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अज्ञात देशभक्त मधुसूदन राय दीक्षित

आज जब स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं तो यह स्वाभाविक है कि हम स्वतंत्रता के बाद की अपनी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें ।

स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने वाले सेनानियों ने देश के बारे में क्या क्या सपने देखे थे ,यह जानने समझने के बाद विचार करना होगा कि हम उनके सपने को कहां तक पूरा कर पाए हैं और अभी क्या काम शेष है। भारतीय स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमें आत्म विश्लेषण करने के साथ-साथ भविष्य के लिए भी नए सपने संजोने है।इसके साथ हमें उन शहीदों का स्मरण भी करना है जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया ।संयोग से ऐसे अज्ञात देशभक्त मधुसूदन राय दीक्षित की आज पुण्यतिथि है।

रीवा व आसपास के क्षेत्रों में कई ऐसे वीर है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर योगदान दिया। जिन पर क्षेत्रवासियों को अपने इतिहास पर गर्व है।

बघेलखंड विंध्य प्रदेश के स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों में जहां ठाकुर रणमत सिंह, पद्मधर सिंह एवं श्याम शाह का नाम आदर के साथ लिया जाता है, वही पंडित मधुसूदन राय दीक्षित जी भी कम नहीं ठहरते। श्री दीक्षित जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और जीवन पर्यंत देशहित खातिर संघर्ष करते रहे।

मधुसूदन राय दीक्षित जी का जन्म डभौरा के ब्राह्मण जमींदार पंडित अतिबल राय दीक्षित जी के यहां 12 जनवरी 1882 में हुआ। जब बालक मधुसूदन की आयु 5-6 वर्ष की थी, तब इनके पिता अतिबल राय दीक्षित जी का देहांत हो गया ऐसी परिस्थिति में डभौरा की जमींदारी का कार्यभार बालक मधुसूदन राय जी की माता मलकिन दाई दीक्षित जी ने संभाला एवं अपने कुशल नेतृत्व के जरिए डभौरा जागीर को अंग्रेजों से 15 वर्षों तक सुरक्षित रखा। समय बीतने के साथ मधुसूदन प्रसाद जी 21 वर्ष के हो चुके थे। उस समय रीवा के तत्कालीन महाराजा श्री वेंकटरमन रामानुजन सिंह जूदेव बहादुर जी ने सन् 1903 में डभौरा की जमींदारी पंडित मधुसूदन राय दीक्षित जी को प्रदान की। जिसमें शुरुआत के कुछ वर्षों तक इनकी सहायता चाचा सुरपत राय दीक्षित जी ने की।

देश के प्रति मधुसूदन प्रसाद जी के मन में अटूट प्रेम था, जिस कारण से इन्होंने बचपन में ही मां भारती को ब्रिटिश सत्ता से आजादी दिलाने का संकल्प ले लिया था। ये तलवारबाजी और निशानेबाजी में निपुण होने के साथ-साथ अंग्रेजी एवं उर्दू के प्रखर विद्वान भी थे। दादा अपने साथ सदैव लाइसेंसी जर्मन राइफल एवं एक जर्मन रिवाल्वर रखते थे। इनका निशाना अचूक था।

पंडित मधुसूदन राय दीक्षित ऐसे महान राष्ट्रभक्त का नाम है। जिन्होंने राष्ट्र की अस्मिता व स्वतंत्रता के लिए अपनी सारी सुख सुविधाओं को न्योछावर कर दिया। कद में लंबे चौड़े बलिष्ठ, अजान बाहु, शेर सी शख्सियत मुख पर तेज ब्राह्मण होने का अभिमान कांधे पर जनेऊ धारण करने वाले मधुसूदन राय दीक्षित के नाम मात्र से ही अंग्रेजी सरकार के पसीने छूट जाते थे। ये निर्भीक होकर क्रांतिकारिक गतिविधियों को क्रियान्वित करते थे।

राय मधुसूदन अपनी डभौरा की गढ़ी में क्रांतिकारियों का संगठन तैयार करने लगे,जिनमें प्रमुख रूप से इटमा के जमींदार पंडित विंन्धेश्वरी प्रसाद पांडे, बैकुंठपुर के काश्तकार ठाकुर नर्मदा प्रसाद सिंह ‘हारोल’, सिरमौर के बैकुंठ प्रसाद पांडेय और हनुमान प्रसाद पांडे ‘स्वराजी’ ,गेदुरहा के ठाकुर विक्रमादित्य सिंह, राजा साहब (बारा) शंकरगढ़ एवं अन्य क्रांतिकारी शामिल थे।

रेवांचल में मधुसूदन राय दीक्षित जी की अध्यक्षता में भारतीय स्वतंत्रता के लिए सुधारवादी और क्रांतिकारी योजनाएं बनाई जा रही थी। पंडित मधुसूदन राय दीक्षित जी अपनी गढ़ी में अंग्रेजों के विरुद्ध तरह-तरह की रणनीति तैयार करते। धीरे-धीरे अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर डभौरा एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में अंग्रेजी सिपाहियों पर लगातार हमले कर उन्हें वहां से खदेड़ने लगे, डभौरा से अंग्रेजों द्वारा गुजरने वाली ट्रेनों को भी लगातार नुकसान पहुंचाने लगे एवं मानिकपुर में स्थित अंग्रेजों की छावनी पर धावा बोल दिया।

ब्रिटिश सरकार द्वारा अंग्रेजी सिपाहियों की कुछ टुकड़ी डभौरा इन्हें गिरफ्तार करने के लिए भेजी गई, रात्रि अत्यधिक होने के कारण अंग्रेजों का यह शैन्य दल डभौरा के समीप मुड़कटा नामक स्थान पर विश्राम करने के लिए पड़ाव डाला। जिसकी सूचना गुप्तचर के माध्यम से मधुसूदन प्रसाद जी को पहले ही मालूम हो गई थी।

मधुसूदन राय दीक्षित जी ने बिना देर किए रात्रि के समय में ही अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के सैन्य दल पर धावा बोल दिया। अचानक हुए इस प्राणघातक हमले ने अंग्रेजों को संभालने तक का मौका नहीं दिया इस हमले में बहुत से अंग्रेजी सिपाही मारे गए एवं जो बचे वे अपने प्राण बचाकर भाग खड़े हुए। इस हमले के बाद उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों में से बैकुंठपुर के ठाकुर नर्मदा प्रसाद सिंह ‘हारोन’ को इलाहाबाद में भैया सिंह जी के मकान में शरण दिलवाई एवं स्वयं डभौरा से लगभग 30 किलोमीटर दूर जवा के निकट गढ़वा गांव में श्री पंचोली जी के घर पर शरण ली, जिसकी जानकारी अंग्रेजों को लग गई जहां से उन्हें गिरफ्तार कर लगातार क्रांतिकारिक गतिविधियों में शामिल होने के कारण सन् 1926 रीवा केंद्रीय जेल में नजर कैद कर दिया गया।

रीवा नरेश महाराजा गुलाब सिंह जी ने उनके बेटे बलवंत राय दीक्षित जी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के लिए भेजा जहां पर उनकी पढ़ाई का खर्चा स्वयं महाराजा गुलाब सिंह जी दिया करते थे। 6 वर्ष पश्चात सन् 1932 अपने इंग्लैंड यात्रा में जाने से पहले महाराजा गुलाब सिंह जी ने पंडित मधुसूदन राय दीक्षित जी को नजर कैद की सजा से मुक्त कर दिया। विंध्य प्रदेश के रेवांचल की क्रांति में इनका नाम आज भी अनन्यतम सम्मानित और लोकप्रिय क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है। उस समय के अन्य क्रांतिकारियों को इन्हीं ने प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया।

इनकी बहादुरी एवं वीरता के कारण रीवा नरेश महाराजा गुलाब सिंह जी इन्हें ठाकुर की पदवी प्रदान की थी । तब से लोग इन्हें सम्मान पूर्वक ठाकुर दादा कहकर बुलाने लगे थे। दादा मधुसूदन राय जी का परिचय उस समय देश के बड़े-बड़े नेताओं एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों से रहा प्रयाग में अभ्युदय के पंडित कृष्णकांत मालवीय, राजा साहब (बारा) शंकरगढ़, यमुना प्रसाद शास्त्री जी, पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी, भारत रत्न बनारस के डॉक्टर भगवान दास, देवकीनंदन खत्री इनके घनिष्ठ मित्रों में से थे।

1947 आजादी के बाद श्री मधुसूदन प्रसाद जी को विभिन्न सभाओं में सम्मानित करने के लिए बुलाया गया। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी द्वारा इन्हें 15 अगस्त 1972 को दिल्ली में ताम्रपत्र भेंट करने और सम्मानित करने के लिए बुलाया गया।

दादा मधुसूदन राय दीक्षित जी की मृत्यु 10 अगस्त 1975 को 92 वर्ष की आयु में हुई। इनका नाम आज भी रीवा केंद्रीय जेल में संगमरमर की दीवार पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में लिखा हुआ है। विंध्य प्रदेश में भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में इनका नाम हमेशा के लिए अजर अमर हो गया। धन्य है यह विंध्य प्रदेश की धरती जहां ऐसे महान राष्ट्र भक्त का जन्म हुआ।

लेख़क:- धर्मेंद्र पांडेय
संपर्क सूत्र:-  9425470169