणता और इसके कारण विभिन्न भेदो के कारण समाज का विघटन होने के चलते हिंदू समाज का जो पतन हुआ, उसी के कारण राष्ट्र का पतन हुआ है. जबकि किसी दौर में देश में राज् सत्ता ना होते हुए भी केवल धर्म के आधार पर संपूर्ण समाज में समरसता ही नहीं, एकात्मता भी व्याप्त थी.” बहुत से लोग श्री गुरु जी पर यह आरोप लगाते थे और आज भी लगाते हैं कि श्री गुरुजी वर्णव्यवस्था के पक्षधर थे और उसे देश में पुनः वापस लाना चाहते थे. इस संबंध में श्री गुरु जी का स्पष्ट रूप से कहना था –“ एक ही चैतन्य का विविधता पूर्ण आविष्कार ही आत्मा का आधार है, क्योंकि आत्मा सम है और यही समता का आधार है. जैसे एक वृक्ष की शाखाएं पत्तियां फूल और फल सभी एक दूसरे से भिन्न है, लेकिन यह देखने वाली विविधता उस वृक्ष की भांति भारत कीअभिव्यक्ति है. ऐसा ही हमारे सामाजिक जीवन के विविधताओं के संबंध में भी है. शरीर के विभिन्न अवयव है, जिनके कार्य अलग-अलग हैं लेकिन शरीर का कोई भी अंग शरीर के विरोध में कार्य नहीं करता, परस्पर पूरक तथा अनुकूल व्यवहार करता है. “ इन्हीं संदर्भ में श्री गुरु जी का कहना था यही सामंजस्य अथवा एकात्म का भाव समाज में भी परस्पर एक दूसरे के प्रति होना चाहिए. ऐसे समाज को एक जीवमान संकल्पना मानने के चलते वह कहते हैं कि हम सब समाज के अंग हैं और एक ही चैतन्य हम सब में विद्यमान हैं. इस चैतन्य भाव से हम सब समान होने के कारण परस्पर पूरक है, एक दूसरे के साथ एकरस हैं. गुरुजी की दृष्टि में समाज ही भगवान है, उसका कोई अंश अछूत या हेय नहीं, एक-एक अंग पवित्र है. पुरानी जाति व्यवस्था की तुलना वह आधुनिक आर्थिक गिल्डो से करते थे, उनका स्पष्ट कहना था कि ऐसी व्यवस्था ने एक समय समाज का उपकार किया, अब अपकार कर रही है तो उसे तोड़कर नई व्यवस्था बनाएंगे.
हमारे इतने श्रेष्ठ तत्वज्ञान के बावजूद हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता और इस समुदाय के साथ बद से बदतर व्यवहार को श्री गुरु जी विडंबना ही मानते थे. उनका कहना कि सबसे बुरी बात है कि अस्पृश्यता को धर्म से जोड़ दिया गया. अस्पृश्यता को वह छुद्र भाव और मानसिक विकृति का प्रतीक मानते थे. उनका मानना था कि यदि इस मामले में धर्माचार्य आगे आएं तो इसका समाधान आसानी से निकल सकता है. इसीलिए विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से उन्होंने सभी संतो एवं धर्माचार्यो को इकट्ठा किया और वर्ष 1966 के प्रयाग के विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से ‘न हिंदू पतितो भवेत् ‘ यानी कोई हिंदू पतित नहीं, ऐसी उद्घोषणा धर्माचार्यो के माध्यम से कराई. इससे आगे बढ़ते हुए 1969 में उडुपी में विश्व हिंदू परिषद के सम्मेलन में धर्माचार्यो एवं संतो के माध्यम से अस्पृश्यता को धर्म विरुद्ध बताते हुए ‘हिंदवा सोदरा सर्वे ‘ यानी सभी हिंदू एक हैं, ऐसा उद्घोष कराया. उनका कहना था कि रामायण एवं महाभारत के रचयिता उच्च जातियों के नहीं थे. रामायण के रचयिता बाल्मीकि तो शूद्र जाति के थे, फिर भी उन्हें महर्षि के रूप में स्वीकार किया गया, जो पूरे हिंदू समाज के लिए आदरणीय हैं. श्री गुरु जी के लिए अस्पृश्यता का विरोध मात्र भाषणऔर उपदेश में ही नहीं, उसे उन्होंने अपने जीवन में भी एका कार किया था. एक बार जब वह बिहार में वंचितों की बस्ती में गए. वहां से चाय पान कर जब लौटने लगे तो अन्य लोगों को उल्टियां होने लगी, पर श्री गुरु जी सामान्य ही बने रहे. श्री गुरु जी ने कहा कि आप लोगों का ध्यान बस्ती की गंदगी पर ही बना रहा, इसलिए आप लोगों ने वहां की गंदगी पी डाली और मैंने उनका स्नेह और प्यार पी डाला. उसी से मुझे अमृततुल्य पोषण प्राप्त होता है. वनवासी बांधवों का विचार करते हुए उन्होंने बताया की अंग्रेजों ने उन्हें आदिवासी की संज्ञा दी ताकि यह प्रचारित किया जा सके कि देश से बाहर से आर्यों ने आकर उन पर आक्रमण कर उन्हें जंगलों में धकेल दिया. उनका हिंदू धर्म से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन श्री गुरुजी उन्हें विराट हिंदू समाज का अंग बताते हुए उनके साथ समरस होने पर जोर दिया, कि हमें उनके बीच जाकर उनके जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए जुट जाना चाहिए और उनको धर्म का ज्ञान कराकर, शिक्षित करा कर, उनके लिए मूलभूत सुविधाएं जुटा कर और उनका सांस्कृतिक स्तर ऊंचा उठाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करना चाहिए. श्री गुरु जी के इन्हीं प्रयासों के चलते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई, जिसमें वनवासियों को शिक्षित करने के लिए विद्यालय, छात्रावास, प्रशिक्षण केंद्र, चिकित्सा सुविधा, खेलकूद एवं सांस्कृतिक उन्नयन के लिए अनेक प्रतिष्ठान सफलतापूर्वक देशभर में चल रहे हैं. इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है, एक बार एक साधु पुरुष ने श्री गुरु जी से कहा कि असम में जो वनवासी रहते हैं वह तो गौमांस खाते हैं, उनको हम हिंदू कैसे कह सकते हैं? श्री गुरुजी ने इस पर कहा – क्या वे लोग शौक से गौ मांस खाते हैं, उनको दूसरा कुछ खाने को मिलता नहीं, क्या हम लोगों ने उनकी भोजन व्यवस्था के लिए कुछ किया? हम उनको कोई शिक्षा दीक्षा एवं संस्कार देने नहीं गए. इसलिए यह उनका नहीं, हमारा दोष है. श्री गुरुजी समन्वय के सुमेरु थे. सिख, जैन, बौद्ध, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन के संबंध में उनका मत था के समय-समय पर अपने समाज में आई हुई कमियों को दूर करने के लिए ऐसे अनेक पंथों का उदय हुआ. भारत में रहने वाले पारसी बंधुओं के प्रति उन्हें राष्ट्र की आशा आकांक्षा के अनुरूप होने के चलते वह उन्हें अधिक प्रमाणिक हिंदू मानते थे. मुसलमानों के संबंध में उनका कहना था यदि आक्रमणकारियों के साथ अपनी विरासत ना जोड़ें तो वह भी व्यापक अर्थों में हिंदू ही हैं. इस तरह से ही अपने विचार और कर्म से श्री गुरुजी समरसता और एकात्मता के साक्षात अवतरण थे. राष्ट्र जीवन को उनकी यही सर्वश्रेष्ठ देन है. पर दिग्विजय सिंह जैसे लोग जो हिंदू अर्थात देश के राष्ट्रीय समाज को जातियों में बांट कर रखना चाहते थे ताकि उनका सत्ता का खेल चलता रहे, वह श्री गुरु जी और दूसरे राष्ट्र जीवन के लिए समर्पित व्यक्तित्व के चलते असफल हो रहा है इसीलिए उन्हें संघ और श्रीगुरु जी मेँ मात्र कमियां ही दिखाई देती हैं, ऐसी स्थिति में उन्हें अपने दृष्टि दोष के समुचित चिकित्सा कराने की जरूरत है.