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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा: हिंदू नववर्ष….

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा: हिंदू नववर्ष (भारतीय कालगणना आधुनिक विश्व में आश्चर्य)
वर्तमान समय में ऐसा देखने, अनुभव में आ रहा है कि देश के समाज में, पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव, क्षणिकवाद, भौतिकतावाद के परिणाम स्वरूप समाज का एक बड़ा वर्ग इस अज्ञानता के मायाजाल में फंस कर इसका अंधानुकरण कर रहा है।
जो आचरण भारतीयों के लिए उचित, अभीष्ट नहीं है वह सब कर रहा है। बड़ी द्रुतगति से पतन, पराभव, पीड़ा के गर्त में जा रहा है। हमारी दिनचर्या ही दूषित नहीं हुई है, विचार भी अधोगामी होते चले जा रहे हैं। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन के बीच दिनभर की गतिविधियों का मूल्यांकन किया जाए तो पता चलता है कि-

हिन्दू नववर्ष का महत्व जानें (credit: shutterstock/DESIGNFACTS)

हम काले अंग्रेज हो चले हैं, कहीं ना कहीं हम नाम मात्र के हिंदू बचे हैं। हमारे क्रियाकलाप, विचार, अभिरुचियां, वेशभूषा, खान-पान, तौर-तरीके इत्यादि बहुतायत में पाश्चात्य, नास्तिक भौतिकता वादी हो गए हैं। हम आधुनिकता से इतने प्रभावित हैं कि हम भूल गए हैं कि हम ऋषियों, देवताओं, महान आत्माओं की संतान हैं।
हमारे पूर्वज कितने यशस्वी, तपस्वी, ज्ञानी- ध्यानी, विचारक, साधक, चिंतक, ‘जीवन जीने की कला’ के निर्माता थे। जिन्होंने सारे विश्व को ‘कृन्वंतो विश्वमार्यम्’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथाः’ ‘सर्वे भवंतु सुखिनः का संदेश ही नहीं दिया अपितु वैसा आचरण भी किया था। उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से हिंदुत्व, आर्यत्व , भारतीयता टपकती थी।
तभी तो सारे विश्व के लोग भारत वंदन, ज्ञानार्जन करने आते रहे थे। देश-विदेश के बड़े-बड़े राजे-महाराजे भारतवर्ष की गिरीकंदराओं, वनों में घास-फूस की झोपड़ी में रहने वाले तपस्वीयों, ऋषि-मुनियों के एक दर्शन पाने हेतु लाइन लगाए हाथ जोड़कर खड़े रहते थे, की महाराज जी के एक दर्शन हो जाएं तो जीवन धन्य हो जाए आनंद आ जाए।
ऐसा अपना गौरवशाली भारत था। और आज जब बदला हुआ परिवेश देखते हैं तो बड़ा दुख: आत्म पीड़ा होती है। वर्तमान दौर में भारतीय समाज बौद्धिक परावलम्वन से ग्रसित है। जिसे नैतिक पतन अथवा वैचारिक दिवालीयापन भी कहा जा सकता है। कली के प्रवाह में, पारकियों के प्रभाव में यह सब अनिष्ट हुआ है। अब जैसे भारतीय हिंदू नववर्ष की बात करें तो देखने में यह आता है कि-
हम अपने सारे क्रियाकलाप, संस्कार, विवाह मूहुर्त, गृहप्रवेश, धार्मिक कृत्य इत्यादि सभी कुछ भारतीय पंचांग से तय करके, देख करके करते हैं। जन्मदिन, चौघड़िया, दिशाशूल, लग्न, कुंडली, पंचक त्यौहार, गृहण काल सभी कुछ हिंदू पंचांग के मार्गदर्शन में करते हैं किंतु दुर्भाग्य से या अज्ञानता से हम जन्मदिन हिंदू/भारतीय पंचांग का नहीं अंग्रेजी कैलेंडर ‘का 31 दिसंबर की अर्धरात्रि में विभत्स। तरीके से मनाते हैं नशापान करते हैं, झूमते हैं,
फुहड़ता का प्रदर्शन करते हैं ,कितनी बड़ी विडंबना है यह हमारी, जरा गंभीरता से चिंतन करें इस बात पर। हमारे पंचांग मे वर्ष के प्रारंभ में ही बता दिया जाता है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण कब, किस दिन, कितने बजे, कितने मिनट,सेकंड पर पड़ेगा। हमारे पंचांग में तो यह भी बता दिया जाता है कि अब यह वाला ग्रहण योग 868 वर्ष बाद पुनः पड़ेगा इत्यादी।
जबकि यही कार्य नासा NASA करोड़ों डालर खर्च करने के बाद करता है। भारतीय पंचांग से हिंदू सनातन पंचांग से सारी सृष्टि, ब्रह्मांड चल रहा है जबकि अंग्रेजी कैलेंडर से दुनिया के मात्र मुट्ठी भर देश चल रहे हैं। वह भी जब कई बातों में अटकते-भटकते हैं तो भारत व भारतीय पंचांग की शरण में आते हैं। व समाधान पाते हैं। बहुत जगह अंग्रेजों, पश्चिमी जगत ने भारत की नकल, अनुकरण किया है।
भले ही वह अंग्रेजी भाषा में ही क्यों ना हो जैसे हम रविवार कहते हैं तो उन्होंने sun का day = sunday कहा, इसी प्रकार सोमवार moon का day = Monday कहा, saturn यानी शनि तो शनिवार को saturday पुकारा। भारतीय माहों के नाम भी 27 नक्षत्रों के आधार पर पड़े हैं जैसे चित्रा से चैत्र, विशाखा-वैशाख, जेष्ठा-जेठ, आषाढा -आषाढ़, श्रावणी-श्रावण (सावन), भद्रा-भादो, अश्विनी-क्वार, कृतिका-कार्तिक, मृगशिरा-अगहन, पुष्य-पौस, मघा-माघ, फाल्गुनी-फागुन इत्यादि पड़े।
अंग्रेजी कैलेंडर में जो am और pm है वह भी भारतीय पंचांग की ही नकल है किंतु अंग्रेजों/पश्चिमी जगत के लोगों ने इस बात को छुपाए रखा। हमारे भारतीय वांग्मय में सूर्य उगने से ऊपर चढ़ने (उन्नयन) को एवं am अर्थात ‘आरोहणम मार्तंडस्य ‘अर्थात (climbing of the sun) रात्रि के 12:01 से पूर्वान्ह 12:00 बजे तक एवं pm ‘पतनम् मार्तण्डस्य’ (falling of the sun) अर्थात दोपहर 12:01 से रात्रि 12:00 बजे तक कहा है।
जैसे पश्चिमी जगत के विद्वानों ने माना जाना किंतु श्रेय भारत को नहीं दिया है यही उनकी संकुचित मानसिकता है। भारत का हृदय, विचार, अखंड मंडलाकारम है। बंदरों को अपना पूर्वज मानने वालों का कैलेंडर मात्र 2021 वर्षों का ही है। जबकि हमारी वैदिक सनातन हिंदू संस्कृति 1960853 121 वर्ष पुरानी है।
भारतीय हिंदू पंचांग काल गणना की प्रशंसा करते हुए डिस्कवरी चैनल का अंग्रेजी प्रवक्ता कहता है कि – “विश्व में सबसे प्राचीन हिंदू धर्म है जो पूर्णत: वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। जिसके प्रत्येक क्रियाकलाप में वैज्ञानिक तथ्य हैं। यह ‘ब्रह्मांड का शाश्वत नियम’ है । ‘सनातन धर्म’ – ‘The Law of Universe’ है । यजुर्वेद भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहता है कि- “सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा” अर्थात विश्व की प्रथम संस्कृति- भारतीय संस्कृति है।
यह अनादि, साश्ववत, सनातन, आध्यात्मिक, कालजई संस्कृति है। इसी के कारण भारत ‘विश्व का गुरु’ रहा इतिहास के अनेकों काल खंडों में। इसी संस्कृति ने ‘नर को नारायण’, ‘भूसूर’ बनाया था। तभी तो विदेशी विद्वान ‘मार्क ट्वेन’ ने भी इसकी महानता की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहा कि –
“भारत उपासना पंथो की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।”

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भारतीय हिंदू पंचांग का शुभारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/चैत्र नवरात्रि से होता है । इसी दिन से ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण आरंभ किया था। इसी दिन से दुर्गा/नवरात्रि अर्थात साधना काल प्रारंभ होता है। भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था त्रेता युग में। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। भारतीय नव संवत्सर भी इसी दिन से आरंभ होता है।
सिख गुरु अर्जुनदेव का जन्म भी इसी दिन हुआ था। संत झूलेलाल का जन्म दिवस,गुड़ी पड़वा भी इसी दिन होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक महापुरुष डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की थी। वैशाखी पर्व भी इसी दिन मनाया जाता है। अर्थात यह दिवस अत्यंत महत्वपूर्ण व असाधारण है
प्रकृति में नूतनता वृक्षों में नव कोपले आ जाती हैं, फसल पक जाती है, नूतन संवत्सर प्रारंभ की बेला में भगवान सूर्य भूमध्य रेखा पार कर उत्तरायण होते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में प्रकृति सर्वत्र माधुर्य बिखेरने लगती है। भारतीय सनातन संस्कृति का यह नूतन वर्ष जीवन में नया उत्साह, नई चेतना, नया आहलाद जगाता है। किसान नई फसल के स्वागत में जुट जाते हैं।
पेड़-पौधे, नव पल्लव, रंग-बिरंगे फूलों के साथ लहराने लगते हैं। बोराय आम और कटहल नूतन संवत्सर के स्वागत में सुगंध बिखरने लगते हैं कोयल कुकने लगती हैं, चिड़िया चह-चआने लगती है। इस सुहाने मौसम में कृषि क्षेत्र सुंदर स्वर्णिम खेती से लहलहा उठता है, हिंदू नव वर्ष में बड़ी वैज्ञानिकता, ऐतिहासिकता भरी हुई है। यह तथ्य व सत्य पर आधारित है तभी तो संपूर्ण ब्रह्मांड भारतीय पंचांग से चल रहा है।
यहां तो सृष्टि के आरंभ (आदि) से वर्तमान तक की काल की गणना है सृष्टि संवत के रूप में। जबकि ‘बाइबल’ में सृष्टि (दुनिया) की आयु अधिकतम 8000 वर्ष ही बताई गई है जो कि पश्चिम की बाल बुद्धि की परिचायक है। क्योंकि पश्चिम का ज्ञान अपरिपक्व व अधूरा है, दर्शन भोगवाद, भौतिकतावाद, क्षणिकवाद पर आधारित है। वह अपने को शरीर मात्र मानते हैं।
‘आत्मा’ की वहां अभी ठीक तरह से अवधारणा, विश्वास नहीं है वह अपने को बंदर की औलाद मानते हैं, व सृष्टि की उत्पत्ति ‘अमीबा से मानते हैं का कांसेप्ट है। वहां ना आत्मा है, ना परिवार है, ना संस्कार है ना ही आश्रम, वर्ण, पुरुषार्थ है,ना धर्म है, ना ही जीवन का लक्ष्य है।वहां तो ‘Eat drink and be marry’ का कांसेप्ट है। अतः उनकी प्रज्ञा अभी वहां तक नहीं पहुंची जहां की भारतीयों की स्थित है। वहीं भारतीय रामायण का दर्शन कहता है कि-
सृष्टि जीव का विकास नहीं अपितु चैतन्य का विलास है। परमात्मा की कीड़ा है, वही जगत का कारण है
सकल विश्व यह मोर उपाया।
सब पर कीन्ही समानी दाया ।।
वेद कहता है कि-
“काल: सृजति भूतानि, काल: संहरते प्रजा”
अर्थात काल से ही यह सृस्टि उत्पन्न हुई है व वहीं इसे निगल भी जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से श्रीमद्भागवत गीता में विराट रूप दर्शन में यही बात कहते हैं की- मैं ही महाकाल हूं, सृष्टि का आदि अंत में ही हूं। ‘अहम अक्षय कालोष्मी’ महाभारत में सुखदेव मुनि भी यही कहते हैं  “कलयति सर्वाणि भूतानि” जो सबको निकल जाता है उसी महाकाल से यह सृष्टि उत्पन्न व लय होती है।
विषयों का बदलना, रूपांतरण ही काल है काल घटनाओं के माध्यम से अपने को व्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है क्योंकि कॉल तो अमूर्त व अनंत है। यह सृस्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चंद्र मंडल, पृथ्वी मंडल,सूर्य मंडल,परमेष्ठी मंडल,स्वयंभूमंडल। यह मंडल उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।
पश्चिमी जगत के विद्वान ‘सेकंड को ही समय का सबसे छोटा मात्रक (इकाई) मानते हैं जबकि भारतीय पंचांग (कालगणना) में सेकंड के नीचे-परमाणु, अणु, त्रसरेणु, त्रुटि, वेध, लव, निमेष, क्षण, कास्था, लघु इत्यादि मात्रक हैं। भारतीय कालगणना एक ‘परमाणु काल’ अर्थात सेकंड का 37968 वां हिस्सा से प्रारंभ होती है। परमाणु काल, काल का लघुत्तम व कल्प (ब्रह्मा आयु) व्रतत्तम माप हैं।
कालगणना-
2 परमाणु -1 अणु
3 अणु-1 त्रिसरेनु
उतृस्रेणु -1 त्रुटि
100 त्रुटि -1वेध
3 वेध – 1 लव
3 लव-वन निमेष
3 निमेष -1 क्षण
5 क्षण -1 काष्टा
15 कास्टा -1 लघु
15 लघु -1 नाड़ीका
2 नाड़ीका -1 मुहूर्त
30 मुहूर्त -1 दिन रात
7 दिन रात -1 सप्ताह
2 सप्ताह -1 पक्ष
दो पक्ष -1 मास
2 मास -1 ऋतु
3 ऋतु -1 अयन
2 अयन -1 वर्ष
महाभारत के सुखदेव मुनि की गणना से 1 दिन-रात में 3280500000 परमाणु कॉल होता है। तथा 1 दिन रात में 86400 सेकंड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी एक परमाणु काल बराबर 1 सेकंड का 37968 वां हिस्सा। महाभारत के मोक्ष पर्व में अ. 231 में कॉलगर्णा निम्न है।
15  निमेष – 1 कास्टा
30  काष्टा – 1 कला
30  कला – 1 मुहूर्त
30  मुहूर्त – एक दिन रात
यह सामान्य गणना के लिए माप है। ब्रह्मांड की आयु के लिए, ब्रह्मांड में होने वाले परिवर्तनों को मापने के लिए बड़ी इकाइयों की आवश्यकता पड़ेगी। अत: आगे के लिए युग का माप है। कलियुग- 4 32 000 वर्ष
2 कलयुग- एक द्वापरयुग (864000 वर्ष)
3 कलयुग- एक त्रेतायुग (1296000 वर्ष)
4 कलयुग- एक सतयुग (1728000 वर्ष) चार युगों की एक चतुरयुगी – 43 20000 वर्ष 71 चतुरयुगी का एक मन्वंतर-3067 20000 वर्ष
14 मन्वंतर तथा संध्या के 15 सतयुग का एक कल्प यानी 4320 000000 (चार अरब 32 करोड़ वर्ष) एक कल्प यानी ब्रह्मा का 1 दिन उतनी ही बड़ी उनकी रात इस प्रकार 100 वर्ष तक एक ब्रह्मा की आयु और जब एक ब्रह्मा मरता है। तो भगवान विष्णु का एक निमेष (आंख की पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं) होता है, और विष्णु के बाद रुद्र का काल आरंभ होता है। जो स्वयं कॉल रूप है और अनंत है।
इसलिए कहा जाता है कि कॉल अनंत है। भारतीय कालगणना खगोल पिंडों की गति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रतिपल, प्रतिदिन होने वाले उसके परिवर्तनों।उसकी गति के आधार पर याने ठोस वैज्ञानिक सच्चाईयों के आधार पर निर्धारित हुई है। जबकि आज विश्व में प्रचलित ईस्वी सन् की कालगणना में केवल एक बात जानने कि है की-
उसका वर्ष पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय पर आधारित है। वांकी उसमें माह तथा दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई संबंध नहीं है। जबकि भारतीय कालगणना का प्रतिक्षण, प्रतिदिन खगोलीय गति से संबंध है। इसाई जगत में ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना मानकर इस आधार पर वे इतिहास को दो हिस्सों में विभाजित करते हैं,
ऐक बी. सी. तथा दूसरा ऐडी। बी. सी. का अर्थ है बिफोर क्राइस्ट’ और यह ईशा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। तथा जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुई उन्हें ऐडी कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘ऐना डोमिनी’ अर्थात इन द ईयर ऑफ आवर लॉर्ड यह अलग बात है कि जैसा कि जन्म के बाद कुछ सदी तक यह प्रयोग में नहीं आती थी।
पश्चिमी जगत के रोमन कैलेंडर, जूलियन, ग्रेगोरियन कैलेंडर में दिन कम ज्यादा होते रहे। कभी वर्ष 10 माह का हुआ अतः बार-बार अनेक संशोधन किए गए और इन सभी को भारतीय पंचांग की शरण में ही आना पड़ा तभी इनकी समस्या सुल्झी। जुलियस सीजर ने आदेश दिया कि अब वर्ष 445 1/4 दिन का होगा,
उस वर्ष यानी 46 Bc को इतिहास में ‘संभ्रम’ का वर्ष ईयर आफ कन्फ्यूजन’ कहते हैं। पश्चिमी समय की अवधारणा में इस सृष्टि की आयु बाइबल के अनुसार लगभग 8000 वर्ष से अधिक नहीं आंकी गई है। और इसलिए वहां के विद्वानों ने समय के कालखंड को दो भागों Bc अथवाAD में विभाजित करके संपूर्ण विश्व पर थोप दिया।
किंतु सनातन हिंदू धर्म की उत्पत्ति ईषा व मूसा के जन्म के करोड़ों- असंख्यों वर्ष पूर्व से है सनातन धर्म अनादि, अखंड, सारस्वत है। उसका मानना है कि सृष्टि में उत्पत्ति स्थिति व प्रलय का क्रम निरंतर चल रहा है अतः अनेकों बार प्रलय हो चुका है। इस संदर्भ में मत्स्य पुराण, मनुस्मृति व वेद में वर्णन आता है।
भारत में कालगणना का इतिहास
पृथ्वी अपनी धुरी पर 1600 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से घूमती है। इस चक्र को पूरा करने में उसे 24 घंटे का समय लगता है। इसमें 12 घंटे पृथ्वी को जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अहः तथा जो पीछे रहता है उसे ‘रात्र’ कहा गया है। इस प्रकार 12 घंटे पृथ्वी का पूर्वार्ध तथा 12 घंटे उत्तरार्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार एक अहोरात्र में 24 होरा होते हैं
इसी भारतीय होरा को अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा में hour कहा जो होरा का ही ‘अपभ्रंश’ रूप है। सावन दिन को भूदिन कहा गया। सौर दिन- पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 100000 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 1 डिग्री चलन ‘सौर दिन’ कहलाता है। चांद्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या इत्यादि। पृथ्वी के परिक्रमा करते चंद्र का 12 डिग्री (अंश )चलन एक तिथि कहलाता है ।
सूर्य के सृष्टि हुई अतः प्रथम दिन रविवार मानकर फिर क्रम से शेष वार्टी का नाम रखा गया। जिस दिन जिस ग्रह का विशेष प्रभाव पड़ा वैसा उस ग्रह के नाम पर दिन का नामकरण किया गया। पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग 100000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से 96 करोड़ 60 लाख किलोमीटर लंबे पथ पर 365 1/2 दिन में एक चक्कर पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया है।
युगमान– 4,32 000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और सर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को ‘कलियुग’ कहा गया है दो युती को द्वापर,तीन युती को त्रेतायुग तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुरयुगी में सातों ग्रह भोग एवं सर सहित एक ही दिशा में आते है। वर्तमान कलयुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बज कर 27 मिनट तथा 30 सेकंड पर हुआ था।
उस समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे। इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोल वेत्ता। बेली’ का कथन दृष्टय है की- हिंदुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलयुग का आरंभ ईसा के जन्म के 310 2 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2बज कर 27 मिनट 30 सेकंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकंड तक की गई।
इस प्रकार वे आगे भी याने हिंदू कहते हैं। कलयुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पंचांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राह्मणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह सामान परिणाम निकला है।
(Theogony of Hindus,by Bjornstjerna P.32)
मन्वंतरमान- सूर्य मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाशगंगा) के केंद्र का चक्र पूरा होने पर उसे ‘मन्वंतर काल’ कहा गया है। इसका माप 30,67,20000 वर्ष है। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाशगंगा के केंद्र का चक्र पूरा करता है।

भारतीय समय-काल गणना

कल्प– परमेस्ट्री मंडल, स्वयंभू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाशगंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया है। इसका माप 4 अरब 30 करोड़ वर्ष है। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा गया है। जितना बड़ा दिन उतनी बड़ी रात अतः ब्रह्मा का अहोरात्र ‘याने 864 करोड़ वर्ष हुआ।
ब्रह्मा का वर्ष याने 31 खराब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु 31 मील 10 खरब 40 अरब वर्ष है। भारतीय मनीषा की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्मांड विज्ञानी ‘कार्ल सैगन’ ने अपनी पुस्तक Cosmos में कहा की विश्व में हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो इस विश्वास पर समर्पित है कि-
इस ब्रह्मांड में उत्पत्ति और लय। की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर व्रह्त्ततम माप जो सामान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ के ब्रह्मा दिन रात तक की गणना की है। जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लंबी गणना के माप हैं।
संकल्प मंत्र (ऋषियों की अद्भुत खोज)
हमारे देश में किसी भी धार्मिक कृत्य पूजन पाठ में ‘संकल्प मंत्र’ दोहराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी सृष्टि के आदि से वर्तमान तक समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। मैं आज अमुक व्यक्ति, अमुक गोत्र का आमुख स्थान पर, अमुक समय पर अमुक कार्य का संकल्प कर रहा हूं, मन्वंतर कल्प में इत्यादि अर्थात एक-दो मिनट में समय के आदि से वर्तमान काल तक की गणना हो जाती है, सहज स्मरण हो जाता है। कितना बड़ा आश्चर्य है, यह भारती ऋषि प्रज्ञा की उत्कृष्टता का घोतक है।
“ॐ अस्य श्री विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राह्मणा दीतीय परार्धे, श्वेत वराह कल्पे, वैवस्वत मनवन्तरे, अष्टयविंन सते, कलियुगे, जम्मू दीपे, भारतखंडे, अमुक स्थाने, अमुक संवत्तसरें, अमुक अयने, अमुक रितु, अमुक वासरे, समय ,,,अमुक व्यक्ति,,, का नाम पिता,,,, गोत्र,,,, उद्देश्य से कौन सा कार्य कर रहा हूं, यह बोलकर संकल्प करता हूँ।”
काल गणना पर शोध अध्ययन हेतु हिंदुओं की वेधशालाएं (Observatory) उज्जैन, हरिद्वार, जयपुर, प्रयागराज,बनारस नरसापुर। (दक्षिण भारत) व दिल्ली की 7 साल मंजिला (तल) बाली प्रसिद्ध वेधशाला जिसे ‘मिथक’ के रूप में कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर ‘कुतुब मीनार’ नामकरण कर दिया गया था। जिसके द्वारा अंतरिक्ष की खगोलीय घटनाओं पर निरंतर शोध कार्य किया जाता था।
प्रसिद्ध विद्वान श्री धर्मपाल ने- “इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी इन द 18 th सेंचुरी” नामक ग्रंथ लिखा। उसमें प्रख्यात खगोलज्ञ ‘जान प्लेफेयर’ का एक लेख – “Remarks on the Astronomy of the Brahmins” (1790 में प्रकाशित) दिया है। यह लेख सिद्ध करता है कि 6000 से अधिक वर्ष पूर्व से भारत में खगोल का ज्ञान था और यहां की गणना है दुनिया में प्रयुक्त होती थी।
‘स्याम’ के पंचांग का मूल हिंदुस्तान है। धर्मपाल महाशय ने अपने ग्रंथ में तत्कालीन बंगाल की ब्रिटिश सेना के सेनापति जो बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य बने सर राबर्ट बारकर ने 1777 में एक लेख – “Brahmins observatory at Banaras” (बनारस की वेधशाला) पर प्रकाश डाला है। जिसका 1772 में स्वयं बारकर ने निरीक्षण किया था। वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग आता है की-
जब सीता माता की खोज करते हुए श्रीराम गिद्धराज जटायु से मिलते हैं तब जटायु कहते हैं – “प्रभु सीता का हरण ‘विन्ध्य’ नक्षत्र में हुआ है अतः वह जल्दी ही लौटकर आपके पास आएगी एवं हरण कर्ता का समूल विनाश भी होगा।” अतः जटायु भी ज्योतिषाचार्य/खगोलशास्त्री थे। सुग्रीम विश्व के भूगोल के ज्ञाता थे। जामवंत अतिज्ञानी, अनुभवी थे।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल में दो ऋचाएं हैं – (1-7,1-9,1-50-9) इन ऋचाओ के भास्य मे सायणाचार्य प्रकाश के शीघ्रगमन का वर्णन करते हुए एक श्लोक लिखते हैं। जिसमें प्रकाश की गति (चाल) का वर्णन आता है-
योजनानां सहस्रे द्वे द्वेशते द्वे च योजने।
एकेन निमिषाधेन क्रममाण नमोस्तुते ।।
अर्थात- आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है। इस प्रकार प्रकाश की गति (चाल) 1,88,766.67 मील प्रति सेकंड का वर्णन आता है। जो आधुनिक विज्ञान को मान्य प्रकाश गति के यह अत्यधिक निकट है। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो ‘सापेक्षता सिद्धांत (Theory of Relativity) दीया उसमें उन्होंने दिक व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की है।
उन्होंने कहा कि- “विभिन ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न भिन्न है। विभिन्न लोकों में भी समय की गणना भिन्न-भिन्न है।” जैसे ब्रह्मलोक की कुछ क्षण बीतने पर पृथ्वी में कई युग/चतुरयुगी बीत जाती हैं। इसी संदर्भ में महाभारत में राजा रैवतक व पुत्री रेवती का प्रसंग आता है। ‘योगवशिष्ठ’ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय मे पीछे जाना और पूर्व जन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते
वही इस युग के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी-ध्यानी, अध्यात्मवेता, लेखक वेदों के भास्यकर्ता वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य अपनी पत्रिका अखंड ज्योति के एक लेख में लिखते हैं कि- वर्तमान में जो भौतिक विज्ञान की प्रगति विश्व में दिखाई दे रही है, उससे लाखों गुना अधिक प्राचीन काल में भारत में विज्ञान विकसित हो चुका है। काल के प्रवाह में चक्र ऊपर व नीचे आता है एवं नीचे वाला पहिया (आरा) ऊपर जाता है।
“अतः इक्कीसवी सदी में भारत पुनः दुनिया का सिरमौर ‘सरताज’ बनेगा ।”
काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अंतराल नहीं महाकाय पर्वतों की तरह बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। यह कलयुग भी कोई पहली बार नहीं आया है ऐसे हजारों कलयुग इस धरती पर पहले भी बीत चुके हैं। अतः भारत को जाने, भारतीय कालगणना को जाने व अपने भारतीय होने का गौरव अनुभव करें ना की पश्चिमी संस्कृति के अधोगामी प्रवाह में बह कर अपनी दुर्गति कराएं। ‘स्व’ पर गर्व करें। स्वामी विवेकानंद के कथनानुसार- (I am proud to call myself a Hindu) मुझे अपने आप को हिंदू कहलाने में गर्व है।
वरिष्ट लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया