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“स्वाधीनता संग्राम और मध्यप्रदेश के जनजातीय नायक”

भारत देश के जनजातीय समाज का देश की कला, संस्कृति के संरक्षण और देश के स्वतंत्रता आंदोलन व राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आजादी की लड़ाई में कई जनजाति नायक- नायिकाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया परन्तु उन्हें इतिहास में वो स्थान नही मिला जिसके वो हकदार है। इन जनजातीय क्रांतिकारियों में प्रमुख है- बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, टंटया भील,भीमा नायक,शंकर शाह,रघुनाथ शाह, सीताराम कंवर, मंशु ओझा, वीरांगना रानी दुर्गावती, टूरिया शहीद मुड्डे बाई, सुरेंद्र साय, रघुनाथ सिंह मण्डलोई। हमारे देश में जनजाति समाज के योगदान के बारे में देश के लोगों को जानकारी ही नहीं है। समाज को बतलाया ही नहीं गया या पता है तो बहुत ही सीमित रूप में कि स्वतंत्रता के महायज्ञ में इन जनजातीय नायको ने अपने प्राणों का बलिदान दिया और देश की अस्मिता पर आंच नही आने दी। इन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया और अंग्रेजी हुकूमत के आगे समर्पण नही किया। स्वतंत्रता के पश्चात लंबे समय तक देश में जिन सरकारों की हुकूमत थी उन्होंने हमेशा परिवारवाद को पोषित किया और स्वार्थ भरी राजनीति की और आदिवासी समाज को सदैव उपेक्षित रखा।

विगत वर्ष देश के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पंद्रह नवंबर को जनजाति नायक बिरसा मुंडा के जन्म दिवस के अवसर पर जनजाति गौरव दिवस मनाने की घोषणा की। तब से विभिन्न राष्ट्रीय मंचो पर जनजाति समाज के योगदान के विषय में जो बातें हुई, चर्चा हुई उससे लोगो को विश्वास ही नहीं हुआ कि देश में इस तरह के जनजातीय नायक भी हुए और उन्होंने हमारी संस्कृति, सभ्यता और स्वाधीनता की रक्षा में इतना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

जनजाति गौरव दिवस मनाने का मूल उद्देश्य ही इन नायकों की वीर गाथाओं को देश, समाज के सामने लाना है और युवा पीढ़ी को इनके कार्यों से, इनके बलिदान से परिचित कराना है। इसी उद्देश्य के साथ इस वर्ष भी जनजाति गौरव दिवस मनाया जा रहा है और हम इन नायकों को याद करते हुए इनके संघर्ष को, इनके बलिदान को सम्मान और पहचान देने का कार्य कर रहे हैं। जो इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य है।

स्वाधीनता संग्राम अट्ठारह सौ सत्तावन के पूर्व ही वनवासी जनजातीय नायकों ने अंग्रेजी हुकूमत का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था। जनजातीय लोगों ने ब्रिटिश सत्ता और अन्य शोषकों का पुरजोर विरोध किया। अनेक शताब्दियों तक इन्हें वनों से अलग कर नियंत्रित करने के प्रयास किए गए लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति, सभ्यता व विरासत को सदैव कायम रखा। इन जनजाति लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलाए। अपनी भूमि पर अतिक्रमण, जमीन से बेदखली, पारंपरिक सामाजिक व कानूनी अधिकार व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए इन्होंने बगावत की। देश के विभिन्न भागों में विभिन्न जनजातियों का रोष, प्रतिरोध भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग था। इतिहास गवाह है कि इन्होंने कभी भी लालच या स्वार्थ से वशीभूत होकर अपने देश की अस्मिता के साथ विश्वासघात नहीं किया। इन्होंने अपनी भूमि,अपनी प्रकृति, अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हथियार उठाए और भारत की संस्कृति और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।

बिरसा मुंडा जिनके जन्मदिवस पर जनजाति गौरव दिवस मनाने की घोषणा पिछले वर्ष माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने की थी जनजातीय समाज मे भगवान सा स्थान रखते है। बिरसा मुंडा ने 25 वर्ष से भी कम उम्र में देश के लिए अपना बलिदान दे दिया। ईसाइयों द्वारा संचालित एक स्कूल में पढ़ने के दौरान उन्हें अंग्रेजों की जनजाति समूह के धर्मांतरण की साजिश का पता चला और इसके पश्चात उन्होंने अपने समुदाय को एकजुट किया। समुदाय को एकजुट कर ये अंग्रेजो के अत्याचारों, उनकी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में कूद पड़े। उन्हें धरती बाबा की उपाधि लोगों द्वारा दी गई। आज भी लोग आदिवासी लोग उन्हें भगवान बिरसा के रूप में जानते हैं, मानते हैं।

मध्य्प्रदेश के प्रमुख जनजातीय नायक जिन्होंने स्वाधीनता के यज्ञ में अपने प्राणों की बाजी लगा दी उनमे प्रमुख है-

भीमा नायक- निमाड़ के बड़वानी के पंच मोहली गांव में रहने वाले भीमा नायक ने अंग्रेजो के खिलाफ भीलो की क्रांति का नेतृत्व सन 1840 से 1864 तक किया। उन्होंने 1857 के आंदोलन में अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। उनकी मां सुरसी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ इस मुक्ति मोर्चा में एक क्रांतिकारी टोली का नेतृत्व किया। अंत में अंग्रेजों की यातनाओं के कारण सूरसी ने जेल में ही प्राणो का बलिदान दे दिया। अंग्रेज सरकार द्वारा भीमा नायक के खिलाफ दोष सिद्ध हो जाने पर उन्हें पोर्ट ब्लेयर व निकोबार में रखा और वही पोर्ट ब्लेयर में उनकी मृत्यु हुई।

टंट्या भील- टंट्या भील का जन्म मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में 1842 में हुआ। इन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम में भील जनजाति का नेतृत्व किया। उनकी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें इंडियन रॉबिनहुड का नाम दिया। टंट्या भील अत्यंत वीर और साहसी थे। उनके साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गोरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। महज सोलह साल की उम्र में ही वे क्रांतिकारी हो गए। जहां भी लोग उन्हें याद करते थे वे वहां पहुंच जाते थे। उन्होंने लोगों को ना केवल अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त कराया बल्कि कमजोर व शोषित लोगों को सेठ साहूकारों के चंगुल से भी मुक्ति दिलाई। उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई और आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें अलौकिक शक्तियां प्राप्त थी इन्हीं के सहारे वह एक ही समय में आने को सभाओं में भाग ले पाते थे अंत में अपने ही लोगों के विश्वासघात के कारण वे अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

शंकर शाह रघुनाथ शाह- जबलपुर के राजा शंकर शाह व उनके पुत्र रघुनाथ शाह का स्वतंत्रता संघर्ष में बहुत योगदान है। यह गोंड राजवंश के प्रतापी राजा थे। शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने स्वाधीनता संग्राम में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया। इनकी राष्ट्रभक्ति पर लिखी भावपूर्ण कविता से आक्रोशित होकर राजा शंकर शाह, रघुनाथ शाह को अंग्रेजों ने तोप से उड़ा दिया।
सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मण्डलोई( भिलाला)- सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई जनजातीय नायक थे। इन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में निमाड़ क्षेत्र से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लिया और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। सीताराम कवर और रघुनाथ सिंह ने भील- भिलाला के 3000 क्रांतिकारियों का एक संगठन बनाकर अन्य लोगों को भी क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

ख्वाजा नायक- निमाड़ क्षेत्र के बड़वानी के निवासी ख्वाजा नायक ने अंग्रेजी राज की सत्ता को नकारते हुए अंग्रेजों की नौकरी का परित्याग किया और बड़वानी क्षेत्र में आकर स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। इन्होंने भीलो का नेतृत्व किया और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालीन विराम के बाद भी अपनी लड़ाई जारी रखी। लगातार अंग्रेजों से स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए फांसी के फंदे को हंसते-हंसते गले लगा लिया।

प्रो. मनीषा शर्मा
9827060364