Trending Now

क्रमशः अत्यधिक प्रदूषित होती जा रहीं नदियाँ- डाॅ. किशन कछवाहा

जल ही जीवन है, ऐसा तो हम बार-बार कह लेते हैं, लेकिन इस विषय में हमारी गंभीरता व्यवहारिक रूप में दृष्टिगोचर नहीं होतीं। जल बचाने के लिये क्या हम कुछ करते हैं? पानी की समस्या एक बड़ी चुनौती है। एक समय था जब नदियाँ, तालाब, बावड़ियाँ और कुयें ही हमारे मुख्य जलस्त्रोत थे, उनका रखरखाव भी जनता के द्वारा ही होता था। जब से पानी का जिम्मा सरकार ने सम्हाला है, तब से हम अपनी जिम्मेदारी को भुला बैठे और राज्याश्रित हो गये।

जल के सभी घटक समुद्र, नदी, तालाब आदि अत्यधिक प्रदूषित हो गये हैं, फिर जीवन के लिये आवश्यक घटक जल जो हमारे लिये ही नहीं, वरन् वनस्पतियों एवं प्राणियों के लिये भी आवश्यक है, तब भी एक-एक बूँद के लिये संरक्षण करना क्यों नहीं चाहेंगे? आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ‘जल संरक्षण आन्दोलन’’  के जरिये स्वयं चेतेंगे और दूसरों को भी चेतायेंगे।

तरह-तरह के प्रदूषण- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण – ये सब सेहत के लिये अत्यधिक नुकसान दायक हैं। मोबाईल तकनीक के कारण रेडियेशन – यह तो पशु- पक्षियों और फसलों तक के लिये नुकसान दायक हैं। नदी, जंगल, समुद्र आदि मानव की लोभ- लालसा से, अत्यधिक दोहन के परिणाम स्वरूप हानिकारक बन चुके हैं।

नदियों से हमारे सम्बन्ध | Hindi Water Portal

 

अब यह जान लेना, समझ लेना भी अत्यधिक आवश्यक है कि प्रदूषण जनित बीमारियों का खर्च भी बहुत अधिक है। आँकड़े भयावह हैं। पाँच हजार साल पहले भारत के मनीषियों ने पर्यावरण के प्रति जागरूक किया था। उस समय पर्यावरण संरक्षित था, तो जीवन भी सुरक्षित था। आज लगातार अनदेखी का परिणाम हमारे सामने है।

प्रदूषित नदियों का जल समुद्र में ही जाता है। 70 प्रतिशत नदियों का जल प्रदूषण की आखरी  सीमा को छू चुका है। नदियों में जीव-जन्तुओं की असंख्य प्रजातियाँ होती हैं, जिनके लिये स्वच्छ जल आवश्यक होता है। प्रदूषण की वजह से जीवों की अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गयीं हैं। अनियोजित मानवीय गतिविधियों का दुष्परिणाम है, प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरणीय प्रदूषण।

प्रख्यात दार्शनिक रूसों ने कहा था ‘‘प्रकृति की ओर लौटो।’’ इसका तात्पर्य था कि ‘वह आवरण जो हमें चारों ओर से घेरे हुये हैं,’ उस वातावरण और परिवेश की ओर ध्यान दिया जाना चाहिये। लेकिन मानव ने अपनी सुविधा, विकास या मनोरंजन के लिये उससे छेड़-छाड़ की, जिसके कारण यह भयावह स्थिति पैदा हुयी है। यद्यपि विकास ऐसी प्रक्रिया है, जिसे हम रोक नहीं सकते? अब प्रश्न उठता है कि क्या विकास बिना पर्यावरण को नुकसान पहुँचाये सम्भव है?

विश्व भर में आसन्न आपदायें दो प्रकार की हैं- (एक) प्राकृतिक आपदायें जैसे सुनामी, चक्रवात, भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि। (दूसरी) मानव निर्मित-जो विश्व युद्ध को आमंत्रण देकर इस खतरे में और भी वृद्धि कर सकती हैं। गंगोत्री ग्लेशियर तीस मीटर सिकुड़ चुका है। यदि यह सिकुड़न की गति ऐसी ही बनी रही तो आगे चलकर पावन गंगा का स्वरूप कैसा रह जायेगा? इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है, क्योंकि पानी की आपूर्ति तो ग्लेशियर के माध्यम से ही होती है।

विशेषज्ञों के एक अनुमान के अनुसार सन् 2030 तक गंगा में पानी का भारी अभाव हो जाना सम्भावित है। अभी उत्तराखण्ड की कोसी नदी अपने अस्तित्व के लिये लड़ ही रही है। बाँध बनने और पानी का व्यवसायिक उपयोग होने के कारण अनेक नदियाँ, बिहार की मुहान नदी जैसी स्थिति में आ चुकी हैं।

दूसरी तरफ उत्तराखण्ड में सन् 2013 में आयी प्राकृतिक आपदाओं ने जो संकेत दिये थे, तथा बादल फटने की घटनायें सामने आयीं, उन्हें भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। उसके कारण इन बढ़ती आशंकाओं को बल मिला है कि हिमालय क्षेत्र के लगभग 50 हिमनद, झीलें आगामी कुछ वर्षों में अपने किनारों की सीमा लाँघकर अनेक मैदानी क्षेत्रों को जलमग्न कर करोड़ों लोगों के जीवन को खतरे में डाल सकते हैं।

गत सन् 2016 में भी बड़ी तादाद में बादल फटने की घटनायें सामने आ चुकी हैं। टिहरी जिले में खतलिंग हिमखण्ड की दरारें चैड़ी होकर चार किलोमीटर तक का विस्तार ले चुकी हैं। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो आगामी  सन् 2050 तक इन नदियों से प्राप्त होने वाले पानी में 60 से 90 प्रतिशत तक कमी हो जाने की सम्भावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। इसी पर आधारित रहेगा – हमारा खाद्य संकट का पेचीदा मामला।

प्रदूषित होती नदियाँ- केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश की 35 नदियाँ प्रदूषण से अत्यधिक प्रभावित हैं। सन् 2005 से सन् 2013 के बीच उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर किये गये अनुसंधान से पता चला है कि गंगा, यमुना, सतलुज, मार्कण्ड, घग्घर, ढ़ेला, किच्छा, कोसी, स्वान, साबरमती, गंजीरा, ताप्ती,नर्मदा, बाणगंगा, दमन गंगा, इन्द्रावती, महानदी, चुंदनी स्वर्णरेखा, कृष्णा और तुंगभद्रा प्रदूषण की शिकार हो चुकी हैं।

वर्तमान स्थिति यह है कि देश की 70 प्रतिशत नदियाँ प्रदूषण से कमोवेश प्रभावित ही हैं। यद्यपि केन्द्र सरकार गंगा सफाई अभियान तीव्र गति से चलाया जा रहा है, ऐसे अनेक प्रयास हो रहे हैं, फिर भी अनेकों नदियाँ गंगा से भी बदतर स्थिति में पहुंच चुकी हैं।  इन नदियों के किनारे बसे लगभग 350 महानगरों को उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ रहा है, आगे भी भुगतने के लिये तैयार रहना होगा।

अपने देश भारत में ही छोटी-बड़ी नदियों की संख्या 10,210 है। पाँच लाख छयासठ हजार आठ सौ अठत्तर गाम हैं, जिनमें से लगभग 80 प्रतिशत आबादी जल के लिये कुओं, नलकूप, बावड़ी, झरनों, तालाबों एवं नदियों पर निर्भर है। आवश्यकता इस बात की है कि जल का संचयन, वैज्ञानिक प्रबंधन एवं समुचित वितरण व्यवस्था हो, जिसके माध्यम से शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सके। वर्षा के जल को रोककर भूमि के अंदर भेजे जाने के प्रयास प्रारम्भ किये जा चुके हैं।

आज की कड़वी सच्चाई  यही है कि हम पर्यावरण से उसका अमृत रस तो ले लेते हैं, लेकिन बदले में देते क्या हैं? जहर घोलकर देते हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि पावन और जगत् पूज्य गंगानदी उद्योगों के कचरे से सीमा से अधिक प्रदूषित हो चुकी है। ऋषिकेश के आगे जाने पर उसका जल स्वास्थ्य के मापदंडों पर खरा नहीं रह गया है। देश की कई नदियाँ गंगा से भी बदतर हालत में हैं।

दिल्ली से आगरा के बीच यमुना देश की सबसे मैली नदी है। वहीं सहारनपुर से लेकर गाजियाबाद के बीच हिंडन नदी प्रदूषण के मामले में गम्भीर स्थिति में है। बहुत से नदियों का प्रदूषण स्तर घटने की बजाय दो गुना बढ़ गया है।

अमरकंटक से प्रारम्भ होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाड़ियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने वाली नर्मदा की कुल 1289 किलोमीटर की यात्रा में अथाह दोहन हुआ है। यही हालात मुल्ताई से निकलने वाली ताप्ती के भी हैं। औद्योगित इकाईयों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों युक्त गंदे पानी के नदियों में, तटवर्ती भू-जल में जाने से खतरनाक असर पड़ा है। अभी तक उन पर प्रतिबंध पूरी तरह से कारगर साबित नहीं हो सका है। पेयजल की खरीददारी ने व्यवसाय करने वालों का हौसला बढ़ाया है।

गोमती नदी में हो रहे प्रदूषण पर एनजीटी में दाखिल की गई रिपोर्ट | Hindi  Water Portal

वास्तव में इस तथ्य पर गंभीरता से ध्यान दिया जाना अत्यंत आवश्यक है कि अगर प्रदूषित जल, नदी, नालों या सरोवरों में जाता है, तो वह फिर धरती की ऊपरी सतह को ही नहीं, वरन् भूगर्भीय जल को भी जहरीला बनाता है और अन्ततः ऐसा जल मानव तथा सभी जीव-जन्तुओं के लिये भी खतरनाक सिद्ध होता है।

प्रकृति का दोहन यदि व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो उसका यह भी दायित्व है कि वह अपने निजी प्रयासों से जल के संरक्षण, भंडारण का संकल्प करे। आपदाओं को निमंत्रण कौन देता है? जल को, जो हमारे प्राणों का स्त्रोत है, उसे खींच-खींच कर समतल कर दिया गया है।

भारत की नदियाँ यहाँ की सभ्यता-संस्कृति की जन्मदाता हैं, इनकी छाँहतले ही सभ्यतायें विकसित हुयीं पोषित व पल्लवित हुयी हैं। नदियों को प्रभावित करने वाले बहुतेरे कारण भले ही हमारे वश में न हों, फिर भी कतिपय ठोस कदम उठाकर उन्हें पुनर्जीवन दे सकते हैं।

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सुत्र:- 9424744170