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“हिंदी व्याकरण के रचयिता जबलपुर के कामता प्रसाद गुरु थे”

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हिंदी भारत माता के माथे की बिंदी है। यह कहावत उन हिंदी प्रेमियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है जो हिंदी का सम्मान करते हैं। जिस तरह माथे की बिंदी किसी व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है उसी तरह हिंदी भी भारत माता की शोभा बढ़ाती है। व्याकरण के बिना कोई भी भाषा अधूरी ही रहती है और इसलिए हिंदी भाषा की व्याकरण तैयार करने का श्रेय जबलपुर के कामता प्रसाद गुरु को जाता है। यद्यपि उनका जन्म सागर में हुआ परंतु उनका संपूर्ण जीवन जबलपुर में ही बीता। हिंदी के महान व्याकरणाचार्य कामता प्रसाद गुरु द्वारा लिखी गई हिंदी व्याकरण को विद्वानों ने भी मान्यता दी। गुरुजी का जन्म सागर के परकोटा मोहल्ले में 24 दिसंबर 1875 को पंडित गंगाप्रसाद गुरु के यहां हुआ था। कोई तीन सौ वर्ष पूर्व पंडित देवताराम पांडेय कानपुर जिले के पुरवा नामक स्थान से आकर सागर जिले में गढ़पहरा ग्राम में बस गए थे। कंपिला के पांडेय उनका आस्पद था, किंतु तत्कालीन दांगी राजाओं की रानियों के दीक्षा- गुरु होने के कारण उनकी उपाधि गुरु हो गई। तब से वही कुलोपाधि के रूप में प्रचलित हो गई इन्हीं पं. देवताराम पांडेय की पांचवीं पीढ़ी में पंडित गंगाप्रसाद गुरु थे।

जबलपुर को कर्मस्थली बना कर हिंदी काव्य जगत में ‘पद्य पुष्पावली के माध्यम से प्रविष्ट हुए।’ बेटी की विदा गुरुजी की अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना है। इसमें मनोविज्ञान के धरातल पर मातृ-हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अभिव्यंजना चित्रित हुई है। रागात्मकता से ओत-प्रोत यह रचना काव्य के उच्चतम स्वरूप से मंडित है।’ भस्मासुर वध और  विनय पचासा आपकी ब्रजभाषा में लिखी गई काव्य रचनाएं हैं। दमयंती विलाप रचना को पाठकों ने सर्वाधिक पसंद किया।

हिंदी की खड़ी बोली के गद्य-पद्य के विकास और संवर्धन का कार्य द्विवेदी- युग में संपन्न् हुआ। साहित्याकाश पर ध्रुव तारे की भांति पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का उदय एक ऐतिहासिक महत्व का प्रसंग है। उन्होंने जिस दूरदृष्टि और अध्यवसाय से भाषा सुधार और गद्य-पद्य के स्तरोन्न्यन का अभियान ”सरस्वती” के माध्यम से चलाया उसका ही यह सुफल है कि वर्तमान रूप में हिंदी भाषा भारत की राष्ट्रभाषा के गौरवमय पद पर आसीन होने की स्थितियों को परिपुष्ट कर सकी। द्विवेदीजी के साथ ही तत्कालीन साहित्याकाश पर उदित तारक-मंडल में मध्यप्रदेश के जिन रचनाधर्मियों ने साहित्य के विविध पक्षों को सबल और परिपुष्ट करने में सक्रिय योगदान दिया है। उनमें पंडित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पंडित लोचन प्रसाद पांडेय और पंडित कामताप्रसाद गुरु आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों व्यक्तियों ने पृथक-पृथक रूप में साहित्य की विविध विधाओं का आश्रय ग्रहण कर साहित्य की संरचना तो की ही साथ ही युगीन अपेक्षा के अनुकूल भाषा के मानकीकरण पर विशेष रूप से ध्यान दिया। इनमें पंडित कामताप्रसाद गुरु का वैशिष्ठय इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने काव्य, निबंध, नाटक, उपन्यास तथा अनुवाद के सृजन कार्य के साथ ही हिंदी भाषा के स्तरीय व्याकरण की रचना कर भाषाशास्त्री के रूप में स्थायी कीर्ति अर्जित की।

सात साल में बनी हिंदी की व्याकरण
जबलपुर के ही पं. विनायकराव कृत व्याख्या विधि और पंक विश्वेश्वर शर्मा दत्त कृत भाषा तत्व प्रकाश भी हैं, किंतु एक सर्वांगपूर्ण व्याकरण ग्रंथ की अपेक्षा थी ही इसलिए पंडित माधवराव सप्रे के सुझाव पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने ”हिंदी व्याकरण” की रचना हेतु एक स्वर्ण पदक की घोषणा की तथा सन 1913 ई. में यह कार्य गुरुजी को सौंपा गया। सात वर्षों के सतत परिश्रम से गुरुजी ने हिंदी व्याकरण की रचना का कार्य पूर्ण किया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की व्याकरण संशोधन समिति में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथदास रत्नाकर, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामचंद्र शुक्ल, पं. रामनारायण मिश्र, पं. लज्जाशंकर झा और पं. कामता प्रसाद गुरु थे। उक्त समिति ने 14 अक्टूबर 1920 ई. को सर्वसम्मति से उक्त कृति को स्वीकार करते हुए गुरुजी के इस अप्रतिम रचनाकर्म को सफल बनाया। इस ग्रंथ की रचना के काल में उन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, बंगला, उड़िया आदि भाषाएं सीख कर उनके व्याकरणों का भी अध्ययन किया और तत्संबंध में समय-समय पर अपने समकालीन विद्वानों से भी पत्राचार कर अभीष्ट विषय पर शंका समाधान करते रहे।

नार्मल स्कूल में थे शिक्षक:
गुरुजी की प्रारंभिक शिक्षा सागर में ही हुई। वहीं के हाईस्कूल से एंट्रेंस की परीक्षा सन 1892 उत्तीर्ण की। माता-पिता की एक मात्र संतान होने के कारण उच्च शिक्षा के लिए बाहर नहीं भेजे जा सके, अत: शिक्षा समाप्त कर बंदोबस्त विभाग में कुछ समय काम करने के उपरांत सागर हाई स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए। कुछ समय बाद रायपुर स्थानांतरण हुआ फिर वहां से नार्मल स्कूल में चले गए। कुछ समय कालाहांडी रियासत में उप शिक्षा निरीक्षक के रूप में कार्य किया। वहां से लौटने पर जबलपुर में नार्मल स्कूल में आ गए। जबलपुर में गुरुजी पहले गढ़ाफाटक मोहल्ले में (वर्तमान में शंकर घी भंडार वाले तिराहे पर रहते थे)। सन 1926 ई. के लगभग दीक्षितपुरा में निजी मकान लेकर स्थायी रूप से बस गए थे। सन 1928 ई. में 34 वर्षीय शासकीय सेवा से अवकाश ग्रहण किया और साहित्य-चिंतन और मनन में अंतिम समय तक लगे रहे। 16 नवंबर 1947 ई. को उनका देहावसान हुआ।

प्रख्यात विद्वानों ने दी मान्यता – आचार्य कामता प्रसाद गुरु ने 1913 में ही हिंदी व्याकरण की पुस्तक लिखी थी, जिसे प्रख्यात हिंदी विद्वानों की समिति ने सर्व सम्मति से 1920 में मान्यता प्रदान की। इनकी व्याकरण को मान्यता प्रदान करने के लिए 14 अक्टूबर 1920 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्यों द्वारा एक कमेटी बनाई गई थी। इनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि मोहल्ले के पास स्थित तिराहा इनके नाम से मशहूर हो गया था, जो आज भी गुरु तिराहा नाम से जाना जाता है। गुरुजी ने हिंदी के लिए जो कार्य किया उसने जबलपुर का गौरव बढ़ाया है।


डॉ आनंद सिंह राणा

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