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स्नेह की सुरक्षा का बोध कराता : रक्षा बंधन  

‘‘उत्सव प्रिया हि मानवाः।’’ हमारे देश भारत के लोग उत्सव प्रिय है। प्राचीन काल से त्यौहारों का जुड़ाव जन जन से होने के कारण त्यौहारों का देश ही माना जाने लगा है। यद्यपि इन उत्सवों और त्यौहारों से कोई न कोई घटना या वैज्ञानिक तथ्य भी गहराई से जुड़ा होने के कारण उसकी महत्ता और अधिक बढ़ गयी है।

इन्हीं में से एक त्यौहार है- रक्षाबंधन का। यह त्यौहार भाई-बहन के प्रेम की सुरक्षा का बोध कराता है। साथ ही यदि गंभीरता से विचार करें तो इसके साथ मानव समाज की सब प्रकार से सुरक्षा और सामुदायिक संगठन की आवश्यकता को देखते हुये स्नेह और सुरक्षा के बोध की भी उतनी ही आवश्यकता प्रतीत होती है। इसका संकेत ‘‘मदनरत्न’’ एवं भविष्योत्तर पुराण में उपलब्ध होता है। ऐसे दायित्व बोध के लिये श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के पावन दिवस को चुना गया था।

ज्योतिषीय दृष्टिकोण:- इस अवसर पर पुरोहित अपने यजमान को मौलि(लाल धागा) बाँधता हुआ अनिष्ट से रक्षा करने वाला सूत्र मंत्रपाठ भी साथ साथ करता जाता है। इस दिन बाँधा जाने वाला जलजन्य रोगों से रक्षा करने वाला भी सिद्ध होगा-ऐसा मंत्र में कहा जाता है। ऐसे विधान का उल्लेख मिलता है कि रक्षाबंधन सूत्र अमृत की चैघड़ियों मुहूर्त देखकर ही बाँधना चाहिये। पुराहित गण जिस श्लोक का प्रायः उच्चारण करते हैं वह हैः-

येन बद्धो बली राजा दानवेद्रो महाबली।

तत् में त्वाम् अनुबंधामि रक्षे मा चल मा चल।।

ऐसी मान्यता है कि इस मंत्र के साथ रक्षा सूत्र बाँधने से यजनाव के पुत्र-पौत्रादि सहित पूरा परिवार वर्षभर सुखी रहते हैं। महर्षि नारद द्वारा लिखित ‘‘मयूर चित्रम्’’ ग्रंथ के अनुसार यदि इस दिन वर्षा होती है, तो सुभिक्ष जानना चाहिये। साथ ही पृथ्वी पर भरपूर अन्न की पैदावार होती है।

यह हिन्दू समाज का एक ऐसा संस्कार युक्त त्यौहार है, जो हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं पर पूर्णतः आधारित है। शास्त्रों में इसे श्रावणी पर्व भी कहा गया है। सृष्टिकाल से यह त्यौहार हमारे देश में मनाया जाता आ रहा है।

इसी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को सम्पूर्ण देश में बहिनें अपने भाईयों को रक्षा-सूत्र बाँधती है। त्रंतायुग से इस त्यौहार के मनाये जाने के विभिन्न कथा-प्रसंगों का उल्लेख मिलता है। अनेक लोग ‘‘नारियल-पूर्णिमा’’ के इस पावन अवसर पर जल के देवता वरूण की आराधना भी करते हैं।

‘‘रक्षा-बंधन’’ का आशय रक्षा हेतु बाँधना अर्थात् परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने से है। यह ‘‘रक्षा बंधन’’ सूत्र एक साधारण धागा न होकर प्रेम, विश्वास, आस्था तथा सुरक्षा का सम्पूर्ण अभिवचन है। इस सूत्र को लेकर अनेक पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथायें भी जुड़ गयी हैं।

वर्तमान समय में राखियों के रूप-रंग और विभिन्नता में फैशन  के अनुरूप बड़ा परिवर्तन देखने को मिल रहा है। आकार-प्रकार में चाहे जितना परिवर्तन आ जाये। इन सभी में प्रयुक्त पीला, लाल और हरा रंग, ज्ञान, प्रसन्नता और समृद्धि का संदेश देता है।

रक्षा बंधन का मूल अभिप्राय मनुष्यत्व की रक्षा के लिये एक सूत्रता में बंधना और बाँधना। इस पावन उद्देश्य को लेकर सेवा भारती, विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता पिछड़ी बस्तियों में जाकर परस्पर मेल-जोल, प्रेम व्यवहार बढ़ाते हैं एवं सेवा कार्य प्रारम्भ करते हैं। इससे आत्मीयता और सम्पर्क में वृद्धि होती है।

विदेशी और विधर्मी आक्रान्ताओं ने जब इस देश की धरती को रौंदते हुये महिलाओं को अपमानित करने की कुचेष्टायें की तब भी हमारी मातृशक्ति ने रक्षा हेतु राखी बाँधना शुरू किया था।

संघ की शाखाओं में भी यह कार्यक्रम वार्षिक तौर पर राष्ट्रीय उत्सव  के रूप में मनाया जाता है। यहाँ राष्ट्र के प्रतीक भगवाध्वज को राखी बाँधी जाती है। ताकि हमारा राष्ट्र शक्तिशाली बने। शक्ति सम्पन्न राष्ट्र ही सबकी रक्षा में समर्थ हो सकता है। इसके बाद सब स्वयंसेवक एक दूसरे को राखी बाँधते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि हम सब एक हैं, परस्पर बन्धु हैं, हमारा कर्तव्य मिल-जुलकर अपने राष्ट्र की रक्षा करना है।

जहाँ रक्षाबंधन हमारा धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक उत्सव है, वहीं यह सांस्कृतिक उत्सव भी है। भारत में उत्सवों, पर्वों, दिवसों आदि के मनाने के पीछे धार्मिक महत्व के कारण तो जुड़े हुये हैं ही, इसके पीछे एक व्यापक अर्थशास्त्र भी है। इस अर्थशास्त्र का प्रमुख लक्ष्य यह भी है कि बाजार में उपभौक्ताओं द्वारा आंतरिक माँग बनी रहे जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को रोजगार भी मिलता रहे आर्थिक मंदी अपना प्रभाव न दिखा सके।

ग्रामीण लघु उद्योगों, धातु, रसायन, चमड़ा, लकड़ी, खाद्य इत्यादि की माँग बनी रहती है। इसके कारण कर्मचारियों, मजदूरों, शिल्पियों, बेचने वाले व्यवसायियों आदि को काम-धंधा भी मिलता है।

लेखक – डाॅ. किशन कछवाहा

संपर्क – 9424744170