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भारतीय सनानत संस्कृति की जन्मदात्री है-प्राचीन अरण्य (वनवासी) संस्कृति

यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि वर्तमान में जिस अरण्य अर्थात वनवासी सभ्यता को असभ्यता की निशानी माना जाता है और जिस वन के कानून को बर्बरता का पर्यायवाची माना जाता है, वही वनों में पली पढ़ी संस्कृति के अद्भुत केंद्र रहे। वनों में बनाए गये कानूनों अर्थात स्मृति ग्रन्थों से भारतीय समाज आज भी प्रेरणा व मूल्य बोध प्राप्त करता रहा है।

पुरातन भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वनों को जीवन के मंगल से भर देने के उद्देश्य से देश के ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म-संस्कृति की प्रवाहिका नाड़ियों को अनवरत स्पन्दित रखने हेतु साधनापूर्ण जीवन जीते हुए समाज के सर्वांगीण विकास की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पुरातन गौरवमयी भारतवर्ष में वनों में भी संस्कृति और सभ्यता का प्रसार कर लिया गया था और प्राचीन काल में हमारे देश भारतवर्ष में अत्यन्त विकसित अरण्य अर्थात वन संस्कृति स्थापित थी।

महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लेखित दण्डकारण्य नामक अरण्य अर्थात वन, कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कृत महाभारत में उल्लेखित खाण्डववन जहाँ पर बाद में इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई, विभिन्न पुरातन ग्रन्थों में उल्लेखित दण्डकारण्य, नैमिषारण्य आदि वन्यखण्डों से पुरातन भारतवर्ष में अरण्य अर्थात वनों की महता का पता चलता है। महाभारत की कथा के अनुसार आज जहाँ दिल्ली का पुराना किला है, अर्थात जो इन्द्रप्रस्थ है, वहाँ कभी खाण्डववन हुआ करता था, जिसे श्रीकृष्ण की मदद से जलाकर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ नाम से एक नया नगर ही बसा दिया था और इसी नगर में वह महल था जहां राजसूर्य यज्ञ देखने के लिए आए दुर्योधन का पाँव फिसला था, जिसे गिरते देख द्रौपदी हंस पड़ी थी।

वनों की इसी श्रृंखला में नैमिषारण्य का भी नाम आता है जहां सूतजी के नेतृत्व में शौनक आदि सहस्त्रों ऋषि-मुनियों ने एक लम्बा ऐतिहासिक संवाद किया था। यह ऐतिहासिक सत्य है कि पुरातन भारतवर्ष में तपोवनों का जाल बिछा हुआ था और ये तपोवन तपस्या करने के स्थान वनों में हुआ करते थे। प्राचीन काल में तपोवन ऋषि – मुनियों का वन में निवास करने और तपस्या करने का स्थान अर्थात आश्रम हुआ करता था।

आश्रम और तपोवन को कुछ उदाहरणों से आसानी से समझा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम ने अपनी भार्या सीता को उसकी गर्भिणी अवस्था में ही त्याग कर दिया था। सीता को वाल्मीकि मुनि के आश्रम यानी तपोवन में ही सहारा मिला था जहां उन्हें लव-कुश नामक दो पुत्र हुए और उन्हें अस्त्र-शस्त्र की उस काल की अत्याधुनिक शिक्षा भी वनों में मिली थी। जिन याज्ञवल्क्य को राजा जनक की ब्रह्मसभा में सोना मढ़ी सींगों वाली हजार गायें प्राप्त हुई थीं, वे महान याज्ञवल्क्य भी अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी सहित आश्रम में ही रहा करते थे और उनकी गायें भी वहीं पर थीं।

श्रीराम वन गमन प्रकरण में श्रीराम को वनवास के समय अत्रि मुनि के तपोवन में जाने का अवसर प्राप्त हुआ था, वे अत्रि मुनि दण्डकारण्य के एक आश्रम में ही निवास किया करते थे जहां उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को सोने के गहनों से लाद दिया था। महाभारत के कथा के अनुसार हस्तिनापुर तत्कालीन प्रतिष्ठान के एक पुरुवंशी सम्राट दुष्यन्त का विश्वामित्र व मेनका की सन्तान शकुन्तला नामक ऋषिकन्या से पहले प्रेम हुआ था और फिर विवाह भी हो गया था, वह विश्वामित्र व मेनका की सन्तान शकुन्तला, कण्व ऋषि के आश्रम में ही निवास करती थी।

श्रीकृष्ण और बलराम ने जिन सांदीपनि मुनि से शिक्षा ग्रहण की थी वे सांदीपनि मुनि अपने तपोवन में ही रहा करते थे। विद्यालयीन जीवन में पढ़ी एक उपनिषदीय कथा के अनुसार प्राचीन काल में धौम्य ऋषि के आश्रम में आरुणि पढ़ा करते थे। आरुणि ने एक रात मूसलाधार बारिश के पानी को आश्रम में प्रवेश करने से रोकने के लिए खुद को रात भर मेढ़ पर लिटाए रखा और आरुणि के इस कठिन कर्म से प्रभावित होकर आचार्य धौम्य ने उनका नाम रख दिया था, उद्दालक आरुणि यानी उद्धारक आरुणि।

पुरातन ग्रन्थों के इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि तपोवन अर्थात आश्रम का अर्थ सिर्फ वन के किसी हिस्से में ऋषि-मुनियों के बैठकर तपस्या करने, समाधि में बैठने का जगह नहीं वरन इसका अर्थ अपने विशेष परिधि और विस्तार में और भी विषद हो जाता है क्यूंकि इन तपोवनों में प्रेममय पारिवारिक जीवन भी सुखद रूप में फल फूल रहा था। महान याज्ञवल्क्य के अपनी दो पत्नियों के साथ निवास करने याज्ञवल्क्य के अपनी सैकड़ों गउओं के साथ आश्रम अर्थात तपोवन में रहने कण्व के तपोवन में जाकर महाराज दुष्यन्त ऋषि कन्या शकुन्तला से प्रेम और फिर गन्धर्व विवाह करने, महर्षि अत्रि पत्नी अनसूया के सीता को सोने के गहनों का अद्भुत उपहार देने आदि की कथाओं से इस तथ्य की पुष्टि ही होती है।

पुरातन ग्रन्थों के अध्यन से इस सत्य की पुष्टि होती है कि पुरातन भारतवर्ष के प्रायः सभी वनों में तपोवन हुआ करते थे और तपोवनों में विद्याकुल। ऋषि मुनि गहन वनों में कुटी छवाकर अर्थात बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या के साथ ही गृहस्थ और प्राचार्य के रूप में जीवन व्यतीत करते थे। इन्हें ही आश्रम अर्थात तपोवन कहा जाता था।उस जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्यन के अतिरिक्त अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। इन विद्याकुलों में बालक-बालिकायें अर्थात छात्र-छात्राएं सामाजिक और आर्थिक भेदभाव को भूलकर समन्वित रूप से एक साथ ज्ञान और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन किया करते थे । इन तपोवनों में विद्यार्थियों को विविध ज्ञान की शिक्षा प्रदान किये जाने के कारण यहीं पर तर्क-वितर्क और दर्शन की अनेकों धारणाएँ विकसित हुई।

सत्य की खोज, राज्य के सामयिक मामले व मुद्दे और अन्य समस्याओं के समाधान का यह प्रमुख केंद्र बन गया। कुछ लोग यहाँ सांसारिक झंझटों से बचकर शांतिपूर्वक रहकर गुरु की वाणी सुनते थे। इसे ही ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम कहा जाने लगा। इन तपोवनों में विपुल संस्कृत साहित्य की रचना हुई। आरण्यक नाम से संस्कृत साहित्य की एक श्रृंखला ही है। वेद और उपनिषदें भी इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। प्राचीन काल में देश में अरण्य जीवन समाज की महत्वपूर्ण धारा थी, इसका प्रमाण वे चारों वेद हैं और वह उपनिषद साहित्य है जो तपोवनों में ही मुख्य रूप से लिखा गया है।

जंगलों में जीवन का मंगल पैदा करने वाले ऋषि-मुनियों के महान उद्देश्य तथा उच्चतम लक्ष्य ने ही भारतवर्ष में अरण्य संस्कृति को आश्रम जीवन की उतुंग ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था, परन्तु धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया। और फिर जंगलों में हिंसक पशुओं और पर्यावरण के बीच ज्ञान-विज्ञान अध्यात्म संस्कृति का अद्भुत प्रसार करने की प्रवृत्ति लोगों में क्षीण होने लगी और गौरवमयी भारतवर्ष की अरण्य-संस्कृति का प्राचीन वैभव समाप्त होने लगा।

इस गौरवमयी पुरातन वैभव की परम्परा निरन्तर कायम रहे इसीलिए आगे चलकर यह नियम बना दिया गया कि हर मनुष्य को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन बिताने के बाद वानप्रस्थी हो जाना चाहिए अर्थात वन में प्रस्थान कर जाना चाहिए। ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व केरल में पैदा हुए संस्कृत के महान नाटककार भास ने अपने कुछ नाटकों में तपोवनों का वर्णन किया है ,परन्तु भास की वर्णन शैली से मालूम होता है कि तब तक तपोवनों का प्राचीन वैभव क्षीण हो चली थी और तपोवनों की सिर्फ याद ही शेष बची थी। भास से कुछ सदी बाद उज्जयिनी में हुए कालिदास ने भी अपने विश्वप्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी कुछ ऐसा ही अर्थात तपोवन परंपरा के क्षीण हो चलने का वर्णन किया है । वस्तुतः पुरातन काल में भारतवर्ष में वन जीवन का अपना अलग ही विशिष्ट स्थान समाज में था। यह समीचीन है कि वनवासी स्वयं को अरण्य संस्कृति के वाहक  मानते हैं, एवं वनों को अपने जीवन का एक हिस्सा मानतें है।


वनवासी सदा से ही वनों में रहते आए हैं ईधन, पशुओं के लिये चारा फल-फूल, जड़ी-बूटी, कृषि औजार, लकड़ी एवं भोजन वन से ही उन्हें प्राप्त होता है। उनकी संस्कृति मूलतः अरण्य संस्कृति है। वे अनेक पेड़-पौधों एवं जीव-जंतुओं की पूजा करते हैं। 19वीं शताब्दी के अंत में वनों का प्रबंध सरकार द्वारा देखा जाना प्रारंभ होने से उनके अधिकारों में कटौती हुई।

हमारे देश में जन जातियों को वनों के उजड़ने के लिए दोषी कहा जाता हैं, जबकि जनजाति स्वयं को वन का एक हिस्सा मानते हैं और उनका सारा जीवन वनों पर ही आधारित हैं अतः वे वनों का नुकसान नही पहुंचाते हैं बल्कि उसकी रक्षा करते हैं। अतः वन संबंधी अधिकार उन्हे ही दिये जाने पर विचार किया जाना चाहिए।

देश के जनजाति वर्गो को अब अपनी बोली, भाषा, लिपि, संस्कृति, धार्मिक परंपराएं व अपनी सभ्यता पर समझौता नहीं करना चाहिए। अपने मान, सम्मान और स्वाभिमान के प्रति सजग होकर विलुप्त होते गौरवशाली इतिहास को पुनर्जीवित करना चाहिए। ऐसा तभी संभव होगा जब हम जाति वैमनस्यता और क्षेत्रीय संकीर्णता का अंत कर, अशिक्षा, अंधविश्वास, कुरीतियां, रूढ़ियों के फेर व शराब मे लिप्त रहने जैसी बीमारियों को दूर कर देगें।

मैनें अलबत्ता अल्विन वारियर और वाल्टर जी ग्रिफिथ्स को पढ़ा है। दोनों ने ही मध्यभारत की वनवासियों पर विषद् और वैज्ञानिक अध्ययन किया है। स्वाभाविक तौर पर इन महापुरूषों के अध्ययन का आधार वैदिक काल की वह अरण्य संस्कृति नहीं रही जिसमें यह समाज पला-बढ़ा और आज यहाँ तक पहुंचा, उन्हें पढ़कर यही एक खोट महसूस हुआ। वारियर और ग्रिफिथ्स मेरे लिए महज एक विद्वान व अकादमिक सूचना संसाधन मात्र हैं।

वनवासियों की समस्याएं और उनके समाधान की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि ये हैं कौन, क्या कारण हैं कि इन्हें मुख्य समाज से अलग करके देखा जाता है अँग्रेजी इतिहासकारों इन्हें आदिवासी कहकर संबोधित किया, उनके बाद देसी इतिहासकारों भी इसी नाम को और भी पुख्ता करने में लगे रहे और आज भी लगे हैं। जैसा कि अर्थ से ही स्पष्ट है यहाँ के आदि निवासी। इससे यह स्वमेव ध्वनित होता है कि इनके अलावा जो भी हैं वे इस देश के आदिवासी नहीं हैं अन्यत्रवासी थे। इतिहासकारों ने  इसी स्थापना की पीठ पर आर्यों और अनार्यों की थ्योरी गढ़ी गई। यह एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा थी, वो इसलिए की जिससे विशाल भारतीय समाज में इसे आधार बनाकर आगे विभेद पैदा किया जा सके।

वर्तमान समय में बहुत बड़ी साजिश के तहत वामपंथियों द्वारा जनजातियों क्षेत्रों में इस बात का प्रचार प्रसार किया जा रहा है कि जनजाति हिन्दू नहीं है। सरकार 2021 में होने वाली जनगणना में आदिवासी धर्म के लिए अलग कोड और कॉलम निर्धारित करे। यह मांग 25 फरवरी 2019 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर एकजुट हुए कुछ जनजाति नेताओं ने की।  विभेद की ये कोशिशें कभी महिषासुर महोत्सव के जरिए, कभी यह बताकर कि ये भारतीय सनातन समाज के हिस्से नहीं हैं इनका धर्म व इनकी मान्यताएं अलग हैं।

राजनीतिक तुष्टीकरण ने मसले को और भी गंभीर बना दिया है। इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि इतिहास से आदिवासी शब्द सदा के लिए विलोपित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि अंग्रेज और उनके वैचारिक वंशधरों ने आदिवासी शब्द ही सोची-समझी और दूरगामी परिणाम देने वाली साजिश के चलते गढ़ा था। अब विचार करने की जरूरत है कि ये वनवासी ही क्यों रहे आए जबकि अरण्य संस्कृति का विस्तार ग्राम्य और नागर संस्कृति तक हुआ।

वनों से दूर एक नया समाज बना और वह आज उत्तरोत्तर आधुनिकता दौड़ में इतना आगे पहुंच गया कि इस धरती से भी दूर नए ग्रहों में बसने की सोचने लगा है। वस्तुतः आदिमयुग के बाद जब सभ्यताओं के विकास का क्रम शुरू हुआ। मेधा का विकास द्रुतगति से होने लगा तो उस समाज में दो समानांतर वर्ग पनपे उसका आधार और कुछ नहीं अपितु प्रवृत्ति और मनोवृत्ति थी। एक वर्ग में असुरक्षा बोध भविष्य की चिंता और संग्रह की वृत्ति जन्मी।

यह अन्वेषक और नवाचारी वर्ग था जो वन-प्रांतरों से अलग एक दूसरी दुनिया के बारे में सोचने लगा। दूसरा वर्ग यथास्थिति से ही संतुष्ट रहा। वह प्रकृति को ही आदि से अंत तक अपना पालक और आराध्य मानता रहा। इन दोनों वर्गों में क्रमशः दूरियां बढ़ती गईं। वनों से दूर मैदानी हिस्से में नदियों के किनारे सभ्यताएं फलने लगीं। संग्रह वृत्ति के साथ पूंजीवाद शुरू हुआ और जंगल के बाहर का यह समाज नए डगर पर चल पड़ा। उसकी बुद्धि और बाहुबल ने प्रकृति को ही अपनी पूंजी का संसाधन मान लिया। जो वनों में रह गए उन्होंने अपना भविष्य प्रकृति के ही हवाले छोड़ दिया। इस दृष्टि से देखें तो जो आज वनों में रह रहे हैं वो और जो गांव व शहरों में बसते हैं वो दोनों ही मूल रूप से एक हैं। यह थोपी हुई थ्योरी है कि वे आदिवासी हैं और जो शेष हैं वे बाहर से आए हुए आक्रांता।

वनवासियों के देवी-देवताओं और मान्यताओं पर भी विमर्श चलते रहते हैं। यह बात तो इतिहासकार भी मानते हैं कि शिव परिवार और हनुमानजी मूलतः अनार्यों के देवता हैं। वेदों में प्रकृति को ही देवता माना गया है। वैदिक देवता व्यक्त और व्यापक हैं। वे साक्षात हैं। वेदों में पंचभूतों को देवता माना गया है। वृक्ष, नदियां,  पर्वत,  पशुपक्षी सभी के प्रति दैवीय भाव है। वनवासियों के प्रायः सभी देवी देवता प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भगवान शंकर जैव विविधता और प्रकृति के घनीभूत तेजपुंज हैं। वनवासियों के मंत्रोच्चार जो कि प्रायः आपदा-विपदा के समय या झाड़फूंक के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं उनमें से प्रायः सभी में हनुमान जी या शंकर जी की दुहाई दी जाती है। शिव परिवार तो प्रकृति में सह अस्तित्व का अनुकरणीय प्रादर्श है जिसे वनवासी समाज आज भी जीता है। शिव वनवासियों के आदिदेव हैं। ग्राम्य व नागर संस्कृति के जनों ने तो काफी बाद में इनके अस्तित्व व महत्व को स्वीकार किया।

रामायण कथा वनवासियों के पराक्रम और अतुल्य सामर्थ्य की कथा है जिसमें उन्होंने राम के नेतृत्व में पूंजीवाद, आतंकवाद के पोषक साम्राज्यवादी रावण को पराजित कर सोने की लंका को धूलधूसरित कर दिया। रामकथा यथार्थ में वनवासियों के मुक्ति संघर्ष और विजय की अमरकथा है। इस कथा के नायक भगवान श्रीराम ने स्वयं वनवासी बनना स्वीकारा और तमाम वनवासियों को अपने बराबरी में खड़ाकर के समाज को समत्व की नयी परिभाषा दी। इसलिए ये वनवासी सनातन से चले आ रहे भारतीय कुल परिवार के अभिन्न और अविभाज्य जन हैं। यदि कोई विभेद है तो वह है जीवन और विचार शैली का, परंपरा परिवेश और पर्यावास का। वो प्रकृति के साथ गुंथे हैं और ये प्रकृति को भी वस्तु संपदा की दृष्टि से देखते हैं। यह विभेद भी महत्व का है क्योंकि यहीं से इनकी समस्याओं का समाधन सूझेगा। भारतीय उपमहाद्वीप सबसे बडी जनजाति गौड़ जनजाति है, जिसका सर्वाधिक विस्तार मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में है।

यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय उपमहाद्वीप 645 जनजाति समुदाय के द्वारा विभिन्न प्रकार से किसी विशिष्ट विशेष परम्परा एवं धार्मिक अनुष्ठान की रीति को अनुसरित करने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि, भारतीय उपमहाद्वीप का जनजाति समुदाय जो सदियों से सनातन संस्कृति का जनक रहा है वह एकदम से सनानत संस्कृति से हटकर किसी ऐसे विशिष्ट धर्म का उपासक नहीं हो सकता, जो कि भारतीय सनातन संस्कृति से भिन्नता रखता हो। इस प्रकार मेरे विनम्र मत में भारतीय उपमहाद्वीप की लगभग 645 जन-जाति समूह की संस्कृति, परम्परा, भाषा, धार्मिक आस्थायें के मूल में जो अरण्य (जनजाति) संस्कृति है वही सनातन संस्कृति के जन्मदात्री रही है।