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गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे हुए महाजनों से ‘रामराज्य’ की बात!

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि रोशन रंगीनियों के जमाने में अपने देश की तस्वीर कुछ ज्यादा ही श्वेत-श्याम बनकर उभर रही है?

भारत के आँगन में ताड़ के पेड़ की तरह एक इण्डिया तेजी से पनप रहा है और वही इण्डिया अपने गणतंत्र की मुंडेर पर बैठकर भारत को हांकने की कोशिश कर रहा है। 

भारत के खाद-पानी से पनपे इस इण्डिया की उज्जवल व चमकदार छवि देख-देख कर हम निहाल हैं और दुनिया हमें उभरती हुई महाशक्ति की उपाधि से उसी तरह अलंकृत कर रही है जैसे कभी कम्पनी बहादुर अंग्रेज लोग हममें से ही किसी को रायबहादुर, दीवान साहब की उपाधियां बांटते थे।

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आजाद होने और गणतंत्र का जामा ओढ़ने के साठवें-सत्तरवें दशक में हम ऐसे विरोधाभासी मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं, जहां तथ्यों को स्वीकार या अस्वीकार करना भी असमंजस भरा है।

भारत की व्यथा का बखान करना शुरू करें तो इण्डिया सिरे से खारिज कर देता है, इण्डिया की चमक-दमक और कामयाबी की बात करें तो भारत के तन-बदन में आग लगने लगती है। एक ही आंगन में दो पाले हो गए हैं।

हालात ऐसे बन रहे हैं कि तटस्थ रह पाना मुमकिन नहीं, यदि पूरे पराक्रम के बाद भी इण्डिया के पाले में नहीं जा पाए तो भारत के पाले में बने रहना नियति है।

क्या आपको इस बात की चिंता है कि यह यशस्वी देश के इस तरह के आभासी बंटवारे का भविष्य क्या होगा? इस बंटवारे के पीछे जो ताकते हैं क्या आपने उन्हें व उनके गुप्त मसौदे को जानने-पहचानने की कोशिश की है? परिवर्तन प्रकृति का नियम है पर हर परिवर्तन प्रगतिशील नहीं होता।

इस सत्तर दशक में परिवर्तन-दर-परिवर्तन हुए। कह सकते हैं कि जिस देश में सुई तक नहीं बनती थी आज वहां जहाज बनती है। क्षमता और संख्याबल में हमारी फौज की धाक है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं का कार्बन बताता है कि औद्योगिक प्रगति के मामले में भी हम अगली कतार पर बैठे हैं।

फोर्ब्स की सूची के धनिकों में हमारे उद्योगपति तेजी से स्थान बनाते जा रहे हैं। वॉलीवुड की चमक के सामने हॉलीवुड की रोशनी मंदी पड़ती जा रही है। साल-दो साल में एक विश्व सुन्दरी हमारे देश की होती है जो हमारे रहन-सहन, जीवन स्तर के ग्लोबल पैमाने तय करती है।

महानगरों के सेज व मॉलों की श्रृंखला, नगरों, कस्बों तक पहुंच रही है। चमचमाते एक्सप्रेस हाइवे से लम्बी कारों की कानवाय गुजरती हैं। माल लदे बड़े-बड़े ट्राले हमारी उत्पादकता का ऐलान करते हुए फर्राटे भरते हैं।

हमारे बच्चे अंग्रेजों से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। युवाओं के लिए पब डिस्कोथेक क्या-क्या नहीं है। शाइनिंग इण्डिया की चमत्कृत करती इस तस्वीर को लेकर जब भी हम मुदित होने की चेष्टा करते हैं तभी जबड़े भींचे और मुट्ठियां ताने भारत सामने आ जाता है।

वो भारत जो एक व्यक्ति के 4 हजार करोड़ रु. के भव्य महल वाले शहर मुम्बई में अखबार दसा कर फुटपाथ पर सोता है। वो भारत जिसके 84 करोड़ लोगों के पास एक दिन में खर्च करने को 100 रुपये भी नहीं। 

वो भारत जहां के नौजवान उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर बेकारी व हताशा में सड़क की अराजक भीड़ हिस्सा बन जाता है।

गणतंत्र की मुंडेर पर बैठे रिपब्लिक इण्डिया के महाजनों को क्या भारत की जमीनी हकीकत पता है?

क्या वे जानना चाहेंगे, कि आहत भारत जो कि उनका भी जन्मदाता है उसकी क्या ख्वाहिश है.. क्या गुजारिश है। समय के संकेतों को समझिए!

कोई भी राष्ट्र धर्म की रीढ़ पर ही खड़ा होता है, पर कोई भी धर्म राष्ट्र से बड़ा नहीं होता। कुरुक्षेत्र का महाभारत राष्ट्र की संस्थापना के लिए हुआ। इसलिए आज यह समझने की जरूरत है कि धर्म ही राष्ट्र नहीं है अपितु राष्ट्र ही हमारा धर्म है। पंथ और संप्रदाय के नाम पर हम सही और गलत को नहीं ढँक सकते। राष्ट्र अपने अंतिम नागरिक के कुशलक्षेम की भावना और समत्व की आत्मा में बसता है।

राष्ट्र का यह अंतिम व्यक्ति ही उसका गण है। क्या इस गण की भूमिका को आज वोट के अतिरिक्त कुछ समझा गया? गणतंत्र के महाजनों को यह सोचना होगा।

आभासी संवृद्धि रेत के महल सी ढह जाती है..चाहे वह सांस्कृतिक हो या आर्थिक। गणतंत्र दिवस हमें यथार्थ के धरातल पर खड़ा होकर यह सब स्मरण कराने का अवसर है। यह प्रति वर्ष आता है। ईश्वर करे अनंतकाल तक आता रहे। लेकिन राष्ट्र का गणतंत्र सही मायनों में तभी अर्थवान बनेगा जब हम तुलसी की परिकल्पनाओं के रामराज्य की  भावना को अपने तंत्र में समाहित करेंगे।

आज हम राम और रामराज्य की बातों का जाप करते नहीं थकते। यह जानने की ज्यादा कोशिश नहीं करते की राम और उनके राज्य का आदर्श क्या था?

तुलसीदास ने इसके लिए ’राम-राज्य‘ अथवा कल्याण-राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया है। यह कल्याणकारी राज्य धर्म का राज्य होता है, न्याय का राज्य होता है, कर्त्तव्य-पालन का राज्य होता है। वह सत्ता का नहीं, सेवा का राज्य होता है। इस कल्याणकारी राज्य की झोली में है – क्षमा, समानता, सत्य, त्याग, बैर का अभाव, बलिदान एवं प्रजा का सर्वांगीण उत्कर्ष। इस कल्याणकारी राज्य की कल्पना की परिधि में व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और विश्व का कल्याण समाविष्ट है। इसके केन्द्र में है धर्म जिसे हम वर्तमान के संदर्भ में ’कर्त्तव्य पालन‘ के स्वरूप में भी ले सकते हैं (धर्म वह सनातन संस्कार है जो मनुष्य को मर्यादित करता है, धर्म का कोई पर्यायवाची शब्द ही नहीं)। जहाँ धर्म होगा, वहाँ सत्य होगा, शिवत्व होगा, सौंदर्य होगा, सुख होगा, शान्ति होगी, कल्याण होगा।

रामराज्य को लेकर रामचरित मानस के उत्तरकांड में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं –

रामराज्य बैठे त्रैलोका,
हरषित भये गए सब सोका।
बयरु न कर काहू सन कोई,
राम प्रताप विषमता खोई॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
रामराज नहीं काहुहिं व्यापा।
सब नर करहि परस्पर प्रीति।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति-नीती।

अर्थात् रघुनाथ जी को जिस समय राज्य-तिलक दिया, उस समय त्रिलोक आनंदित हुए और सारे शोक मिट गये। कोई किसी से बैर नहीं रखता और राम के प्रभाव से सब की कुटिलता जाती रही। चारों वर्ण, चारों आश्रम- सब अपने वैदिक धर्म के अनुसार चलते हैं। सुख प्राप्त करते हैं, किसी को भय, शोक और रोग नहीं हैं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त होकर सब लोग परस्पर स्नेह करने लगे और अपने कुल धर्मानुसार जीवन जीने लगे।

आदर्श शासक अथवा सरकार वही है, जो प्रजा को सुख प्रदान करे। इसलिए तुलसीदासजी इस बात पर जोर देते हैं कि….

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥

राम हमारे राष्ट्र की आत्मा हैं लेकिन राम का नाम जपने और रामराज्य की दुहाई देकर नागरिकों को भरम डालने से काम नहीं चलने वाला।

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राम के राज्य का वह धोबी अयोध्या का अंतिम असंतुष्ट नागरिक था उसके शंकास्पद आरोप मात्र से राम ने स्वयं के परिवार पर इतना कठोर निर्णय लिया ऐसा दृष्टान्त विश्व में अन्यत्र नहीं मिलता। यह किसी भी कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था की पराकाष्ठा है। क्या हम इस व्यवस्था के सहस्त्रांश भी है? इस गणतंत्र दिवस पर सोचिएगा।

लेखक:- जयराम शुक्ल
संपर्कः- 8225812813