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नानाजी उत्थान कार्यों की एक बहती धारा…

नानाजी देशमुख “मैं कोई गहरा कुंआ तो नही! किन्तु पानी की चंद बूंदे ज़रूर बन सकता हूँ।” अक्सर माँ मंदाकिनी की गोद में बैठना मुझे भगवान वनवासी राम जी के अस्तित्व को महसूस करवाता हैं। जो उत्थान कार्यों के लिए हमेशा से मेरी प्रेरणा स्त्रोत के रूप में कार्य करता हैं।

उत्थान इतना भी आसान नहीं जो हर हाथ तक काम पहुंचाए और हर खेत तक पानी की बूँदे! किन्तु मैं वो काम ज़रूर बनना चाहूंगा और पानी की वो हर बूँद बनना चाहूँगा जो हर एक खेत तक पहुँचे। शायद मैं रहू-न-रहू लेकिन वो हाथ हमेशा परिलक्षित होकर आगे बढ़ेंगे, और पानी की वो बूँद हर स्वयंसेवक बनने का प्रयास जारी रखेगा।

यही उम्मीद उत्थान कार्यों को आगे बढ़ाएगी। बचपन का वो वक़्त मुझे आज भी याद है, जब ज्ञानप्राप्ति की उत्कृष्ट सोच ने मुझे अपने मार्ग की ओर परिलक्षित किया जो अविस्मरणीय हैं। माँ और पिता जी के इस संसार को छोड़ कर चले जाने के बावजूद भी मेरी इक्षाशक्ति ने मुझे अपने शिक्षा अर्जन के साथ उत्थान के कार्यों की सीढ़ियों से भटकने नही दिया।

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अरसे बाद हर हाथ तक पहुंचने वाला काम और हर खेत तक पहुंचने वाली पानी की हर बूँदे एक मार्ग बनने की ओर अग्रसर थी। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर ज्ञान प्राप्त करने की वो अदभुत शैली शायद जीवन के उत्थान कार्यों का मार्ग बनने की एक नई राह थी।

शायद मैं राजनीति के लिए नही बना था, किन्तु लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी के राष्ट्रवादी विचारों ने मुझे सामाजिक उत्थान कार्यों के लिए प्रेरित किया और और प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में कार्य किया। जो उद्देश्य मात्र नही था। यह विचार मेरे जीवन को राष्ट्र की उन्नति में समर्पण के लिए प्रेरित करता था। धर्मशालाओं में रहकर सेवा कार्य करना थोड़ा जटिल था।

किंतु मेरी इक्षाशक्ति ने मुझे हारने नही दिया। शिक्षा शायद मेरे जीवन के मूल उत्थान कार्यों में से एक थीं। जिसका मुख्य द्वार सरस्वती शिशु मंदिर (गोरखपुर उत्तरप्रदेश) में प्रारंभ हुआ। पैसों के आभाव में उत्थान कार्यों को मूल रूप प्रदान करना आसान नहीं था। जमीनी स्तर पर की गयी मेहनत ने प्रयासों को असफल नही होने दिया।

सत्र 1980 का दौर शायद मेरे जीवन के मूल उद्देश्य में प्रवेश करने की ओर अग्रसर था। वो दौरे मेरे राजनीतिक जीवन से निकलकर सामाजिक जीवन में प्रवेश का दौर था। प्रचार करना मेरे स्वभाव में नही था। इसलिए शायद मैं अपने मार्ग से भटका नही और लक्ष्य की तह तक पहुंचने की ओर था। दूरियां बहुत थी रास्ते अब भी तय करने थे “जो मार्ग में मिलने वाले हर हाथ को काम और हर खेत को पानी “प्रदान करने वाले बन सके।

ईश्वर ने मुझे इस कार्य को पूर्ण आकर देने के लिए माँ मंदाकिनी की गोद (चित्रकूट, मध्यप्रदेश) भगवान श्री राम की तपोभूमि चित्रकूट भेजा। उत्थान कार्यों का ईश्वर का बताया शायद इससे अच्छा कोई मार्ग नही था। सेवा का वो भाव जो माँ मंदाकिनी के तट पर बहती शांत जल की धाराओं की तरह था। जो बिना प्रचार किये अपनी धाराओं के कंपन्न से नए आयामों की ओर अग्रसर थी।

ये एक अविस्मरणीय अद्भुत अलौकिक अकल्पनीय भाव था। जो एकात्म मानववाद की तर्ज़ पर ग्रामीण भारत की तरक्की के नए मार्ग को प्रसस्त कर रहा था जैसे प्रातः काल में सूरज उदय हो रहा हो। जो एक स्वावलंबी भारत का मंत्र गढ़ रहा था। सेवा कार्यों का वो रथ जो उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले के साथ महाराष्ट्र के बीड़ से प्रारंभ होकर माँ मंदाकिनी के तट तक पहुंचने के साथ आत्मनिर्भरता के अलौकिक युग में प्रवेश के लिए अग्रसर था।

स्वावलंबन के इस गुण की अलख भारतवर्ष के साथ सम्पूर्ण संसार में फैले ऐसा स्वभाव जो कभी नष्ठ नही होने वाला था। किसी भी राष्ट्र की तरक्की के लिए उस राष्ट्र का आत्मनिर्भर होना महत्वपूर्ण हैं। भारतवर्ष के लिए यह महत्वपूर्ण पल अब करीब था जो माँ मंदाकिनी की गोद में बैठे 500 से अधिक गाँव को स्वावलम्बन के साथ ही आत्मनिर्भर बनाने का प्रण ले चुका था। जो स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा एवं आय के अर्जन के लिए एक रूपी एकात्म शुभ कार्यक्रम का आरंभ था।

जिसका प्रथम और पूर्ण स्वरुप माँ मंदाकिनी की गोद और चित्रकूट के राजा भगवान मृत्यगजेंद्रनाथ जी की नगरी में परिलक्षित होता प्रतीत हो रहा था। वर्ष 1972 में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना के साथ अधिक तीव्र गति को छू रहा था जो विभिन्न प्रकार से आत्मनिर्भर बनाने के साथ विवाद समाप्त करने वाली नई सोच को गढ़ रहा था जो विकास में मील का पत्थर साबित हुआ जो अपराध मुक्त कराने के साथ एक नए मार्ग को प्रसस्त कर रहा था।

विकास कार्य को बढ़ाने के साथ विवाद समाप्त के द्वार खुलना एक नई ऊर्जा के स्वरूप कार्य कर रहा था। मेरे प्रेरणा स्त्रोतों में कलाम जी का उद्देश्य महत्वपूर्ण था। रोजगार सृजन के साथ नए कार्यों को सीखने का एक नया अनुभव होता है जो हमारी प्रेरणा के रूप में भी कार्य करता हैं। जो जल की शांत धाराओं की तरह शांति से प्रवाहित हो परिलक्षित हो रही थी।

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व्यवसाय जो कभी भी मेरे स्वभाव से परे था शायद इसलिए आज चित्रकूट एक नही की बहती धाराओं के समान आत्मनिर्भरता के भाव को उत्थान कार्य स्वरूप फैला रहा हैं। नदी की बहती धारा की तरह सम्पूर्ण भारतवर्ष आत्मनिर्भर बने एवं सूर्य की उगती किरणों की तरह सम्पूर्ण जग को अपने आत्मनिर्भरता के प्रकाश से प्रकाशमान करे। राजनीति से मेरा वास्ता नही क्योंकि मेरी नज़र में सत्ता एक मोह स्वरूप है जो कभी स्थायी नही होती।

“सत्ता एक मीठी शक्कर के सामन हैं जो घुल कर अपने अंत की ओर बढ़ जाती हैं। “क्षमता से अधिक कार्य करने का प्रण लेना मेरे स्वभाव में नही था जो कार्य को लक्ष्य से दूर करने का कार्य करता हैं। समाज सेवा एवं सत्ता में ज़मीन आसमान का अंतर हैं।”

समाज सेवा एक ऐसा रथ हैं जो अनन्त काल तक चलता रहेगा। इसका कोई अंत नही। समाज सेवा एवं आत्मनिर्भरता का उद्देश्य जो परिवर्तन के विभिन्न मार्गों से होकर अपने लक्ष्य तक पहुंचने वाली थी। सेवा का वो भाव जो निःस्वार्थ हो, आत्मनिर्भरता को वो गुण जो सभी क्षेत्रों में प्रकाशमान होकर फैलता रहे। जो प्रेरणा बन कर सभी को प्रेरित करने का कार्य करेगा। मैं रहू-न-रहू लेकिन उत्थान का ये पहिया अनन्त काल तक चलता रहेगा। जो समाज सेवा के भाव को जाग्रत रखेगा।