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इन लोगों के लिए मणिपुर तो बहाना हैं…

मणिपुर पर सोशल मीडिया में उठा तूफान शांत हुआ सा लग रहा है. पिछले 5 दिनों में इस घटना ने देश में बवंडर सा खड़ा कर दिया था. 4 मई को हुए अत्यंत बिभत्स और दुर्भाग्यपूर्ण घटना का वीडियो 19 जुलाई को, संसद का अधिवेशन प्रारंभ होने की पूर्व संध्या पर रिलीज होता है. इस शर्मनाक घटना का आधार लेकर मणिपुर के मुख्यमंत्री से लेकर तो मोदी और फिर संघ पर आक्रमण होने लगते हैं. 22 जुलाई तक सारे वामपंथी और लेफ्ट लिबरर्स यह आभास फैला देते हैं की मणिपुर की शर्मनाक घटना को संघ के स्वयंसेवकों ने अंजाम दिया है. कहीं से मणिपुर के दो संघ स्वयंसेवकों का गणवेश में फोटो जारी होता हैं और पूरे देश में, सभी भाषाओं में, यह लेफ्ट लिबरर हल्ला मचाते हैं की संघ के इन दो कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में मणिपुर की बार्बरिक घटना हुई हैं.

सुभाषिनी अली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं. कानपुर से सांसद रह चुकी है. ये संघ के उन दो स्वयंसेवकों के फोटो को ट्वीट करके लिखती हैं, “यह मणिपुर के आरोपित है. इन्हें कपड़ों से पहचानो.”

कौन हैं ये दो स्वयंसेवक, जिनका फ़ोटो इन वामपंथीयों ने, उनकी पूरी इको सिस्टम ने, पूरे देश में वाइरल किया ?

इनमें से एक है, भाजपा, मणिपुर के प्रदेश उपाध्यक्ष चिदानंद सिंह और साथ में है उनका बेटा. इन दोनों का इस घटना से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. घटना के समय, दोनों कहीं और थे. इन्होंने जब ऐसा झूठा ट्वीट करने पर कारवाई करने की बात कही, तो सुभाषिनी अली ने अपने ट्विटर पर लिख दिया, ‘This is incorrect. Sincere apologies.’

संघ पर झूठे आरोप करके, विरोध का बवंडर खड़ा करके, इन दो प्रतिष्ठित पिता – पुत्र को बदनाम कर के, कानूनी कार्यवाही के डर से मात्र Sincere apologies लिखना पर्याप्त है?

इन मार्क्सवादियों का, वामपंथीयों का, लेफ्ट लिबरर्स का यह खेल नया नहीं है. ये सब लोग हमेशा इसी प्रकार का खेल खेलते आए हैं. अभी याद आया इसलिए एक पिछला एक अनुभव बताता हूं –

याद कीजिए, तीन वर्ष पहले का कोरोना (कोविड) का दौर. अभूतपूर्व तालाबंदी. सारे व्यवहार ठप्प हैं. रेल्वे और हवाई सेवा भी बंद. उस पर से मई की चिलचिलाती धूप में, लाखों श्रमिक महानगरों से, अपने – अपने घरों की ओर, पैदल ही सड़कों पर निकल पड़े हैं. लेकिन इस विषम परिस्थिति में भी कही कोई असंतोष नहीं हैं. सिस्टम के विरोध में कोई नहीं बोल रहा हैं. उल्टे, पुलिस की जो खौफनाक प्रतिमा हम सब के मन मश्तीष्क में भरी गई थी, वह टूट कर चूर – चूर हो गई हैं. पुलिस प्रशासन सामान्य जनता का सबसे बड़ा मददगार साबित हो रहा हैं. लोग, दिन – रात ड्यूटी पर लगे पुलिस सिपाहियों को चाय – पानी – बिस्किट वगैरा पुछ रहे हैं. पुलिस भी मनों भाव से लोगों की सेवा में लगी हुई हैं. याद कीजिए वह चित्र, जो सबसे ज्यादा वाइरल हुआ था, जिसमे एक पुलिस सिपाही, घर जाते हुए श्रमिक के पांव के छालों को मरहम लगा रहा हैं.

बस. यही से लेफ्ट इको सिस्टम का खेल शुरू हुआ. पुलिस प्रशासन और सामान्य जनता के बीच इतने मधुर संबंध..? ये कैसे चलेगा ? पुलिस तो खलनायक के रूप में ही दिखना चाहिए.

और इस लेफ्ट इको सिस्टम को कारण मिलता हैं, अमेरिका में. २५ मई, 2020 को, अमेरिका के मिनेसोटा प्रांत के, मिनियापोलिस शहर मे, एक अश्वेत नागरिक, जॉर्ज फ़्लोयड की, श्वेत पुलिस अधिकारी, डेरेक चौविन द्वारा गर्दन दबाने से मौत होती हैं. इसके विरोध में अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यह आंदोलन चल पड़ता हैं. अब इस आंदोलन का भला भारत से क्या संबंध ?

वामपंथियों की टोली इसका संबंध जोड़ती हैं, भारत की व्यवस्था से. ये लोग भारतीयों को पुलिस प्रशासन के विरोध में खड़ा करने पर पूरा जोर लगाते हैं.

इसकी शुरुआत होती हैं, जॉर्ज फ़्लोयड की मृत्यु के एक सप्ताह के अंदर. १ जून को The Wire में एक बड़ा आलेख छपता हैं – ‘Why Indians don’t come out on the streets against regular police brutality ?’
(कोरोना के उस दौर में कौन सी पुलिस निर्ममता इस देश में हो रही थी..?)

३ जून को Scroll.in में रुचिका जोशी का एक बड़ा सा लेख छपता हैं – In US Protests, lessons for Indians, who believe in the possibilities of collective resistance.’ इस आलेख में रुचिका जी ने CAA के विरोध में रास्ते पर उतरे प्रदर्शनकारियों की याद दिलाई हैं. वे आगे लिखती हैं – ‘There is a notable semblance in the repression facing Muslims in a Hindu majority India, with that experience by Black people in predominantly white US.’ (जैसे गोरों के बाहुल्य वाले अमेरिका में अश्वेत लोगों की अवस्था हैं, उसी प्रकार हिन्दू बहुल भारत मे, मुसलमानों की हैं.)

फिर ५ जून को फ़ॉरेन पॉलिसी डॉट कॉम (हम में से अनेकों ने इसका नाम नहीं सुना होगा. किन्तु विभिन्न देशों के विदेश सेवा के अधिकारियों में यह पढ़ा जाता हैं) में प्रकाश कुमार का लेख छपता हैं –
‘Indians are supporting George Floyd and ignoring Police brutality in their own country.’
इसमे ये क्या लिखते हैं, यह देखना आवश्यक हैं –
“US protests also raise an uncomfortable question in world’s largest democracy : Why are there no mass demonstrations over the frequent cases of police brutality in India?”
(किसी एक Common Cause नाम के NGO के सर्वे का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं -) “50% Police in India feel that Muslims are prone to community crime.”

अब ८ जून को अरुंधति रॉय भी इस नरेटिव तयार करने के अभियान में कूद पड़ती हैं. ‘दलित कैमरा’ नाम के, विदेशों के वामपंथी सर्कल में लोकप्रिय पोर्टल को दिये हुए साक्षात्कार में वे कहती हैं –
“Indian racism towards black people is almost worst than white people’s racism.” इस पूरे साक्षात्कार में ये मोहतरमा, ‘दलित और मुस्लिमों के प्रति, हिन्दू कैसा घृणा का भाव रखते हैं’, यह बताती हैं. भारत में #DalitLivesMatter की आवश्यकता के बारे में भी बात करती हैं. मूर्तियों को विद्रुप करने के बारे में वे कहती हैं, “गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में ब्लैक अफ्रीकन के विरोध में नस्लवादी टिप्पणी की थी, इसलिए उनकी प्रतिमा (मूर्ति) को विद्रुप किया गया.”

तुरंत ९ जून को, The Wire में दिव्या चेरियन का लंबा सा आलेख आता हैं – ‘Seeing India through Black Lives Matter Protests’. इसमे वे लिखती हैं – “There are parallels with India : The Police failure to respect constitutional and legal rights (of minorities) and ‘a national leader’, who is hostile to minorities and dissidents.’

१७ जून को The Diplomat में सुरभि सिंह के आलेख का शीर्षक हैं – ‘Black Lives Matter should be a wake-up call for India’. इसमे वे ज़ोर देकर कहती हैं, की भारत में मुस्लिमों के साथ भेदभाव हो रहा हैं. वे लिखती हैं – “Religious minorities, and Muslims in particular, became the target of slurs like ‘terrorists’, ‘jihadi’ and ‘Pakistani’. And those, who came out in support of minorities were branded as ‘anti nationals’. Attack on them, some even leading to killings, started to become a regular item in the news.”

अभी २१ जून को, The Print के हिन्दी संस्करण में, कांचा इलैया शेफर्ड का आलेख आता हैं, जो बड़े स्पष्ट शब्दों में वामपंथियों की मंशा बयान करता हैं. इस लेख का शीर्षक हैं, “भारत में जाती विरोधी आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए ‘ब्लैक लाइव मैटर’ जैसी आग चाहिए, तभी वह मुख्य विलेन से लड़ पाएगा.“ (इनका मुख्य विलेन हैं, पुलिस प्रशासन).

इन सब को क्रोनोलोजीकल ऑर्डर से (कालानुक्रम के अनुसार) पढ़ने पर क्या चित्र सामने आता हैं..? Wire, Scroll, Print जैसे तमाम वामपंथी प्रसार माध्यम इस देश में अराजकता फैलाना चाहते हैं. भारतीय पुलिस के तथाकथित बर्बरता का विकृत चित्र सारे विश्व के सामने रखते हैं. इस कोरोना के तीन महीने की कालावधी में, भारतीय पुलिस का जो मानवीय, दयालु, और सकारात्मक चेहरा सामने आया हैं, उसे ये लोग तार तार करना चाहते हैं. ‘इको’ का एक और अर्थ होता हैं – प्रतिध्वनि. ये सारे वामपंथी लेखक, दुनिया के अलग – अलग मंचों से झूठ का पुलिंदा लेकर एक के बाद एक, चिल्ला रहे हैं, मानो प्रतिध्वनि प्रकट हो रहा हैं. उन्हे लगता हैं, इस प्रतिध्वनि के शोर से झूठ, सच में बदल जाएगा.

पर इस बदले हुए भारत में अब ऐसा होगा नहीं. सुभाषिनी अली जी को भी यही समझ में आया होगा..!