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कई जख्म ऐसे होते हैं जो समय के साथ भी भर नहीं पाते

!!काश्मीर फाइल्स!!

घाटी में जिहाद के शिकार हुए पंडितों के नरसंहार को रुपहले पर्दे पर हूबहू उकेरती एक फ़िल्म 

कश्मीरी पंडितों के साथ घाटी में 1990 में हुआ नरसंहार भी ऐसा ही एक जख्म है, जिससे तीन दशकों तक संघर्ष करने के उपरांत भी पंडित समुदाय उबर नहीं पाया है। घाटी की गलियों में 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों को घाटी में हिंदू होने की सजा दी गई थी। ये वो दौर था जब श्रीनगर के बाजारों में कट्टरपंथी जिहादियों द्वारा सार्वजनिक रूप से कलाश्निकोव लहराए गए, पंडितों का नरसंहार किया गया, उनके घरों के बाहर पर्चे चिपकाए गए, उनकी बेटियों को भरे बाजार में फब्तियां कसी गई, उनके साथ जघन्य बलात्कार हुए, मस्जिदों से लाउडस्पीकरों पर पंडितों को नारे दिए गए “रालीव, चालिव या गालिव” मतलब मारे जाओ भाग जाओ या इस्लाम अपना लो।

उन्हें कहा गया कि हम कश्मीर को पाकिस्तान बनाएंगे तुम्हारे साथ नहीं पर तुम्हारी औरतों के साथ। घाटी में यह सब कुछ इस्लामिक जिहाद के नाम पर किया गया, जिस दौरान पंडितों से कहा गया कि यहां लोकतंत्र नहीं निजाम ए मुस्तफा चलेगा। जिहादियों द्वारा घाटी में यह सबकुछ तब किया जा रहा था जब देश के गृहमंत्री एक कश्मीरी मुसलमान थे। जिहादियों के सामने शासन की लाचारी और नई दिल्ली में केंद्र सरकार की चुप्पी ने कश्मीर की पूरी जनसंख्या का करीबन 10% हिस्सा रहे अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदू पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने पर बाध्य कर दिया।

पलायन और राजनीति –

इसे केवल संयोग नहीं माना जा सकता कि महज कुछ महीनों के विदेशी षड्यंत्र ने 5 लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों को अपनी संस्कृति, अपनी विरासत एवं अपनी स्वर्ग जैसी मातृभूमि को छोड़ पलायन के लिए मजबूर कर दिया हो, ये जहर तो वहां कई दशकों से पनप रहा था, इस्लामिक कट्टरपंथी विचारधारा कश्मीर में कई दशकों से धीरे-धीरे अपने पैर मजबूत कर रही थी, वर्ष 1990 में तो बस इस विचारधारा ने अपने व्यवहारिक लक्ष्यों की पूर्ति की थी। दरअसल धार्मिक आधार पर हुए विभाजन के उपरांत भारतीय गणराज्य में केवल एक ही ऐसा राज्य था, जिसमे हिन्दू अल्पसंख्यक हुआ करते थे और यही उनके पलायन का वास्तविक कारण भी बना। हालांकि बावजूद कि इसके यह जिहाद और इसके सूत्रधार स्थानीय कश्मीरी मुस्लिम समुदाय से थे, पिछले तीन दशकों से भारत के वामपंथी वर्ग द्वारा इसे कश्मीर की तथाकथित राजनीतिक समस्या से जोड़ा गया, इस क्रम में वामपंथियों द्वारा पंडितों के विस्थापन के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया गया।

स्वतंत्रता के उपरांत सत्ता की लोलुपता को केंद्र में रखकर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों ने भी तुष्टिकरण की राजनीति के तहत इस अवधारणा को खूब प्रचारित प्रसारित भी किया और धीरे-धीरे भारतीय जनमानस ने यह मान लिया कि कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार एवं उसका पलायन कश्मीर की राजनीतिक समस्या की ही देन थी जबकि वास्तविकता में यह हिंदुओं के विरुद्ध किया गया एक विशुद्ध इस्लामिक जिहाद था।

बॉलीवुड का शर्मनाक चरित्र –

पंडितों के साथ हुई बर्बरता एवं उनके नरसंहार के विषय से मुंह चुराने वाले केवल राजनीतिक दल ही नहीं थे इसके अतिरिक्त मानव अधिकारों का ढिंढोरा पीटने वाले तमाम संस्थान एवं भारतीय लोकतंत्र में न्याय की अवधारणा को मजबूती से स्थापित करने का दंभ भरने वाली न्यायपालिका भी पंडितों के नरसंहार को लेकर उनकी उपेक्षा ही करती रही।

Watch: Trailer of Vivek Agnihotri's The Kashmir Files, starring Anupam Kher, Mithun Chakraborty-Entertainment News , Firstpost

हालांकि इस संदर्भ में विडंबना तो यह रही कि माफियाओं और अपराधियों पर दर्जनों फिल्में बनाने वाला रीढ़हीन बॉलीवुड भी इस नरसंहार पर आज तक कश्मीरी पंडितों की आवाज नहीं बन सका। इस हृदय विदारक घटना पर बॉलीवुड की चीर निद्रा तो तब टूटी जब विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीर फाइल्स बनाने की घोषणा की। हालांकि अग्निहोत्री की फिल्म की घोषणा होने के तुरंत बाद बॉलीवुड का जिहादी एवं वामपंथी समूह हरकत में आया और आनन-फानन में ही उसने शिकारा जैसी वामपंथी अवधारणा को बल देती फिल्म ‘शिकारा’ बनाने का निर्णय लिया।

वामपंथी वर्ग की अवधारणा को बल देती 2020 में रिलीज़ हुई यह फ़िल्म दरअसल हिन्दू कश्मीरी पंडितों के साथ किया हुआ एक भद्दा मजाक ही साबित हुई। हालांकि देश में हुई हर छोटी मोटी घटना पर धर्म विशेष की भूमिका को देखकर विलाप करने वाले बॉलीवुड के बिके हुए तथाकथित पुरोधाओं से इससे ज्यादा अपेक्षा रखना भी बेमानी ही है।

राजनीतिक दलों, मानव अधिकार संस्थानों एवं फिल्म जगत के उपेक्षा का शिकार हुए कश्मीरी पंडित समुदाय को अब विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल से बेहद उम्मीदें हैं। दरअसल ‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ एवं ‘द ताशकेंट फाइल’ जैसी बेहतरीन फिल्मों का निर्देशन कर चुके विवेक अग्निहोत्री ने इस फिल्म के माध्यम से कश्मीरी पंडितों के नरसंहार एवं उनकी पीड़ा को बिना किसी लाग लपेट के बिल्कुल वैसे ही रुपहले पर्दे पर उकेरा है जैसा बहुत पहले हो जाना चाहिए था।

इस फिल्म में कट्टरपंथियों के जिहाद के शिकार हुए कश्मीरी पंडित समुदाय कि नरसंहार को चित्रित करने के अतिरिक्त अग्निहोत्री ने उस वामपंथी विचारधारा की जड़ों की भी सघनता से पड़ताल की है, जिसने पिछले तीन दशकों से भारतीय जनमानस में यह भ्रम बनाए रखा कि कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ नरसंहार एक राजनीतिक समस्या थी। यही कारण है कि फिल्म के प्रीमियर को देखने के उपरांत कश्मीरी पंडित समुदाय अपनी भावनाओं को रोक नहीं सका और सिनेमा घर में ही कई लोग फूट-फूटकर रोते दिखाई पड़े

दरअसल 1990 में घाटी के पंडित समुदाय के सामने केवल दो ही विकल्प थे या तो वे अपना धर्म बदल कर उस भीड़ का हिस्सा बन जाते जो कश्मीर में निजाम ए मुस्तफा लाना चाहता था अथवा अपनी ही आंखों के सामने वे अपनी बेटियों की चित्कार पर आंखें मूंद लेते, पंडित समुदाय ने विस्थापन को चुना और अपनी मातृभूमि से भीगी आंखों से यह सोचकर विदा ली कि एक दिन अपने पूर्वजों की भूमि पर वे फिर लौटेंगे हालांकि 3 दशक बीत जाने के उपरांत भी पंडित समुदाय नम आंखों से उसी एक दिन की प्रतीक्षा कर रहा है। यह फिल्म रुपहले पर्दे पर पंडित समुदाय के उसी प्रतीक्षा को प्रतिबिंबित करते नजर आ रही है। अग्निहोत्री का मानना है कि भारतीय युवा वर्ग को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए ताकि फिर किसी हिंदू को इस देश में विस्थापन ना झेलना पड़े।

सौजन्य – The Narrative