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उद्घोष राम-भाव का

व्याकरण के अनुसार किसी जाति, द्रव्य, गुण, भाव, व्यक्ति, स्थान और क्रिया आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं। अब स्थान-नाम की इस कसौटी पर अयोध्या को रखिए। अयोध्या! यह केवल संज्ञा नहीं है। केवल शब्द नहीं है। अयोध्या इस राष्ट्र का श्वास, इसका प्राण है।

जिन्हें इस देश से, इसकी एकता से भय लगता था उन्होंने अ-युध्य अयोध्या को लड़ाई का मैदान, लोगों के मन बांटने वाला मुद्दा बना दिया। जो बाहर से आए उनके लिए इस देश के लोगों को काटना, जनमानस को बांटना यह रणनीतिक खेल या कहिए सत्ता को स्थायित्व देने वाला सीमेंट था। अन्यथा इस देश के समाज का मन तो सदा से राम में रमता रहा! जहां मुस्लिम जनसंख्या शून्य थी वहां, इस राष्ट्र को संज्ञाशून्य करने के लिए बाबरी की कील ठोकी गई। समाज तिलमिला उठा।

इतिहासकार कनिंघम ने लखनऊ गजेटियर में लिखा, ‘‘1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही बाबर का सिपहसालार मीरबाकी मंदिर को तोपों के गोलों से गिराने में सफल हो सका।’’ शासक बदलते हैं, राजनीति अलग-अलग रुख लेती है, किंतु सत्य यह है कि राष्ट्र राजनीति की धुरी पर नहीं घूमता। राष्ट्र चेतना का अश्वमेधी तुरंग तत्कालीन राजनीति की सीमाएं बताते हुए दौड़ता है। ‘कोउ नृप होय’ की तर्ज पर…. अपने उद्देश्य पर दृढ़, बाधा-बदलावों से बेपरवाह। राज बदलते गए परन्तु इस समाज ने बीते 500 बरस से सौगन्ध उठा रखी थी-‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम!’

श्रीराम जन्मभूमि पर फिर से मंदिर बनाने के लिए बाबर के समय करीब आधा दर्जन युद्ध हुए। हुमायूं के समय में करीब दर्जन भर, अकबर के समय लगभग दो दर्जन और अतिक्रूर औरंगजेब के वक्त करीब तीन दर्जन लड़ाइयां इस देश के समाज ने शासन के विरुद्ध इस जन्मभूमि को वापस उसका मान दिलाने के लिए लड़ीं। स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू-मुस्लिम समाज की एकजुटता ने एकबारगी ब्रिटिश राज की चूलें हिला दी थीं तो इसके मूल में भी राम नाम था, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

तब मुस्लिम नेता मौलाना अमीर अली ने मुसलमानों को झकझोरते हुए कहा था, ‘‘बिरादराने वतन, मुल्क की आजादी को कायम रखने, बेगमों के जेवरात बचाने और हमारी जान और माल को बचाने में हमारे हिन्दू भाइयों ने अंग्रेजों से लड़कर जिस कदर बहादुरी दिखाई है, उसे हम भूल नहीं सकते। इसलिए फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है कि हिन्दुओं के खुदा रामचंद्र जी की पैदाइशी जगह पर जो बाबरी ‘मस्जिद’ बनी है, वह हम हिन्दुओं को बखुशी सुपुर्द कर दें, क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम नाइत्तफाकी की सबसे बड़ी जड़ यही है, और ऐसा करके हम हिन्दुओं के दिल पर फतह पा जाएंगे।’’

यानी, राम वह सेतु हैं जो इस समाज के मानस को जोड़ सकते हैं। यह बात अगर अमीर अली ने समझी तो अंग्रेज भी इसे भांपने में नहीं चूके। ‘बांटो और राज करो’ का अगला हथौड़ा इसी एकता पर चला। जन्मभूमि विवाद को समाप्त करने के लिए आवाज उठाने वाले मौलाना अमीर अली तथा हनुमान गढ़ी के महंत बाबा रामचरण दास को अंग्रेजों ने 18 मार्च, 1858 को अयोध्या में हजारों हिन्दुओं और मुसलमानों के सामने कुबेर टीले पर फांसी दे दी। इस घटनाक्रम को कलमबद्ध करने वाले इतिहासकार मार्टिन ने लिखा, ‘‘इसके बाद फैजाबाद के बलवाइयों की कमर टूट गई और तमाम फैजाबाद जिले में हमारा रौब गालिब हो गया।’’

जो विवाद तब अपने मुनाफे के लिए भारत को रौंदने आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुलझने नहीं दिया, उसे अंग्रेजी लीक पर चलने वाली राजनीति ने स्वतंत्रता के बाद भी उलझाए रखा। बांटने वाले राज करते रहे और इसकी आड़ में भारत को बांटने, टुकड़े-टुकड़े करने का सपना देखने वाली ताकतें भी शक्ति पाती रहीं। अब आस्था पर चलाए गए अपमान के अंकुश को समाज ने धैर्यपूर्वक, लोकतांत्रिक व्यवस्था-व्यवहार के दायरे में हटा दिया है। ऐसे में कुछ लोग समाज और इसमें एकता का भाव जगाती संस्थाओं को लेकर आशंकाएं खड़ी करने की कोशिश कर सकते हैं।

अब जब मंदिर का शिलान्यास हो रहा है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इस राष्ट्र की संकल्पना और हिंदुत्व को लेकर प्रश्न और विमर्श का नया दौर शुरू होगा। पूछा जाएगा कि राम मंदिर निर्माण क्या संघ के हिंदुत्व ‘एजेंडे’ के एक चक्र को पूरा करता है या फिर यहां से हिंदुत्व का नया दौर शुरू होता है? हिंदुत्व को कोसने वालों ने पहले ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिंदू’ जैसी किताब लिखी और आगे बढ़े, परंतु इस समाज ने उनकी परवाह नहीं की। फिर ‘व्हाई आई एम ए हिंदू’ जैसी किताब के माध्यम से हिंदुत्व के भीतर दो तरह की विचारधाराओं और भीतरी फांक की पटकथा लिखने की कोशिश की गई। इसे हिंदुत्व 2.0 कहा गया।

हिंदुत्व को राजनीति का औजार मानने वालों को यह समझना होगा कि इस देश का समाज अब राजनीतिक टोटकों को भली-भांति समझने लगा है। हिंदुत्व इस देश का सांस्कृतिक स्वभाव है। इसे किसी एजेंडे के खांचे में सोचना या निरूपित करना संकीर्णता है। इसलिए राम मंदिर शिलान्यास को किसी एजेंडे का चक्र पूरा होने की बजाय इतिहास में दर्ज हुआ ‘मील का पत्थर’ कहना ज्यादा ठीक है।

यह सवाल भी उछलेगा कि राम मंदिर निर्माण से आगे अब संघ के सामने का रास्ता क्या है? या फिर संघ हिंदुत्व के कथित ‘एजेंडे’ को कैसे आगे बढ़ाएगा? यह प्रश्न निराधार है। संघ को जानने वाले ऐसा प्रश्न नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि इस देश का समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किन्हीं दो अलग-अलग राहों के राही नहीं हैं। संघ का रास्ता वही है जो इस समाज की राह है। श्रीराम मंदिर के लिए एक-दो बरस नहीं, 500 वर्ष से भारत का समाज आंदोलन कर रहा था। संघ की स्थापना 1925 में हुई है, जबकि यह प्रश्न सदियों से देश के मानस को मथ रहा है। सन्त समाज इस आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और संघ इस समाज के साथ दृढ़तापूर्वक खड़ा रहा। संघ और समाज अलग-अलग हैं, जो ऐसा मानते हैं उन्हें समाज की इच्छाओं-आस्थाओं की अभिव्यक्ति संघ का ‘एजेंडा’ लग सकती है।

समाज विरोधी राजनीति की मंशाओं को धार देता एक और मुद्दा आने वाले दिनों में गरमाया जा सकता है कि हिंदू आस्था के प्रतीक स्थानों की स्थापना के साथ ही देश में कट्टरता बढ़ेगी। यह समझना चाहिए कि ऐसी सब आशंकाएं पूर्णरूप से गलत हैं और गलत मंशाओं से ही गढ़ी गई हैं। दरअसल, हिंदुत्व में कट्टरता का कोई स्थान है ही नहीं। मनुष्य की तो बात छोड़िए, यह तो जड़ चेतन सबकी बात करने वाला, सबके बीच संतुलन का आग्रह करने वाला विचार है। सृष्टि में सबके भले के आग्रह-आह्वान को आप कट्टरता नहीं कह सकते। अहिल्या या भील में, वानर और चील (जटायु) में, जामवन्त या नल-नील में अंतर न करने वाला उदार, सत्यरक्षक प्रतीक जिस समाज की ‘मर्यादा’, पथ प्रदर्शक हो, वह समाज भला कट्टर कैसे हो सकता है।

राम जन्मभूमि मंदिर के लिए रखी जाने वाली ईंट केवल ईंट नहीं है, इसमें अन्याय के प्रतिकार, गलत के तिरस्कार और सही के पुरस्कार का राष्ट्र बोध छिपा है। मयार्दा में रहते हुए गलत को ठीक करने की राह इस समाज को उसके रामजी ने ही तो दिखाई है….!