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‘‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहि मैं जाना’’डाॅ. किशन कछवाहा

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज द्वारा रामचरित मानस के बालकाण्ड में देवताओं के समक्ष भगवान शिव ने उक्त विचार व्यक्त किये थे। ऐसा उल्लेख मिलता है। यह स्पष्ट संकेत है कि भगवान प्रेम से मिलते हैं। तात्पर्य यह कि दृढ़ प्रेम के बिना भगवत् प्राप्ति से मिलते हैं। प्रेम प्राप्त होता है, सत्संग से।  शास्त्रों में कहा गया है कि सत्संग के लिये विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है।

सत्संग की चार श्रेणियाँ कही गयी हैं, सत्-परमात्मा में प्रे्रम/सत्य स्वरूप हैं- परमात्मा और संग से तात्पर्य है-पे्रम/परमात्मा के साक्षात् दर्शन करके उनके साथ रहना।/दूसरी श्रेणी भगवत् प्रेमी भक्त का सत्संग, तृतीय है साधना में निरन्तर लगे रहने वाले उच्चकोटि के महानुभावों का सत्संग, जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं। चतुर्थ श्रेणी बतलायी गयी है, जो सत्-शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन मनन में लगे रहते हैं। इसे स्वाध्याय भी कहा जाता है, वे ऐसे शास्त्र होते हैं, जिनमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और सदाचारण का उल्लेख होता है। महात्माओं के साथ हुआ सत्संग, संसार के किसी भी सत्संग की बराबरी नहीं कर सकता।

अधिकारी उच्चकोटि के महात्मा पुरूषों के तो दर्शन, भाषण श्रवण, स्पर्श और वार्तालाप विभिन्न प्रकार का कल्याण करने वाले सिद्ध होते हैं। परमात्मा का जो महात्मापन है। वह परमात्मा से भिन्न नहीं रह जाता। गीता में महात्मा के लक्षण बताये गये हैं, वे ही महात्मा हैं।

गीता के (4/3) श्लोक ‘‘मनुष्याणाम्………..वेत्ति तत्वतः’’ में कहा गया है कि ‘‘हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है, वही मेरे परायण होकर मुझकों तत्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।’’ इस संसार में आये हुये पुरूष के लिये वैराग्य साधन की आवश्यकता प्रतीत होना चाहिए।क्योंकि वैराग्य के बिना इस आत्मा का उद्धार संभव  नहीं है। वैराग्य से तात्पर्य है, चित्त की वृत्तियों को भगवद् चिन्तन में लगाकर अन्यान्य विषयों के रस से अपने आपको दूर करते रहना। क्योंकि सांसारिक भोगों को भोगते रहना दुःखपूर्ण हैं। वे सभी विषय सुख का अनुभव तो देते हैं, लेकिन हैं, दुःख के हेतु। जब भक्त भगवद् भक्ति में लीन होने लगता है, प्रेम-विव्हल हो जाता है, तब उसके मन से ये इन्द्रियों से  प्राप्त सुखों के प्रति स्वयंमेव वैराग्य भाव उत्पन्न होने लगता है।

धर्म तो उसे कहते हैं, जिसके माध्यम से इस लोक में भी और परलोक में भी कल्याण हो। वैराग्यवान पुरूष की संसार के किसी भोग प्रदार्थ के प्रति आसक्ति कैसे बनी रह सकती है? जो सुख आरम्भ में आनन्द दायक प्रतीत होते हैं, उनका परिणाम दुःख रूप ही है, ऐसा समझने में आने लगता है।

परमात्मा का नाम-जप और उनके स्वरूप का चिन्तन ज्यों-ज्यों बढ़ने लगता है, त्यों-त्यों उस साधक व्यक्ति के हृदय से मलिनता दूर होने लगती है। या इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि उस शुद्ध हृदय में वैराग्य की भावना दृढ़ होती चली जाती है। वैराग्य भाव के उदित होते ही प्रेम, दयालुता, ममता एवं अहंकार रहित, स्वार्थ रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति से समभाव परिलक्षित होने लगते हैं। ऐसा ही वैराग्यभावना से निहित साधक ईश्वर का प्रिय बन जाता है। अतः इसी प्रकार की वैराग्य भावना की तीव्र इच्छा स्वयं पैदा  होती चली जाती है। इस वैराग्य से ओतप्रोत साधक को कोई बैरागी ही पहचान सकता है। लेकिन इसका प्रभाव चमत्कारी होता है। उसके दर्शन मात्र से वैराग्य उत्पन्न हो सकता है।