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स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर काल मुझ से डरा है मैं नहीं

फांसी का फंदा चूम कर कराल काल के स्तंभों को झकझोर कर मैं अनेक बार लौट आया हूं। काल के सम्मुख निर्भीकता से सिंह गर्जना करने वाले अजेय क्रांतिकारी, दार्शनिक, लेखक, ओजस्वी वक्ता भारत मां के अमूल्य रत्न विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र में नासिक के समीप ग्राम भगूर में चितपावन  ब्राह्मण परिवार में दामोदर पंत के घर हुआ था।

बाल्यकाल से ही विनायक सावरकर ने देश भक्ति से ओतप्रोत एवं सशस्त्र क्रांति के आवाहन से परिपूर्ण कविताएं एवं लेखों से तत्कालीन प्रमुख समाचार पत्रों एवं मासिक पत्रों में तहलका मचा दिया था। चाफेकर बंधुओं के बलिदान से प्रेरित होकर उन्होंने कुलदेवी के समक्ष वीर छत्रपति शिवाजी की राह पर चलते हुए स्वराज्य प्राप्ति के लिए आजीवन सशस्त्र क्रांति की शपथ ली।

1905 में नासिक में लोकमान्य तिलक के सानिध्य में प्रथम बार विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। 9 जून 1906 में श्यामजी कृष्ण वर्मा के द्वारा छात्रवृत्ति की घोषणा करने पर सावरकर इंग्लैंड प्रस्थान कर गए। यहां इंडिया हाउस में कानून के अध्ययन के साथ ही वे भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अनेकों रणनीति ,गुप्त योजनाएं अनवरत बनाते रहे।

1907में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अर्ध शती सावरकर के नेतृत्व में मनाई गई। इसी समय सावरकर ने अथक परिश्रम कर लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर ग्रंथ लिखा। जो भारत, ब्रिटेन, पेरिस में छपने से पूर्व ही प्रतिबंधित हो गया।

अंततः 1909 में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो ही गया। हाथों हाथ इस ग्रंथ की सैकड़ों प्रतियां बिक गई। इसी के साथ ही ब्रिटिश सरकार ने सावरकर बंधुओं को राजद्रोही व खतरनाक घोषित कर दिया। 13 मार्च 1910 को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुंचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया।

1 जुलाई 1909 को मोरिया जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। सुरक्षा प्रबंध के बाद भी सावरकर समुद्र में कूद पड़े और समुद्र की लहरों को पार करते हुए फ्रांस के तट पर पहुंच गए किंतु उन्हें वहां भी बंदी बना लिया गया।

भारत की  ब्रिटिश सरकार ने उन्हें षड्यंत्र रचने, बम बनाने, आदि शस्त्र भारत भेजने के आरोपों में आजन्म कारावास 50 वर्ष की सजा सुनाई। जिसे सुनकर सावरकर तनिक भी विचलित नहीं हुए। तदउपरांत उन्हें काला पानी की भयंकर यातनाएं भुगतने के लिए अंडमान दीप भेज दिया गया। अंडमान में राजनैतिक बंदिओं को अमानवीय एवं नारकीय यातनाओं से गुजरना पड़ता था।

यहां सावरकर को कोल्हू मैं बैल की जगह जोत कर तेल पिरवाया जाता था, मूंज कुटवाई जाती थी। साथ ही आए दिन हथकड़ियों एवं बेड़ियों में बांधकर खड़े रहने की सजा भी दी जाती थी। इन सभी अमानवीय यंत्रणाओं का वर्णन सावरकर जी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।

10 वर्षों के दीर्घ अंतराल में सावरकर ने जेल में अनेक सुधार कार्यों को लागू करवाया जिसमें धर्म परिवर्तन को रोकना, कैदियों को शिक्षा प्रदान करना, भोजन की गुणवत्ता में सुधार,  निस्तार विधि में सुधार, पुस्तकालय की स्थापना, हिंदी का प्रचार प्रसार, कैदियों में देश भक्ति एवं नैतिक आचरण की भावना से परिपूर्ण करना। ऐसे आदि अनगिनत सुधार कार्य  सावरकर ने अपने कष्टों की परवाह किए बिना संपन्न किए।

काला पानी के 10 वर्ष के दीर्घ कारावास में अंतिम 2 वर्ष में सावरकर का स्वास्थ्य अत्यंत गिर गया था। इधर विदेशों एवं भारतवर्ष में सावरकर बंधुओं को मुक्त कराने के लिए निरंतर प्रयास किए जा रहे थे। करीब 70000 हस्ताक्षर से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आंदोलन कभी नहीं हुआ था।

अंत में सरकार को विवश हो सावरकर बंधुओं को 1921 की मई में अंडमान से वापस बुलाया और उन्हें रत्नागिरी जेल भेज दिया गया। बाद में 6 जनवरी 1924 को उन्हें सशर्त मुक्ति दी गई और रत्नागिरी जिले में स्थान बंद रखा गया।

सावरकर ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में समाज सेवा के कार्य को अत्यंत लगन से किया। उनका पूरा जोर हिंदुओं को संगठित करने, छुआछूत की बुराई जो उग्र रूपमें फैली हुई थी उसका समूल नाश करने के लिए प्राण पण लगा दिया। इस हेतु सावरकर सनातनी हिंदुओं के कोप भाजन भी बने। किंतु सावरकर के साहस के सम्मुख सभी को हार मानना पड़ी।

26 फरवरी 1966 को इस अलौकिक क्रांति पुंज ने नश्वर संसार से विदा ली। सावरकर के क्रांतिकारी जीवन का रोमांचक इतिहास भारत की संतानों के लिए सदैव प्रेरणास्पद रहेगा। वर्तमान में राष्ट्र के सम्मुख जब अनेक समस्याएं मुंह फैलाए खड़ी हैं ऐसे समय में सावरकर जैसे दूरदर्शी, भविष्य को परखने वाले देश प्रेम से ओतप्रोत राजनीतिज्ञ हमें सदैव स्मरण आते रहेंगे।

लेखिका – डॉ. नमिता जी साहू
संपर्क सूत्र – 9691542873