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ईश्वर भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार जरूरी है

संत रविदास का जन्म काशी के निकट मडुआडीह में निवास करने वाले (रघु राघव व माता कर्मा देवी) के यहाँ रविवार माघ पूर्णिमा को हुआ। इनके जन्म के बारे में एक दोहा रविदास सम्प्रदाय में प्रचलित है –

“चैदह सौ तैतीस की माघ सुदी पद राम
दुःखियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रविदास”

रविदास के यहां चमड़े का पैतृक व्यवसाय था। मरे हुये पशुओं के चमड़े से जूते बनाने का कार्य था। भगवत भक्ति का बीज वह जन्म से ही लेकर पैदा हुये थे। अपनी 12 वर्ष की आयु में ही रविदास सीताराम की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा किया करते थे।

संत रविदास ने जीवन का समूचा ज्ञान गुरू कृपा, सत्संग, पर्यटन, साधना के द्वारा अंतरज्ञान व साधु-संतो के सानिध्य से ही प्राप्त किया। बैरागी स्वभाव को देखते हुये माता-पिता ने मिर्जापुर के मानदास व सोमादेवी की पुत्री भगवती लोना के साथ विवाह कर दिया। परन्तु विवाह हो जाने के बाद भी इनकी धार्मिक रूचि में कोई कमी नहीं आई। वे संतो-महात्माओं की संगति करने लगे। धर्म चर्चा में वह तल्लीन हो जाया करते थे। चमार जाति के होने के चलते एक अपमान की घटना ने उन्हें इतना झकझोर दिया कि मैं कौन हूँ, यह जानने का सनातन विचार उनके मन में दृढ़ता से बैठ गया। खोज में मिले उनके गुरू संदल स्वामी ने कहा- बेटा! जिस दिन तुम स्वयं का जान जाओगे उस दिन ईश्वर को भी जान जाओगे, जिसने तुम्हें बनाया है। इसके बाद वह प्रत्येक छोटे-बड़े जीव में भगवान के दर्शन करने लगे।

उन्हीं दिनों काशी के पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानन्द नाम से प्रसिद्ध संत निवास करते थे। उनकी ख्याति पूरे भारत में फैली हुई थी। उनसे कुछ दिनों में ही सत्संग के बाद रविदास के मन में उनका शिष्य बनने की उत्कट इच्छा जागी।

स्वामी रामानन्द ने भी बिना जाति-पाँति का विचार किये यह कहते हुये कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रभु की भक्ति करने का अधिकार है, रैदास को मंत्र दीक्षा दी। स्वामी रामानन्द ने उन्हें श्री राम का भजन करने का उपदेश दिया। धीरे-धीरे रविदास लोकभाषा में प्रवचन करने लगे। यद्यपि वह जूते बनाने का व्यवसाय करते थे, पर उसमें उनकी कोई रूचि नहीं थी। वे कहते थे- हड बनजारो राम को, सहज करू व्यापार। आगे ये भी कहते हैं- मैं अपना मन हरि से जोरयों। हरि से जोर सबन से तोरयों।। वह श्रम के सच्चे पुजारी थे –

“रविदास श्रम कर खाई ही, जब लौ पार बसाय।
नेक कमाऊ जऊ करई, कबहुन लिष्फल पाय।।”

रविदास साधू- महात्माओं को कम दाम में भी जूते बेच दिया करते थे। कभी-कभी तो ऐसे लोगो को वह बिना पैसे लिये ही जूते पहना देते थे। एक दिन पिता जी की आज्ञा से वह दो जोड़ी जूते लेकर बाजार बेचने पहुंचे। वहाँ पर उनकी दृष्टि ऐसे दो साधुओं पर पड़ी जिनके धूप के कारण पैर जल रहे थे। उन्हें आग्रह कर उन्होंने वे जूते पहना दिये। पिता जी के पूछने पर गुरू नानक देव की तरह कहा’ पिताजी! ‘आज हमने सच्चा सौदा किया है।’ माता-पिता ने उन्हें कई बार समझाया कि किसी भी साधु-महात्मा को बिना दाम या सस्ते दामों में जूते मत दिया करो। पर रविदास पर इसका कोई असर नहीं हुआ। अंत में पिता ने रविदास को अपने पैतृक घर से बाहर निकाल दिया। वगैर कोई हिस्सा दिये पारिवारिक घर के पीछे की जमीन का कुछ हिस्सा रहने और काम-धंधे के लिये दे दिया। अपनी पत्नी के साथ वहां रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपना व्यवसाय और सत्संग दोनो ही करने लगे। धीरे-धीरे लोग उन्हें बड़ा संत मानने लगे। कबीर ने उन्हें ‘साधुओं’ में ‘संत’ कहा है।

पण्डितों ने काशीनरेश हरदेव सिंह नागर को रविदास की शिकायत की कि वह शूद्र होने पर भी धर्म उपदेश कर रहा है। राजा ने पण्डितों और रविदास को बुला कर कहा कल गंगा जी में जिसके भगवान तैरेंगे, वही भक्त श्रेष्ठ माना जायेगा। पूजा का हकदार होगा, और उसे पालकी में बैठाकर नगर में घुमाया जायेगा।

पहले पण्डितों ने देव प्रतिमाओं को गंगा जल में छोड़ा जो डूब गईं, उसके बाद रविदास ने जूते बनाने वाले परम्परागत पत्थर पर सोहम् लिखकर जल में छोड़ा तो वह तैरने लगा। रविदास की जय-जयकार हुई। उन्हें राजा द्वारा ससम्मान नगर में घुमाया गया। भगवान की कृपा से अपमान के लिये किया गया कृत्य परम सम्मान में बदल गया।

एक अन्य कथा के अनुसार ब्राम्हणों के कहने से काशी नरेश ने रविदास को आमंत्रित किया और पण्डितों से शास्त्रार्थ करने को कहा। शास्त्रार्थ में दोनो पक्षों में किसी की हार-जीत नहीं हुई। इस पर ब्राम्हणों ने राजा के सामने प्रस्ताव रखते हुये कहा- महाराज! एक सिंहासन रखा जाये और उसके ऊपर भगवान की प्रतिमा। आहवान करने पर प्रतिमा जिसकी गोद में आकर विराज जायेगी, वह विजयी माना जायेगा। राजा ने अपनी ओर से एक शर्त और जोड़ते हुये कहा- जो पराजित होगा वो विजेता को सिंहासन पर बैठाकर, स्वयं लादकर भ्रमण करायेगा। शर्त के अनुसार पहले पण्डितों ने मूर्ति का आहवान किया तो अपने स्थान से हिली तक नहीं। रविदास के आहवान करने पर प्रतिमा सिंहासन से उठकर रविदार की गोदी में विराजमान हो गई, जिसे देख सभी नतमस्तक हो गये।

एक दिन एक साधु ने आकर रविदास से कहा मैने अपनी आधी जिंदगी की तपस्या से पारस पत्थर पाप्त किया है, इसे लेकर तुम अपनी गरीबी दूर कर लो और संतो की सेवा में खूब धन खर्च करो। मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ। वापस आकर तुमसे ले लूँगा। साधु वह पत्थर उनकी छप्पर में रखकर चले गये। तेरह वर्ष बाद आकर उन्होंने देखा कि वह कीमती पत्थर जहाँ का तहाँ रखा हैं। कहते हैं, उस संत पर जब रविदास की दृष्टि पड़ी तो उस जगह भगवान कृष्ण खड़े थे। भगवान ने उन से कहा कि- ‘‘मैंने ही तुम्हारी परीक्षा ली थी और देख लिया कि तुम पूरी तरह अपरिग्रही और निस्पृही हो।’’

एक बार पयागराज में माघ मास में गंगा नहाने जाने वाला ब्राम्हण टोली को रविदास ने ‘गंगा जी’ को भेंट करने के लिये एक दमड़ी यह कहकर दी कि यदि गंगा जी हाथ उठाकर ले तो दे देना और नहीं तो वापस ले आना। गंगा घाट पर पहुंचकर पण्डितों ने रविदास का नाम लेकर जब भेंट दी तो गंगा मैया में एक हाथ निकला, जिसमें एक अमूल्य कंगन रखा था। गंगा मां ने भेंट प्राप्त कर कंगन उन्होने दे दिया। पर अमूल्य दिव्य कंगन देखकर पण्डितों की नियत खराब हो गई और पुरस्कार की चाह में सीधे काशी नरेश को वह कंगन दे दिया। जब रानी ने वैसा ही दूसरा कंगन मांगा तो असलियत बताई और रैदास से इस संकट से मुक्ति का निवेदन किया। भक्तराज रैदास ने गंगा माँ से प्रार्थना की तो कठौती के पानी में से वैसा ही दूसरा कंगन निकल आया जो राजा को दे दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी ‘पंडितो मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ इस चमत्कार से वहाँ के ब्राम्हणों एवं राजा ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।

एक बार कुछ साधुओं ने रविदास से पूछा कि सन्यास ठीक या गृहस्थाश्रम। दूसरे दिन रविदास उन साधुओं के साथ भोजन करने बैठे और रात को बनी ठण्डी खीर सभी को परोसी गई। रविदास ने अपनी पत्नी लोना से कहा खीर बहुत गर्म है, इसे ठण्डा करने के लिये पंखा दे जाओ। सहधर्मिणी चुपचाप पंखा देकर अपने काम में लग गई। रविदास ने उन साधुओं से कहा कि ऐसी आज्ञाकारी पत्नी हो तो गृहस्थाश्रम अच्छा है, अन्यथा।

रविदास भजन गा-गाकर अद्वैव ब्रह्म का प्रचार करते थे। वह ऐसे समाज की कल्पना करते थे जहाँ कोई उँच-नीच और भेदभाव न हो।

‘‘ऐसे चाहो राज में, जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोटे-बड़े सब सम बसै, रविदास रहै प्रसन्न।।’’

उन्होंने वर्ण व्यवस्था में सुधार का भरपूर प्रयत्न किया। जहाँ दुर्गुणों को लेकर उच्च वर्ग को लताड़ा, वही शूद्रो की प्रशंसा की जिनसे उनका मनोबल ऊँचा उठा।

सदना पीर से जब रविदास की भेंट हुई तो उन्होंने सदना को हिन्दू धर्म की प्राचीन संस्कृति से अवगत कराते हुये सम्प्रदाय विशेष के थोंथेसिद्धान्तो से अवगत कराया। सदना पीर के कहने पर सिकंदर लोदी ने इसलिये रविदास को बंदीगृह में डाल दिया कि वह मांसाहार व जीव हत्या का विरोधकर हिन्दुओं को भड़का रहे हैं। संत का अपमान करने के लिये रविदास को सिकंदर लोदी ने अपने दरबार में बुलवाया और अपना धर्म स्वीकार करने का प्रलोभन देने लगा। तब रविदास ने यो उत्तर दिया –

मैं नहिं दब्बू बाल गंवारा। गंग त्याग गहूँ ताल किनारा।।
प्राण तजौ पर धर्म ने देऊँ। तुमसे शाह सत्य कहिं देऊँ।।
चोटी शिखा कबहूँ नहिं त्यागूँ। वस्त्र समेत देह भल त्यागूँ।।
कंठ कृपाण को करौ प्रहारा। चाहे डुबाबो सिंध मंझारा।।

जब सिंकदर लोधी धर्म परिवर्तन करने में भी सफल नहीं हुआ तो संत रविदास को पुनः बंदीगृह में डाल दिया। इधर सिंकदर लोधी जब नमाज पढ़ रहा था तो प्रत्येक नमाजी के बीच रविदार नजर आने लगे। पढ़े गये कलमा की जगह उसे बेद मंत्र सुनाई देने लगे। हैरान सिंकदर ने रविदास से अपने कृत्य के लिये क्षमा मांगी और ससम्मान बंदीगृह से रिहा कर दिया। उनके प्रभाव के चलते सदना पीर रामदास नाम रखकर हिंदू बन गया। चित्तौड़ के ही महाराणा उदय सिंह की पत्नी रानी झाला भी शिष्या बन गई।

रविदास जी ने कबीर की पुत्री कमाली व चित्तौड़ की रानी मीराबाई को शिष्या बनाया। मीराबाई स्वत कहती हैं- ‘गुरू मिलिया रैदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’ कबीरदास जी! रविदास के बड़े गुरू भाई थे। कहते तो ये भी हैं कि गुरू गोरखनाथ से भी रविदास का सत्संग हुआ। उनकी भेंट गुरू नानकदेव से भी हुई तभी तो गुरू नानकदेव ने संत रविदास का नाम अपने पदों में   श्रद्धापूर्वक लिया। कुछ विद्वानों का मत है कि उनका निर्वाण सम्वत 1584 में चित्तौड़ (राजस्थान)  हुआ।

मीराबाई द्वारा बनवाई रविदास की छतरी इसका प्रमाण है। एक दूसरे मत के अनुसार अपनी मृत्यु से 21 दिन पूर्व ही सूचना कर सन् 1527 में सफेद चादर ओढ़कर काशी में लेट गये। कहा जाता है कुछ देर बाद देखा तो वहाँ कुछ फूल पड़े थे। उनके उपदेशों की 41 वाणियाँ गुरू ग्रंथ साहब में संकलित की गई है। भक्त रविदास के सम्बन्ध में हरिराम व्यास ने अपनी वाणी में लिखा है- एक भक्त रैदास पर वारौं ब्राह्मन कोटि।

लेखक:- वीरेन्द्र सिंह परिहार