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श्री राम कथा के जनजातीय संदर्भ : भाग 2

नाहं मन्ये सुवेदेति न वेदेति वेद च।
योनस्तव्देद तव्देद नो न वेदेति वेद च।।
-केन उपनिषद

( I do not think that I know it well. Nor do I know that I do not know it.
Among us those who know, know it; even they do not know that they do not know.

-Kena Upnishad)

रामायण कथा भारत वर्ष का एतिहासिक साक्ष्य है, जिसे काव्यात्मक शैली में लिखा गया, ताकी इसे कंठस्थ कर पीढ़ी दर पीढ़ी, बिना लिखित होने पर भी संरक्षित किया जा सके। इस महाकाव्य के हज़ारों वर्षों के संचरण से कई बातें रचनाकारों की अभिव्यक्ति की शैली व उनकी बोधात्मक क्षमता अनुसार समवर्धित व परिवर्तित होतीं गईं, कालांतर में लिखित महाकाव्य जिसमें गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस प्रमुख है। 

अलाउद्दीन ख़िलजी जब अवध/कड़ा का सूबेदार बना तो उसने संस्कृत बोलने सिखाने वाले सभी लोगों को संस्कृत की हस्तलिखित हज़ारों पुस्तकों के साथ ज़िंदा जला दिया, धार्मिक यात्राओं पर मृत्यु दंड मिलना आम बात थी।

इस तरह जब संस्कृत लिखित महाकाव्य का तुलसीदास जी ने मानस रूप में वर्णन किया तो जनजातीय क्षेत्रों की अनभिज्ञता वश अथवा भाव प्रधानता वश जनजातीय नायकों को उनके टोटेम (गोत्र चिन्ह-पशु) में वर्णित किया, जिससे वे सभी ने उन पशु रूप में ही कल्पना में दृढ़ हो गए, फिर भी प्रभु श्री राम व धर्म के पुनर्जागरण में रामचरितमानस का अप्रतिम योगदान अतुलनीय है।

वर्तमान में जब पश्चात्य एक ईश्वर वादी संप्रदाय, भारत के जनजातियों को मतांतरित व अभारतीय विचारों से भ्रमित कर रहे हैं, आवश्यकता है, आरण्य संस्कृति के पुरोधा जनजातीय समाज के अस्मिता जागरण की।

ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहं बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
(राम चरित मानस)

हम जनजातीय दृष्टिकोण से प्रकाश डालें तो , श्री रामायण कथा के विभिन्न रूपों में कई जनजातीय समुदायों को आज के प्रचलित पहचान से भिन्न दर्शाया गया है , जिसके भ्रम को दूर करने की आज महती आवश्यकता है , ताकी समरस सहोदर भाव पुनर्स्थापित हो सकें ।

टोटेमिक ( पशु गोत्र ) व काव्यात्मक , दोनों पहचानों का विश्लेषण करें तो वानर , ऋक्ष ( रीछ / भालू ) , जटायु ( गिद्ध ) राजाओं का उल्लेख है , सभी का वर्णन आज के गोंड , भील , कोल व अन्य जनजाति से अधिकांश मिलता हैं , जो आज भी वनीय क्षेत्रों के स्वतंत्र सांस्कृतिक क्षेत्रपति हैं , वानर राज सुग्रीव की राजधानी गोदावरी के दक्षिण में पंपा नदी पर स्तिथ है , इस पर मतभेद हैं , ये पंपा वर्तमान की केरल में बहने वाली पंपा नहीं , बल्कि कोई अन्य नदी है।

किष्किंधा राजधानी व अन्य वर्णन अनुसार, वानर जनजाति , गोंड (कोईतूर , खोंड , कोया) जनजाति से मेल खाती है , गोंड जनजाति समुदाय तमिलनाडु , कर्नाटक , आंध्र , तेलंगाना , महाराष्ट्र , ओरिसा , छत्तीसगढ़ , उत्तरप्रदेश , झारखंड , बिहार व मध्यप्रदेश में आज भी वनों में निवास करते हैं।

इन सभी क्षेत्रों में निवासरत गोंड समुदाय , स्वयं को कोयतूर (पहाड़ी योद्धा) के नाम से चिन्हित करता है , जिन्होंने रामायण व महाभारत दोनों काल के युद्धों में अपना योगदान दिया । हाल ही में तमिलनाडु के कोयमबटूर शहर का नाम , “ कोयम पुथुर “ करने का प्रस्ताव पारित हुआ , जिसका अर्थ “ कोयाओं का नगर “ है ।

एक और जनजाति जिसे निषाद राज से चिन्हित किया है , वे भील समतुल्य हैं , जिनका विस्तार मध्य प्रदेश , उत्तरप्रदेश , महाराष्ट्र , गुजरात , राजस्थान , सिंध , बलोचिस्तान तक रहा है । महाभारत काल में भील समुदाय का विशेष योगदान रहा है ।

कई आधुनिक शोधार्थी रामायण में उल्लेखित भौगोलिक क्षेत्रों को स्वीकार नहीं करते , इसका कारण कई स्थानीय नामों की पुनरावृत्ति है , जो की स्वाभाविक है , चूँकि कई स्थानों व नदियों के नाम कई हिंदू राजाओं ने अपने क्षेत्रों को दिए , जो आज हमें भ्रमित करते हैं , जैसे अयोध्या नामक ग्राम भारत , नेपाल , थाईलेंड तक मिलते हैं , जिस कारण भी जनजातियों के रामायण क़ालीन आधिपत्य क्षेत्र पर शंका पैदा हो जाती है।

उदाहरण जैसे बेतवा तट पर भिलसा शहर जिसे ख़िलजी ने लूटा था , परमारों से पहले भीलों के अधीन था। भिलसा के नज़दीक मातंग आश्रम होना स्वाभाविक है , क्यूँकि खजुराहो का प्राचीनतम मातेंगेश्वर शिव मंदिर , मातंग ऋषि ने प्राणप्रतिष्ठित किया है। शबरी माता , शबर अथवा भील थीं , जो इसी मातंग आश्रम में रहतीं थी स्पष्ट हो जाता है।

राजा सुग्रीव ने राजधानी किष्किंधा से सभी दिशाओं में , उन्होंने अपने गुप्तचर भेजे , उन सभी स्थानों का अवलोकन करें तो , किष्किंधा नगरी सतपुरा पर्वत शृंखलाओं पर थी , एवं रिश्मुख़ पर्वत पंचमढ़ी में रहा होगा , जिस पर ना जाने का श्राप बालि/वली पर था।

कर्नाटक में किष्किंधा होना , तथ्यात्मक सिद्ध नहीं लगता क्यूँकि वह क्षेत्र तब यक्षों के अधीन था , ना की वानरों के , जैसा कई सोचते हैं , ये हिंदू राजाओं के रामायण क़ालीन नामों के दक्षिण में पुनरनामांकन वश हुआ होगा।

कई संदर्भ आज भी जनजातीय बहुल स्थानों से जुड़े हैं , मान्यता है जब राजा दशरथ की मृत्यु हुई तब भरत ने चित्रकूट के पास , श्री राम को वापस अयोध्या आने को आमंत्रित किया, जबलपुर के जाबालि ऋषि का प्रसंग वाल्मीकि रामायण में आता है, और वे राजा द्वारा सत्य व अपने दिए वचन सामने रखते हुए भरत व जाबालि ऋषि की बात नहीं मानते।

इस प्रसंग के ऊपर आज भी जनजाति समुदाय , अपने वचन और सत्य का अनुसरण करता है , जबलपुर की जाबालि शिला (बेलेंसिंग रौक) की मान्यता थी , अभी तक किसी जनजाति ने श्री राम के समान अपना वचन नहीं तोड़ा है , इसीलिए जाबाली शिला टिकी हुई है।

माता सीता ने अपहरण समय में अपने स्वर्ण आभूषण , लंका के रास्ते में छोड़ दिए थे , वानर गोत्र ( टोटेम ) राजा सुग्रीव ने लक्ष्मण से संवाद में सारे आभूषण किस जगह से प्राप्त कर लाए , उन सभी स्थानों का लिए स्थानों के नामों का वर्णन वाल्मीकि रामायण में किया है , जो पूरे भारत के स्थानीय नामों को उल्लेखित करता है , ये कार्य राजा सुग्रीव की सेनाओं ने अर्ध ऋतु अथवा दो माह में किया था । जो उनके अधीन बड़ी सेना होना स्थापित करता है।

इस पर भी जनजातीय परम्पराएँ हैं , की माता सीता की मुसीबतों में स्वर्ण आभूषणों ने विपत्ति में माता सीता का साथ छोड़ दिया था , इसका गूढ़ है अधिक धन संग्रह विपत्ति को आकर्षित करता है , इसलिए आज भी गोंड महिलाएँ सोने की अपेक्षा , चाँदी के आभूषण पहनती हैं , और गुदना ( टेटू ) करवाती हैं , जो विपत्ति में भी , अल्पता में भी उनका साथ नहीं छोड़ते ।

जामवन्त को रिक्षराज कहा गया है , ( भालु ) गोत्र , जनजातियों से वाल्मीकि रामायण में निकटतम सम्बंध , अफ़्रीकी मूल की जनजातियों से है , जो आज की इरुला व सिद्धी जनजातियों से सम्बंधित हैं , इनका विस्तार कर्नाटका व तमिलनाडु में है। जामवन्त इरुला जनजाति की पुत्री जामवती से श्री कृष्ण ने विवाह किया था ऐसी मान्यता है, अन्य ग्रंथों में , सागर मंथन में कई बार जामवन्त अथवा रीछराज ( इरुला ) जनजातियों का वर्णन मिलता है ।

जटायु व संपती , राजा दशरथ के मित्र थे , इनका वर्णन कोंडा जनजाति से मिलता है , जटायु ने रावण से पहले तर्क किया , उनका संवाद , न्याय दर्शन का उदाहरण है, तथा संदेश देता है , अनीति , अत्याचार व महिलाओं की लड़ाई में मृत्यु निश्चित होने पर भी युद्ध करना चाहिए , आंध्र प्रदेश के “ लेपाक्षी “ ( ले पक्षी – उठो पक्षी ) ग्राम में श्री राम ने उनका अंतिम संस्कार किया था। केरल के जटायुमंगलम में भी जटायु रावण युद्ध होना प्रचलित है , कुरूंबा व अन्य जनजातीय जटायु को पूजनीय मानती हैं ।

रामायण काव्य का उद्देश्य , “ धर्म सिद्धांतों को आचरण द्वारा प्रचारित करना था “ , ना की इतिहास व लेखकों को महत्व देना , इसिलिये वर्तमान रामायण के कई रूप भारत के कई भागों में प्रचलित हैं , जनजातियों में विशेषकर मध्य्भारत में , रामायण व महाभारत को , “ “रामायणी “ व “ छत्तीसगढ़ी पड़वानी “ के रूप में लोक काव्य के रूप में मंचन किया जाता रहा है , इनमे श्री राम का वर्णन आदर्श राजा के मानवीय रूप में किया जाता है , जो इन्हें अपने ही समाज के अंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं , व उनका आज भी अनुशरण करते हैं :

बुद्धीमान मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवद: ।
वीर्यवान न च वीर्येण महता स्वेन विस्मित:।।
सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेंद्रिय:।
स्मितपूर्वाभिभाषी च धर्मं सर्वात्मनाश्रित:।।
(वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड)

श्री राम के प्रति उनका प्रेम व वात्सल्य इतना प्रगाढ़ है कि उन्होंने उनको अपने से अलग देवता रूप स्वीकार ही नहीं किया, जनजातियों और श्री राम दोनों के आराध्य देव शिव/महादेव हैं, यह भी उनकी श्री राम के प्रति आस्था को स्थापित करता है। जनजातीय काव्य, जनजातियों के लिए भक्ति के साथ धर्म, सत्य व ज्ञान के भंडार भी हैं, जिसमें भौगोलिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व आर्थिक कई विधाओं का समावेश है।

एक मान्यता है, विभीषण के राज्याभिषेक की, कहते हैं श्री राम ने लंका में प्रवेश नहीं किया था, क्योंकि उनके वनवास को चौदह वर्ष पूर्ण नहीं हुए थे, उन्होंने लक्ष्मण जी को राज्याभिषेक के लिए भेजा, परंतु वे सपत्नीक नहीं थे, इसीलिए वे राज्यभिषेक नहीं कर सकते थे, श्री राम ने गंगा के दक्षिण का सारा राज्य किष्किंधा नरेश सुग्रीव को सौंप दिया, इसलिए विभीषण का राज्य अभिषेक सुग्रीव ने किया, रावण के बाद विंधांचल व दक्षिण के राजा सुग्रीव हुए थे, स्मृतिस्वरूप इसलिए आज भी कई दक्षिणपंथी अनुष्ठानों में, राजन स्वरूप में जनजातीय वर्ग ही आवश्यक है। भरत ने सुग्रीव को अपने पाँचवे भाई के रूप में मान्यता दी। जनजातीय समाज का श्री राम कथा में समान सहोदर स्थान है।

मौलिक तमिल रामायण व मौलिक तेलुगु रामायण भी, श्री राम के द्वारा, माता सीता को परित्यज्ञ करने की किसी बात को नहीं समर्थित करते हैं, ये प्रसंग जिस उत्तर कांड के द्वारा जोड़े गए हैं, वो मूल रामायण का हिस्सा नहीं हैं, इस उत्तर कांड को कालांतर में उत्तर मीमांसा/ पुराणिक काल में संलग्न किया गया हैं, साथ ही शंभूक प्रसंग को संभवतः बाद में जोड़ा गया , जो प्रभु श्री राम के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप से बिल्कुल मेल नहीं खाता । ये अध्याय वर्चस्व की लड़ाई के परिणाम स्वरूप जोड़े जाने सम्भव हो सकते हैं।

वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि कृत केवल छ कांड है, सातवाँ कांड उत्तर कांड, कालांतर में वाल्मीकि ऋषि परंपरा के शिष्यों द्वारा जोड़ा गया है। अर्थात् श्री राम के अयोध्या आगमन उपरांत वाल्मीकि जी की रामायण की समाप्ति हो जाती है , इसीलिए प्रथम तमिल रामायण, कम्बार रामायण जो की 900 ईस्वी में लिखी गई, उसमें भी केवल छः खंड हैं, 1300 ईस्वी
प्रथम तेलुगु रामायण जिसे राजा ग़ोना बुद्धा रेड्डी, द्वारा लिखा गया उसमें भी केवल छः कांड हैं। सातवें उत्तर कांड का प्रसंग अनुसार किसी मदिरा पीने वाले व पत्नी को प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति की बंद कमरे की बात को गुप्तचर के सुने जाने से, व उसे श्री राम को सूचित करने से, उनका माता सीता का परित्याग कर देना, किसी भी तरह श्री राम के आचरण सम्मत व धर्म सम्मत नहीं था।

आधुनिक रामायण में उत्तर कांड का विशेष महत्व है, जिसे जनजातीय समाज प्रभु राम के अनुरूप इसीलिए नहीं मानते, क्यूँकि प्रत्येक जनजाति वर्ग में गर्भवती पत्नी का विशेष मान है, श्री राम द्वारा सत्य व राजधर्म अनुसार गर्भवती सीता माता का परित्याग नहीं किया, ऐसी समस्त जनजातियों की मान्यता है । गोंडी रामायण, में प्रभु श्री राम व माता सीता के मध्य प्रेम का इतना प्रगाढ़ विश्वास था की उनकी कथाओं में उनके द्वारा माता सीता को परित्याग करके वन में छोड़ने का कोई प्रसंग नहीं मिलता, ना ही वे इस प्रसंग को स्वीकार करते हैं।

छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश में दशहरे का प्रचलन में भी एक संदर्भ है की लंका विजय उपरांत, श्री राम को चौदह वर्ष पूर्ण नहीं हुए थे, उन्होंने जनजातियों के साथ दस दिनों तक लंका विजय का उत्सव मनाया, इसीलिए सभी जनजातियों में दशहरे उत्सव का महत्व, श्री राम के साथ जुड़ा हुआ है।

दक्षिण भारत के ई वी पेरियार ने रामायण व भारतीय संस्कृति को अपमानित करने जीवन भर काम किया व उनके जैसों ने जनजातीय बहुल राज्यों में मिशन समर्थित व क्रिप्टो अनुयायीयों ने, शैक्षणिक संस्थाओं में मुफ़्त शिक्षा के के साथ श्री राम कथा को सतत अपमानित करते रहे हैं, और बचपन से ही श्री राम व रामायण के अन्य पात्रों को छुपे रूप से हास्य का विषय बनाते हैं, जैसे तुलसी कृत रामायण अनुसार प्रसाद प्राप्त करते ही श्री राम का जन्म हो जाना, परंतु वाल्मीकि रामायण राजा दशरथ के यज्ञ के बारह माह उपरांत जन्म लेते हैं, कई संदर्भों को अवैज्ञानिक बताकर अपमान तो करने का प्रयास करते हैं, परंतु इसके विपरीत,”एक पुस्तक” की काल्पनिक अवैज्ञानिक असंभव कपोल कल्पित कहानियों की विवेचना से भागते हैं, जनजातीय बालकों को बचपन से ही “एक मिशन पुस्तक” का प्रशिक्षण दिया जाता है, इन मिशन संस्थाओं में पढ़े जनजाति, आगे जाकर जनजातियों का नेतृत्व करते हैं । जयपाल मुंडा, अजीत जोगी, हेमंथ सोरेन मिशन स्कूल से पढ़े जनजातीय नेताओं के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

आज मतांतरित जनजातियों के रास्ते पर चलकर , झारखंड में जनजातियों को हिंदुओं से अलग धर्म कोड के लिए विदेशी मिशन प्रायोजित एक विशाल षड्यंत्र रचा जा रहा है, जो राम मंदिर निर्माण से व जनजातीय आस्था के पुनर्जागरण कारण, मतांतरित जनजातियों के घरवापसी की संभावना से भी आशंकित हैं।

मिशन संस्थाओं का यह षड्यंत्र, इसीलिए अब तक सम्भव हो पा रहा है, क्यूँकि हमारे महाकाव्यों ग्रंथों में हम जनजातियों के गौरव शाली संदर्भों को उचित स्थान नहीं दे पाए हैं, शहरी वर्ग की सोच जंगल के जनजातियों के इतिहास बोध व अधात्मिक दृढ़ता के प्रति आशंकित है। कुछ वर्गों की जनजातियों को कर्मकांडों में उन्नयनित करने की प्रबल इच्छा, उन कुछ वर्गों की भारतीय दर्शन से अनभिज्ञता को दर्शाती है।

आज के समय की आवश्यकता है, जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के लिए रामायण व महाभारत की शिक्षा को, जनजातीय संस्कृति, गीतों में रचे बसे जीवन के साथ संरक्षित व समवर्धित किया जाए।

वन्दे सीतां च रामं च हनुमंतं च लक्ष्मनम।
विभीषनम च सुग्रीवम वालमिकिम चाद्यसत्काविम।।

लक्ष्मण राज सिंह मरकाम “लक्ष्य”