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जो अमृत पान करता है, वह सिंह बन जाता है।

सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में औरंगजेब ने सबसे पहले हिन्दुओं के धार्मिक गुरु कहे जानेवाले ब्राह्मणों को ही अपना शिकार बनाया और उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में कृपाराम के नेतृत्व में काश्मीर, मथुरा, कुरुक्षेत्र, बनारस और हरिद्वार के ब्राह्मण आनन्दपुर पहुँचे और सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी से अपनी दर्द-भरी कहानी सुनाई।

गुरु तेग बहादुर गहरे सोच-विचार में पड़ गए। तभी उनके नौ वर्षीय पुत्र गोविंद राय उनके पास आए और पूछा कि पिता जी आप किस बात पर सोच-विचार कर रहे हैं?  गुरु तेग बहादुर ने ब्राह्मणों की समस्या बताई कि यदि ये मुसलमान न बने तो शीघ्र ही इन्हें अपनी जान गॅवानी पड़ेगी। इसलिए इन्हें बचाने का एक ही तरीका है कि कोई महापुरुष इस जुल्म के विरुद्ध आवाज उठाए और अपने शीश की बलि देने से भी न घबराएँ।

इस पर बालक गोविंद राय ने कहा- ‘‘इस समय आपसे बढ़कर और कौन महापुरुष हो सकता है? यदि आपके बलिदान से इन पण्डितों की रक्षा हो सकती है तो फिर हिचकिचाहट कैसी? आगे गुरु तेग बहादुर ने अपना कैसे बलिदान दिया वह स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है, पर स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य बालक गोविन्दराय का नजरिया भी था। इस तरह से पूरे विश्व साहित्य में गुरु गोविंद सिंह ऐसे बालक हुए हैं, जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने पिता को बलिदान हो जाने के लिए कहा। वे सिखों के अंतिम गुरु थे और उनके बाद गुरु-काल समाप्त हो गया था।

Guru Gobind Singh Jayanti 2019: 12 inspiring and enlightening quotes by the tenth Sikh guru | The Times of India

उनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1666 को बिहार की राजधानी पटना में हुआ था। वे नवमी पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र थे। इनकी माता जी का नाम गूजरी था। बचपन में सभी इन्हें बाला प्रीतम कहते थे। इनके मामा कृपालचंद अक्सर कहते थे- हे गोविंद आपने ही हमारे घर में अवतार लिया है, जिससे इनका नाम गोविंद राय पड़ गया।

बचपन से ही वह खिलौने की वजाय तलवार, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। बचपन से ही इनकी बहुत सी चमत्कारिक कथाएँ फैल गई थी। बचपन में ही इनका एक मानवीय पहलू देखने योग्य है। अपने घर से थोड़ी दूर एक निःसंतान बुढ़िया चरखा काटकर गुजारा करती थी। गोविंद राय चुपके से आते और उसकी सारी छल्लियां व पूनियां बिखेर देते थे। वह शिकायत लेकर माता गूजरी के पास जा पहुंचती थी। माता गूजरी उसे बहुत सारे पैसे देकर वापस भेज देती थी। एकदिन माता गूजरी ने गोविंद राय से पूछा कि वह किसलिए चरखे वाली माई को तंग करता है ? उन्होंने सहजभाव से उत्तर दिया- उस बेचारी की गरीबी दूर करने के लिए। यदि मैं उसे तंग नहीं करूंगा तो उसे आप द्वारा इतने ढेर सारे पैसे कैसे मिलेंगे ?

बाद में गुरु तेग बहादुर ने उन्हें माता गूजरी समेत पटना से आनन्दपुर बुला लिया। जहाँ पर गुरु गोविंद राय जी 11 नवम्बर सन् 1675 को आनन्दपुर साहिब में गुरु-गद्दी पर शोभायमान हुए। गुरु-गद्दी पर बैठते ही गुरु साहिब ने यह अनुभव किया कि जुल्म और अत्याचार का डटकर मुकाबला करने का समय आ गया है। अपने विचारों को साक्षात रूप देने के लिए उन्होंने तीन कामों की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। सर्वप्रथम उन्होंने फारसी, संस्कृत, पंजाबी व ब्रज भाषा की पढ़ाई में निपुणता प्राप्त की। दूसरे उन्होंने फौजी ताकत बढ़ाने के लिए फौज में भर्ती आरंभ कर दी। तीसरे सौनिकों को शिक्षित योद्धाओं व शूरवीरों द्वारा प्रशिक्षण दिलवाना शुरु कर दिया।

सन् 1699 का एक दिन था। वैशाखी का पावन पर्व निकट था। गुरु साहब ने सारे हिन्दुस्तान और अन्य देशों में यह संदेश भेजा की वैशाखी के अवसर पर समस्त सिख -संगत आनन्दपुर साहिब पहुँचे वैशाखी वाले दिन गुरु साहब के आदेश पर सभी सिख- संगत पंडाल में आकर बैठ गई और शबद कीर्तन का कार्यक्रम शुरू हो गया। कुछ देर बाद गुरु साहब छोटे तम्बू में से निकलकर मंच पर आए, उनके हाथ में बिजली जैसी नंगी तलवार चमक रही थी। बोले- ‘‘क्या आप में से कोई श्रद्धालु सिख ऐसा है जो मुझे अपना शीश देने की हिम्मत रखता हो?’’ कुछ ही क्षण बाद लाहौर निवासी दयाराम उठ खडा़ हुआ और हाथ जोड़कर बोला- गुरु साहब! मेरा शीश हाजिर है, स्वीकार कीजिए। गुरु साहब ने उसे बाजू से पकड़ा और तम्बू में ले गए, कुछ ही क्षणों बाद तलवार चलने तथा शीश गिरकर कटने की आवाज आई। दूसरी, तीसरी, चैथी और पाँचवी बार भी शीश मांगने पर क्रमशः सहारनपुर निवासी धर्मचन्द, द्वारका निवासी भाई मोहकमचन्द, बीदर निवासी भाई साहिबचन्द तथा जगन्नाथपुरी निवासी भाई हिम्मतराम ने अपना शीश प्रस्तुत कर दिया। कुछ देर बाद जब गुरु साहब बाहर लौटे तो उनके साथ सुनहरी केसरी लिबास में लिपटे उपरोक्त पाँचों सिख नौजवान थे।

गुरु साहब ने पवित्र जल से अमृत तैयार कराया, उक्त अमृत को उन पाँचों के शरीर पर डाला और उन्हें पिलाया। इसके बाद उनके हाथों से उन्होंने खुद उस अमृत को पिया और शेष संगत को भी छकाया। इस प्रकार लाखों सिखों ने अमृत छका तथा शेर बन गए। अमृत छकने के इस संस्कार को ‘‘खंडे का पहुल’’ कहकर पुकारा जाता है। इस प्रकार एक नए समाज का निर्माण हुआ जिसे ‘‘खालसा’’ कहकर पुकारा गया तथा गुरु साहब को अमृत छकाने वाले पाँच सिखों को पंज-प्यारे कहा गया।

पहुल-संस्कार के बाद गुरु साहब ने कहा- ‘‘जो अमृत पान करता है, वह सिंह बन जाता है।’’ इसलिए आज के बाद सभी सिख अपने नाम के साथ सिंह लगाएंगे। इसके अलावा सभी सिख पाँच ककारों को धारण करेंगे। यह पाँच ककार हैं- ‘‘केश, कड़ा, कंघा, कच्छा तथा कृपाण।’’ गुरु साहब ने खालसा के लिए नई अभिवादन पद्धति भी दी- ‘‘वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दा फतह।’’

एक बार गुरु साहब रिवालसर गए थे। वहां एक सिख ने गुरु साहब को अपने हाथों से बनाई एक दो नली बंदूक भेंट की। गुरु साहब ने कहा कि एक आदमी मेरे सामने खड़ा हो जाए, मैं उस पर यह बन्दूक चलाकर इसका निशाना देखना चाहता हॅू। गुरुजी का इतना कहना था कि सैकड़ों लोग वहां अपनी-अपनी छातियाँ तानकर खड़े हो गए। इसी प्रकार एक बूढ़ी औरत एक बार गुरु साहब के दर्शन करने आई। उसने कहा कि मेरे पति और उसके बाद दोनों बेटे भी सिख-सेना में भर्ती होकर शहीद हो गए। मेरा तीसरा और अंतिम पुत्र बीमार है। मैं चाहती हॅू कि आप उसे अपना आशीर्वाद दें जिससे वह ठीक हो जाए और वह भी अपने फर्ज और धर्म पर कुर्बान हो सके। ये घटनाएँ बताती हैं कि लोग गुरुजी से कितना प्रेम करते थे।

गुरु साहब ने अमृत छकाते समय स्त्री और पुरुष में भेद नहीं रखा। जिस प्रकार अमृत छकने के बाद पुरुष अपने नाम के साथ सिंह लगा लेते थे, उसी प्रकार स्त्रियाँ अपने नाम के साथ कौर लगा लेती थीं। एक बार संगत का एक जत्था माझे गांव से आनन्दपुर की ओर जा रहा था। उस जत्थे में दीप कौर नाम की एक स्त्री भी थी, परन्तु वह किसी कारणवश जत्थे के आगे चली गई, जहां मुसलमान लुटेरों ने उसे घेर लिया। वे उसके कीमती गहनों के साथ-साथ उसका शरीर भी लूट लेना चाहते थे। पर दीप कौर उनसे जरा भी भयभीत नहीं हुई। देखते ही देखते वह रणचंडी बन गई और तलवार निकालकर सभी लुटेरों को मार डाला। पर जत्थे के शेष सदस्यों ने कहा कि तू पर-पुरुषों के स्पर्श से अपवित्र हो गई है, हम तेरे साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते। जब इस बात का पता गुरु साहब को लगा तो उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने कहा- ‘‘उन जालिमों को समाप्त करने के बाद दीप कौर और भी पवित्र हो गई है। हमारी बेटियों को दीप कौर से सबक लेना चाहिए तथा हर जुल्म का डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा लेनी चाहिए।’’ आज जब नारी सुरक्षा और उसका सशक्तिकरण एक अहम मुद्दा है। तब उस संदर्भ में गुरू साहब के ये विचार कितने क्रांतिकारी और सार्थक हैं।

औरंगजेब की सेना ने कई बार आनन्दपुर पर हमला किया पर हार का मुँह देखना पड़ा। तब उन्होंने किले को चारों तरफ से घेर लिया। आनन्दपुर के किले में राशन-पानी समाप्त होने पर भी जब सिखों ने किला खाली नहीं किया तो शाही सेना ने उन तक औरंगजेब का एक पत्र भिजवाया कि- ‘‘मैं कुरान और मुहम्मद साहब की सौगंध खाकर कहता हॅू कि यदि आप किला खाली कर देंगे तो आपको कुछ नहीं किया जाएगा।’’ इस पर विश्वास करके 20 दिसम्बर 1704 को अपने अमूल्य ग्रंथ, कीमती सामान, पंज-प्यारे तथा सिख सैनिकों समेत गुरुजी किले से निकल पड़े।

सिरसा नदी के किनारे पहुँचने पर शाही सेना ने वचन भंगकर उन पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के इस तूफान में उनकी माता गूजरी जी तथा दोनों छोटे पुत्र बिछुड़ गए। गुरु साहब बची-खुची सेना के साथ चमकौर साहिब जाकर एक कच्ची गढ़ी में अपना ठिकाना बनाया। शाही सेना ने यहां भी गढ़ी को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय गुरु साहब के पास चालीस-पचास सैनिक ही थे, जबकि दुश्मनों की संख्या दस लाख से ऊपर थी। फिर भी सिख सेना बहादुरी से लड़ी। इस युद्व में केवल पंज-प्यारे तथा गुरु साहब ही बच पाए। वे यहां से जाकर दीने गांव में रहे। यहीं से उन्होंने औरंगजेब को वह पत्र लिखा जिसे इतिहास में जफरनामा कहा जाता है।

इसमें उन्होंने औरंगजेब को अधार्मिक व्यक्ति कहकर निन्दित किया कि वह इस्लाम और मुहम्मद साहब की शिक्षाओं के विपरीत चलता है। कहते हैं कि उस जफरनामें को पढ़कर औरंगजेब बहुत पछताया और उसका शीघ्र ही निधन हो गया। यह भी उल्लेखनीय है कि चमकौर के युद्ध में उनके दो पुत्र मारे गए तथा दो पुत्र पकड़े गए। जिन्हें सरहिन्द के सूबेदार वजीरखान ने इस्लाम न स्वीकार करने के कारण दीवार में चिनबा दिया। इस पर गुरु साहब ने कहा-

‘‘चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार
इन पुत्रन के शीश पर वार दिए सुत चार।’’

औरंगजेब की मृत्यु के बाद औरंगजेब की गद्दी के लिए मुगलों की परम्परानुसार औरंगजेब के बेटों में युद्ध हुआ। औरंगजेब के बड़े बेटे शाहजादा मुअज्जम (बहादुर शाह) ने गुरुजी को संदेश भेजा- आप सत्य तथा न्याय के समर्थक हैं। मेरे छोटे भाई अजीमशाह (मुहम्मद आजम) ने मेरे साथ अन्याय किया है। मुझे मेरा अधिकार दिलाने के लिए मेरा साथ दीजिए। अब जिस व्यक्ति ने उनके पूज्य पिताजी को शहीद किया, जिसके चलते चार पुत्र शहीद हुए, जिसने उनका सब कुछ छीन लिया। उसी का बेटा उनसे मदद मांग रहा था। गुरुजी ने सब भुलाते हुए यही कहा कि, किसी के साथ भी अन्याय हो उसकी सहायता मैं अवश्य करूंगा।

वीर सिखों ने युद्व में बहादुर शाह के पक्ष में प्रलय मचा दिया। अजीम शाह हार गया और बहादुर शाह दिल्ली का बादशाह बना। यही बहादुर शाह जब मराठों पर आक्रमण के लिए गुरु साहब की मदद चाही तो उन्होंने यही कहा कि तुम मराठों पर आक्रमण कर उनके साथ अन्याय करना चाहते हो। मैं हिन्दुओं के विरुद्ध तुर्कों की सहायता नहीं करूंगा।काश यह चेतना हम भारतीयों में विदेशियों के शुरूआती हमलों के समय होती, तो क्या देश की ऐसी दुर्दशा होती?

Guru Gobind Singh Jayanti: गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर पढ़ें उनके बलिदान की कहानी - guru gobind singh jayanti

आगे पता है कि कैसे नादेड़ में एक पठान धोखे से गुरु साहब पर छूरे से दो बार हमला किया, जिससे 6 नवम्बर सन् 1708 को गुरु गोविन्द सिंह इस नश्वर शरीर को त्यागकर परमात्मा की परम् ज्योति में समा गए। मरने के पूर्व उन्होंने सारे सिख संगठन को अपने निकट बुलाया और कहा- मेरे मरने के साथ ही गुरु-काल समाप्त हो जाएगा। भविष्य में सम्पूर्ण खालसा ही गुरु होगा। ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानना। गुरु साहब एक युवा, योगी, परम संत, वीर सिपाही, उच्च कोटि के कवि, एक क्रान्तिकारी नेता तथा कुशल नेतृत्व करने वाले सेनापति थे।

प्रो॰ इन्द्र भूषण के अनुसार गुरु गोविन्द सिंह की गणना भारत के महानतम् व्यक्तियों में की जानी चाहिए। इतिहासकार खान बहादुर सैय्यद मोहम्मद लतीफ ने लिखा है- गुरु गोविन्द सिंह जी धर्म-उपदेशक के रूप में आचार-श्रृष्टा थे, युद्ध की भूमि में एक विजेता थे, मसनद पर एक राजा थे और खालसा बिरादरी में एक फकीर थे।

गुरु गोविन्द सिंह की प्रेरणा से ही माधौदास जैसे सन्यासी ‘‘बंदा सिंह बहादुर‘‘ बनकर जुल्म का नाश करने पंजाब की तरफ चल पड़े थे। भारत मां के ऐसे महान सपूत के लिये विवेकानन्द ने देशवासियों से कहा था कि यदि आप देश का भला करना चाहते हैं, तो सभी को गुरू गोविन्द सिंह बनना चाहिए।

लेखक:- वीरेन्द्र सिंह परिहार