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“समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान  : आध्यात्मिक ,हिन्दू जीवन मूल्य”- भाग 1

समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान  : आध्यात्मिक ,हिन्दू जीवन मूल्यभाग 1

 

21 वी सदी के प्रारंभिक दो दशकों में जो वैश्विक स्तर पर परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। सृजन वा ध्वंस साथ साथ चल रहे हैं ,उसे देख कर भविष्य के किसी बड़े वैश्विक- संकट का सहज ही अनुमान हो जाता है ।वर्तमान समय में भौतिक जगत ही सब कुछ रह गया है। आत्मा तिरोहित हो गई है शरीर और विलास- वैभवी सब कुछ बन कर रह गए हैं ।

भौतिक विज्ञान चूंकि प्रत्यक्ष पर अवलंबित है ,उतने को ही सच मानता है, जो प्रत्यक्ष देखा जाता है ।चेतना और श्रद्धा में कभी उसका विश्वास, मान्यता नहीं रही ,जो प्रत्यक्ष नहीं वह अमान्य, भौतिक विज्ञान और दर्शन कि यह कसौटी है। इस आधार पर हानी यह हुई कि- नीति मत्ता, आदर्शवादी धर्म धारणाओं को अस्वीकार कर दिया गया।

नई मान्यता के अनुसार मानव एक चलता फिरता पौधा मान लिया गया, वार्तालाप कर सकने की विशेषता वाला पशु मान लिया गया, *प्राणी बध (हिंसा)को अनुचित,आधार्मिक,निस्थुर्ता,निरदयता ना मानकर पशु पक्षी के मांसाहार को कद्दू- बैगन की तरह प्रयोग किया जाने लगा ।

 *प्रत्यक्षवाद ,क्षणिकबाद ने सामिष आहार मे अधिक  प्रोटीन होने व  लाभ दिखाकर इसे बधावा दिया* ।अपराधों को यह कहकर बढ़ावा दिया गया कि इससे मात्र दूसरों को हानि होती है स्वयं को नहीं। योन सदाचार के लिए पश्चिमी सभ्यता ने यह तर्क दिया कि- जब इस संदर्भ में पशु सर्वथा  स्वतंत्र हैं तो मनुष्य के लिए ही क्यों इस संदर्भ में प्रतिबंध होना चाहिए।

भौतिकवाद से ग्रसित बुद्धिजीवीयों   ने पशु पृवितियों को अपनाने के लिए घृणित  तर्क देते हुए कहा कि- जबकि चीते- हिरन स्तर के कमजोर प्राणीओं को दबा लेते हैं ,तो फिर समर्थ मनुष्य ही अपने असमर्थ जनों का शोषण करने में क्यों चुके?

विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने क्या सचमुच हमें सुखी बनाया है ? इसके उत्तर में जो तथ्य सामने आते हैं वे बड़े ही विस्मयकारी हैं। भौतिकता से प्रेरित मनुष्य ने यह सोचा समय के बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक तर्क के आधार पर प्रदर्शन करने के रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप ,संयम, परमार्थ जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर किया जाए…

विचारक नीत्से  ने कहा -“तर्क  के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका है, अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

धर्म के संबंध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि-“वह अफीम की गोली भर है जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुंह न खोलने के लिए बाधित करता है “साथ ही वह अनाचारयों को निर्भय बनाता है ताकि लोग अपनी चतुर्रता ,समर्था के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें जिन्हें अन्याय कहा जाता है ।

पिछले दिनों से समय का प्रवाह वैज्ञानिक प्रगति के साथ प्रत्यक्षवाद का समर्थक होता चला आया है, वास्तव में जो लोग धर्म और अध्यात्म को चर्चा प्रसंगों में मान्यता देते हैं, उनमें से बहुतायत को निजी जीवन में वैसे ही आचरण करते देखा गया है जैसे कि अधर्मी और नास्तिक करते देखे जाते हैं ।

अधिकांश जन स्वार्थपरता को ही अपनाए रहते हैं और जिनकी कथनी व करनी भिन्न रहती है। आडंबर ,पाखंड और प्रपंच एक प्रकार से प्रछनं नास्तिकता ही है । जो ईश्वर को भी न्यायकारी ,सर्वव्यापी नहीं मानते हैं ,सर्वत्र आस्था संकट है ।यह स्थिति भयानक है ।

   

प्राचीन काल के ऋषियों, तपस्वीओं महामानवों लोकसेवीओं में से अधिकांश ने कठिनाइयों और आभाव वाला भौतिक जीवन जिया फिर भी उनकी भौतिक या आध्यात्मिक स्थिति विपंन नहीं रही। सच तो यह है कि यह आज के तथाकथित सुखी- समृद्ध लोगों की तुलना में कहीं अधिक सुख शांति भरा प्रगतिशील जीवन जीते थे ,और प्रसन्नता का ऐसा वातावरण बनाए रहते थे,

जिसे ‘सतयुग,’ रामराज्य* के रूप में जाना जाता था और जिसको पुन: प्राप्त करने के लिए हम सब तरसते हैं ।अतः प्रश्न यह छोड़ जाती है कि वर्तमान में दृष्टिगोचर होने वाली प्रगति क्या वास्तविक प्रगति है ?या  इसके पीछे अधिकांश को पीड़ित शोषित अभावग्रस्त रखने वाला कुचक्र तो काम नहीं कर रहा है?

 नीति रहित बौद्धिकताबाद से उपजी दुर्गति की कहानी यदि कहीं जाए तो अभाव कृतिम है वह मात्र एक ही कारण से उत्पन्न हुआ है कि कुछ लोगों ने अधिक बटोरने की विज्ञान एवं प्रत्यक्षवाद की विनिर्मित मान्यता के अनुरूप यह उचित समझा है।

कि नीति,धर्म ,कर्तव्य ,सदाशयता ,शालीनता समता ,परमाथ -परायणता जैसे  अनुबंधों को मानने से इंकार कर दिया जाए जो पिछली पीढ़ियों में आस्तिक्ता  और धार्मिकता के आधार पर आवश्यक मानी जाती थी अब उन्हें प्रत्यक्षबाद में अमान्य ठहरा दिया जाए तो सामर्थ्य  वालों को कोई किस आधार पर मर्यादा में रहने के लिए समझाएं…

किस तर्क के आधार पर शालीनता और समता की नीति अपनाने के लिए बाधित करें?पशुओं को जब नैतिक, वहां पर उपकारी बनाने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता तो बंदर की औलाद बताए गए मनुष्य को यह किस आधार पर समझाया जा सके ?

कि वह उपार्जन उपभोग में ही ना लगा रहे कर, सदुपयोग की उन परंपराओं को भी अपनाएं जो न्याय औचित्य,सद्भाव एवं बांटकर खाने की नीति अपनाने की बात कहती हैं यदि वह अध्यात्मवादी प्रचलन जीवित रहा होता तो प्रस्तुत भौतिकवादी प्रगति के आधार पर बढ़ते हुए साधनों का लाभ सभी को मिला होता। सभी सुखी एवं समुन्नत पाए जाते ,ना कोई अनीति वर्त्तता और ना किसी को उसे रहने के लिए विवश होना पड़ता ।

                        विज्ञान ने जहां एक से एक अद्भुत चमत्कारी साधन उत्पन्न किए वहां दूसरे हाथ से उन्हें छीन भी लिया। भौतिक विज्ञान जहां शक्ति और सुविधा प्रदान करता है। वही प्रत्यक्षवादी मान्यताएं नीति ,धर्म ,संयम ,स्नेह, कर्तव्य आदि को झुटला भी देता है।

* ऐसी दशा में उदंडता अपनाते हुए समर्थ का दैत्य-दानव  बन जाता है ,स्वाभाविक है तथाकथित प्रगति ने इसी नीतिमत्ता का बोल -वाला होते देखने की स्थिति पैदा कर दी है और औधोगिक  करण के नाम पर बने कारखानों ने संसार भर में वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण भर दिया है।

अणुशक्ति की बढ़ोतरी ने विकिरण के खतरे पैदा किए है यदि तीसरा विश्व युद्ध ना भी हो तब भी भावी पीढ़ियों को अपंग स्तर की पैदा होना पड़ेगा।ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग ने वैश्विक तापमान में इतनी अधिक वृद्धि कर दी थी की हिमप्रदेश पिघल जाने पर समुद्रों में बाढ़ आने और ओजोन परत रूपी पृथ्वी कवच के फट जाने पर ब्रह्मांडीय किरणें  धरती की समृद्धि को भून कर रख सकती हैं।

रासायनिक खाद व कीटनाशक मिलकर पृथ्वी की व्यवस्था को विषाक्तता में बदल कर रखे दे रहे हैं। अंधाधुंध खनिज उत्पादन को देखकर *उत्खनन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2050-60 तक पृथ्वी के खनिज भंडार समाप्त प्राय :होंगे, बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से व्यक्ति पगलाने लगेंगे।

कामोत्तेजना ओं की जिस गति से वृद्धि हो रही है उसको देख कर लगता है कि ना मनुष्य की जीवनी शक्ति का भंडार बचेगा ना बौद्धिक प्रखरता और ना ही सील- सदाचार का कोई निशान ही बाकी रहेगा पशु -पक्षियों पेड़ों का जिस दर से कत्लेआम हो रहा है उसे देखते हुए यह प्रकृति ठूठ होकर रहेगी ।

मानवता सामूहिक आत्महत्या की दिशा में तेजी से बढ़ रही है।  मनुष्य के स्नेह सौजन्य सहयोग का स्थान शोषण ,बर्बरता ,अनीति ने ले लिया है। मनुष्य जाति आज जिस दिशा में चल पड़ी है ,उससे उसकी महत्ता ही नहीं सत्ता का भी समापन होते दिखता है ।

*आज संपूर्ण विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है ।सामूहिक विनाश को आमंत्रित करता जान पड़ रहा है* ऐसे में *भारतीय जीवन मूल्य आध्यात्मिकता ही आशा की विश्व को अंतिम किरण  है।

           मनुष्य जब बिष  को ही अमृत समझ कर पान  करने लग जाए तब परिवर्तन अति कठिन जान पड़ता है।* तात्कालिक लाभ ही जब सब कुछ बन गया है उसका परिणाम कल या परसों क्या हो सकता है यह सोचने की किसी को फुर्सत ही नहीं, लगता है…

कि -मृगतृष्णा में हिरण बेमौत मर रहे हैं आवांछनियता अपनाकर कमाई हुई सफलता थोड़े ही आगे बढ़ कर ऐसे संकट सामने खड़े करती है कि उनसे ऊवरना कठिन हो जाता है,पर उनके लिए क्या कहा जाए जिनकी मन्द  दृष्टि मात्र कुछ ही इंच-फुट तक देख सकने में समर्थ है।

आवन्छीनियताओं ,विडंबनाओ के समाधान के तौर पर एक बात कही जा सकती है कि *प्रत्यक्षवाद की पृष्ठभूमि पर जन्मे भौतिकता बाद ने सभी नैतिक मूल्यों ,मर्यादाओं की  उपयोगिता समाप्त करके मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनाया ।* व उन परंपराओं को छिंंन -भिन्न,बंद करके रख दिया जो मानवीय गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन एवं वर्जनाओं का परित्याग करने के लिए दबाव डालती और सहायता करती थी।

यह संसार विश्व -ब्रह्मांड जड़ और  चेतन दोनों के ही सम्मिश्रण से बना है। यहां प्रकृति एवं प्राण का ही सामंजस्य है। चेतना को परिष्कृत करने पर जो उपलब्धियां हस्त गत होती हैं *ऋषियुग में सतयुग में लंबी अवधि तक जाना परखा  जा चुका है इस देश की गौरव गरिमा का इतिहास उसी वर्चस से ऐतिहासिक बना और प्रख्यात रहा है* ।

बीसवीं सदी की इस अवधि में 2 विश्व युद्ध और लगभग 100 से अधिक क्षेत्रीय  युद्ध हो चुके हैं ।भौतिकतावादी ललक कि यह  संरचना है जिसके कारण अपार जन-धन की हानि हुई है। चिंतन,चरित्र व व्यवहार सभी कुछ लड़खड़ा गया है।

*प्रगतियुग , भौतिकता बाद के अगले चरण कितने भयावह हो सकते हैं, इसकी कल्पना मात्र से दिल दहल  जाता है।* प्रश्न यह उठता है कि *भौतिक मान्यताओं के आधार पर संसार को क्या इसी गति से चलने दिया जाना चाहिए ?या अतीत में बढ़ते गए उन सिद्धांतों को फिर से अपनाया जाना चाहिए* जिनके आधार पर प्राचीन काल में इस धरती पर सतयुग यानी स्वर्ग जैसा वातावरण था मनुष्य ‘ *भूसुर ‘देवता* कहलाता था ।

 

अभी पिछले दिनों बुद्ध, स्वामी विवेकानंद ,दयानंद ,योगी अरविंद ,समर्थ रामदास ,रामकृष्ण परमहंस जैसी कुछ प्रतिभाएं आध्यात्मिक हस्तियां संत आत्माएं प्रकट हुई थीं  जिन्होंने अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से संसार भर में आस्था ,उत्साह और उल्लास की एक नई लहर चला सकने में समर्थ हुई थी *।

विश्व में केवल भारत का ऋषिपुनीत अध्यात्म ,हिंदू जीवन मूल्य ही एक विकल्प है जो विश्व को विनाश के मार्ग से हटाकर सृजन,उज्जवल भविष्य के पथ  पर ले जा ही नहीं सकता वरन  विकास पथ भी प्रशस्त कर सकता है।

* उसे नकारा इसलिए नहीं जा सकता है क्योंकि शास्त्रकारों, आप्तजनों और ऋषिकल्प व्यक्तियों के आधार पर जो उत्कृष्टता बादी निष्कर्ष निकलता है ,उसे अमान्य ठहराने का कोई कारण नहीं। उसकी प्रमाणिकता  अ संदिग्ध है ।

भारत की इसी आध्यात्मिकता,धार्मिकता के बल पर समाज जीवन में पारस्परिक श्रद्धा ,सद्भावना ,सहकारिता ,नीति -निष्ठा अपनाए बिना पारस्परिक सद्भाव एवं स्नेह संवेदना नहीं भर सकती, इसके बिना उज्जवल   भविष्य पनपने की कोई संभावना नहीं बनती ।जिसमें मनुष्य अपना ही नहीं दूसरों का भी हित सोचता है न्याय को प्रश्रय देता है। और अनीति के आधार पर अर्जित सुविधाओं को स्वीकारने से इंकार कर देता है यही भारतीयता भी है ।

व्यक्ति के आध्यात्मिक होने पर जब भीतर  से उत्कृष्टता का पक्षधर उल्लास भरता है तो अंतराल में बीज रूप में विद्यमान देवी क्षमताएं जागृत सक्रिय होकर अपनी महत्ता का ऐसा परिचय देने लगती हैं जिसे अध्यात्म का वह चमत्कार कहा जा सकता है जो भौतिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक समर्थ है।

*युगऋषि ,अध्यात्म  वेत्ता पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य इसी संदर्भ में लिखते हैं कि–” आत्म  परिष्कार की साधना का नाम ही आध्यात्म है  अध्यात्म भावना वा विचारणा के परिशोधन की प्रक्रिया है।”* वस्तुतः सच्चा अध्यात्मवादी, लोकसेवी ही हो सकता है। जनकल्याण की समस्याओं के समाधान में यदि अध्यात्म का प्रयोग नहीं होगा तो श्रेष्ठता  कैसे पन्पेगी  ? और दुष्टा कैसे नष्ट होगी? फिर

   यह विश्व वसुधा भगवान का उद्यान,सूखता ,कुम्हलाता और नष्ट -भ्रष्ट होता ही दिख पड़ेगा ।अतः आज जो प्रत्यक्षवाद और बढे  हुए वैभव से जो अनाचार बड़ा है। उस पर अंकुश लगाने के लिए अध्यात्म -तत्वज्ञान के पक्षधरौं  को अगले मोर्चे पर ही खड़ा होना चाहिए ।

इस दिशा में यदि वे उपेक्षा बरतते हैं तो यही कहा जाएगा कि उनकी गणना विलास वैभव जैसी महत्वाकांक्षाओं से पीड़ित  औछे  जनों से तनिक भी बढ़कर नहीं हो सकती। उन्हें ऋषि कल्प योगी तपस्वीओं की स्तर की मान्यता किसी भी प्रकार नहीं मिल सकती। *

भारतीय  संस्कृति के प्रकाश में समाधान के सूत्र-

*भारतीय संस्कृति ,देव संस्कृति ,हिंदू संस्कृति है जिसने सारे विश्व को अपना परिवार माना बाजार नहीं ।भारतीय संस्कृति समन्वय वादी संस्कृति है साम्यवादी नहीं ।भारतीय संस्कृति उदात्त विचारों ,उत्कृष्ट, धर्म त्याग में जीवन परोपकार में जीवन मूल्यों का संदेश देने वाली विश्व की प्रथम संस्कृति है।

इस संदर्भ में वेद कहता है –“सा प्रथमा संस्कृति विश्वबारा”अर्थात यह सृष्टि के आदिकाल से है और विश्व की प्रथम संस्कृति है। सबसे प्राचीन देव निर्मित संस्कृति है जैसा जिसके  नाम से स्पष्ट है ‘सनातन ‘ अर्थात जो सदा से है वह सदा रहने वाली ,अविनाशी ,अजर -अमर ,अक्षय ,मृत्युंजय कालजई संस्कृति* ।

वैसे भी विचार किया जाए तो इस सृष्टि में *आत्मा* वा *चेतना* जिसे *एनर्जी* कहते हैं अजर -अमर है ।अल्बर्ट आइंस्टीन इसी सूत्र की पुष्टि करते हुए कहतें हैं की -एनर्जी का रूपांतरण होता है।गीता भी यही कहती है,आत्मा  कभी नष्ट नहीं होता ।

सनातन और हमारी सनातन संस्कृति इसी चेतना अध्यात्म पर आधारित है अमर ,मृत्युंजय कहलाती है तभी तो सदियों से हजारों आघातों को सहने के बाद भी सदा से निरंतर,चिरंतन ,नित्य बनी हुईहै  इसीलिए कवि  ने कहा ——–

यूनान मिस्र रोम, सब मिट गए जहां से                                                                            कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।।

सदियों रहा है दुश्मन ,दौरे जहां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती ,मिटती नहीं हमारी  ।।

                                 वह बात इस हिंदू संस्कृति की ‘आध्यात्मिकता’ जिसकी कवि चर्चा कर चर्चा कर रहा है नित्य निरंतर,अक्षुण्ण बनाए हुये है ।हमारी संस्कृति के मूल्य हमारे रक्त मे समाए हुए हैं । आध्यात्मिकता इसे नित्य, निरंतर अखंड बनाए हुए है ।

हमारी संस्कृति के मूल्य हमारे रक्त के जीनोम में बसते हैं। जिन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता ।मंदिर वा क्रियाकलाप उसकी अभिव्यक्ति के चिन्ह व प्रक्रिया मात्र है। ठीक वैसे ही जैसे शरीर साधन है व आत्मा साध्य है ना कि  शरीर। तब हमें यह भी ज्ञान रहना चाहिए कि आत्मा प्रधान है ना कि वस्त्र (शरीर)वस्त्र तो बार-बार बदला जाता है ।

हमारी इसी देव संस्कृति ने हमें ‘आत्मा की अमरता’ ‘आत्मा के पुनर्जन्म का सिद्धांत ‘,कर्म का सिद्धांत ,कर्म योग, जीवन की नश्वरता, क्षणभंगुरता ,स्यादवाद ,समय की सापेक्षता का सिद्धांत ,जीवन जीने की कला ,सभी कुछ तो दिया है फिर भी हम अज्ञानता बस भिकारी बने हुए हैं ।तो परमात्मा सृष्टा को क्यों दोष देना ?

हम ही तो आंख पर पट्टी बांधे हुए हैं उसे उतारना ही नहीं चाहते, बंधनों से हमें प्रीति है। कस्तूरी हमारी नाभि में है और अज्ञानता वस उसे बाहर तलाश करते हैं। यह मणि का प्रकाश है जो छय ही नहीं होता ।बस खोदने ,तलाशने व धारण करने की मात्र आवश्यकता है फिर देखिए कैसे हम भिकारी से राजा बनते हैं ।

*विश्वगुरु, जगतगुरु* बनते हैं। एक प्रसंग है- जंगल में एक शेर का बच्चा भटक जाता है और भेड़ियों के झुंड में रहकर भेडियो जैसी हरकतें करने लगता है जब एक दिन एक शेर उस दिशा में आता है और उसे *आत्मबोध -तत्वबोध* कराता है तब वह शेर का बच्चा वह  अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है यही स्थिति आज हम सभी मनुष्य जाति की है ।

 

    डॉ. नितिन सहारिया
(लेखक सामाजिक चिंतक एवं विचारक)