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चीन की मक्कारी अब बर्दास्त नहीं…

चीन की मक्कारी अब बर्दास्त नहीं…

चीन की महत्वाकाँक्षा और उसकी साम्राज्यवादी लालसा निरन्तर बढ़ती जा रही है। वह पूरे विश्व पर अपना साम्राज्य विस्तारित करना चाहता है। उसकी इस बढ़ती मनोदशा को समझने की आवश्यकता है। उसकी इस लालसा पर अभी लगाम नहीं लगायी जा सकी तो वह समूचे विश्व के लिये शांतिनाशक और उत्प्रीड़क सिद्ध होगा।

नये चीन का उदय एक लम्बे समय तक चले गृहयुद्ध का परिणाम था। इसकी पृष्ठभूमि क्रान्ति के खून से सिंचित थी। पहले तिब्बत को हथियाया। इसके बाद भारत पर हमला कर 38 हजार किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा जमाया और अरूणाचल प्रदेश के 90 हजार किलोमीटर पर दाबा जताता चला आ रहा है। चीन ने तिब्बत के आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा एवं भारत के एक लाख 50 हजार तिब्बत वासियों पर आपत्ति जताता रहता है।

कम्युनिष्ट पार्टी की सैद्धान्तिक पत्रिका ‘क्यू शी जर्नल’ में छपे लेख से पता चलता है कि ‘‘अगर युद्ध न किये जाते तो चीन में कभी शांति की स्थापना न होती। राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा महज वार्ताओं से सम्भव नहीं है। इसे युद्ध के जरिये ही हासिल किया जा सकता है।’’

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चीन का यह आक्रामक रवैया नया नहीं है। न मालूम क्यों हमारे भारत के नेता उसकी घृणित मानसिकता को जानबूझ कर नजर अंदाज करते रहते हैं। इसके पहले सन् 1986 में भी अरूणाचल प्रदेश में सुमदोरोंगचू में भी ऐसी ही घुस पैठ की थी। बाद में उसे हटना पड़ा था। तब से अब तक वह न जाने कितने बार वह भारतीय सीमा में घुसपैठ का दुस्साहस कर चुका है।

सन् 1962 का भारत पर चीन का हमला बीजिंग की रणनीति के प्रमुख चालाकियों को उजागर करता है। उसके बाद वह सन् 1969 में सोवियत संघ से लड़ा सन् 1974 में वियतनाम पर धावा बोला, 1988 में जानसन रीफ पर अपना आधिपत्य स्थापित किया और फिर सन् 1995 में मिस चीफरीप को हड़प लिया।

चीन ऐसा सब कुछ चोरी छिपे लम्बी तैयारी के बाद करता है। चीनी सेना ने दक्षिण में सैंकड़ों किलोमीटर दूर से आकर स्वतंत्र तिब्बत पर कब्जा जमाया। इसके लिये उसने पहली बार हिमालयी क्षेत्र में सैनिकों को भेजा। इस भू-भाग पर कब्जा जमाने के लिये बड़ी गोपनीयता का ढंग अपनाया गया। चीन की सदियों से पड़ोसी देशों की भूमि पर कब्जा जमाने की घिनौनी नीति रही है। देश के अनेकानेक महापुरूष एवं दार्शनिक समय पर चेताते रहे हैं  ‘‘चीन सोया हुआ अजगर है। अब वह धीरे-धीरे जाग रहा है।’’ अरूणाचल प्रदेश पर तो उसकी गिद्ध दृष्टि जमी हुयी है।

‘नेशनेलिटी एंड एम्पायर’ में विपिन बाबू ने ‘‘चीन को भारत के लिए खतरा’’ बताया था। 15 दिसम्बर 1950 को अपनी मृत्यु से लगभग एक महीना पहले 7 नवम्बर 1950 को एक पत्र लिखकर पंजवाहरलाल नेहरू (पूर्व प्रधानमंत्री) को चीन के विस्तारवादी कुटिल इरादों के बारे विस्तार से लिखा और चेताया भी।

अभी हाल ही गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के साथ हिंसक हमला जिसमें 20 भारतीय जवानों सहित एक कर्नल की हत्या का मामला चीन की चालाकी, घूर्तता और धोखेवाजी का ताजा उदाहरण है। मित्रता की आड़ में शत्रुतापूर्ण रवैये की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

यह घटना तो यही बताती है कि चीन के मंसूबे प्रारम्भ से ही खतरनाक रहे हैं। उस पर भरोसा करने वाले को हमेशा नुकसान उठाना पड़ा है। सन् 1954 में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया और भारत की 38000 वर्गमील जमीन खोदी। भारत और चीन के बीच इन 60 वर्षों में बीसों बार विवादों को निपटाने के लिये वार्तायें हुयी लेकिन वे सभी बेनतीजा रहीं।

विवाद उसके चालाकी पूर्ण स्वभाव में रचा बसा है। चीन का भारत पर आक्रमण सीमा विवाद का कारण नहीं, तरन् भारत को हड़पने की मंशा से योजनाबद्ध तरीके से किया गया हमला था। वैसे भी यदि हम चीन के मामले को लेकर ध्यान केन्द्रित करें तो सामने आता है कि वह भारत के खिलाफ सामान्यीकरण, सुधार दोस्ताना सम्बंध नहीं रहे। कभी बीजा नत्थी कर भेजता रहा, कभी हुर्रियत नेताओं को बुलाता रहा, भारत के प्रधानमंत्रियों को अरूणाचल प्रदेश के दौरान यात्रा न करने की चेतावनी देता रहा। सदा सीमा पर दखल देता रहा है।

चीन को लेकर पंनेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह तक गलती पर गलती करते रहे। अब ये मोदीजी के समय गलवान घाटी का मामला होगया। चीन हमारा न तो दोस्त था, और न कभी होगा- इस दृढ़ नीति को अख्तियार करने की जरूरत है। चीन के खिलाफ काउन्टर नीति बनाने की आवश्यकता है।

चीन का भारत पर आक्रमण प्रत्यक्ष रूप से सन् 1962 में हुआ, यद्यपि उसके द्वारा घुसपैठ और सीमा पर अतिक्रमण की वारदातें सन् 1950 से चल रहीं थी। चीन के विस्तारवाद को रोकने के लिये मंचीय गर्जनाओं और शस्त्रास्त्रों की होड़ के साथ साथ राष्ट्रीय एकता और अनुशासन की भी जरूरत है। रोग पुराना होता गया – यदि नेहरू जी के पास सही ऐतिहासिक दृष्टि और व्यवहारिक राजनीति की समझ होती तो वे सितम्बर 1949 में ही कम्युनिष्ट चीनी सेना के तिब्बत में प्रवेश को अनदेखा न करते।

चीन पड़ोसी देश की सीमाओं पर कब्जा कर लेने की नीति पर चलता आया है। और अपनी आक्रामक सैन्य कार्रवाई को रक्षात्मक बताता रहा है। सन् 1974 में दक्षिण वियतनाम से पैरासेल द्वीप झटका।

चीन ने जिस तरह हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे के चलते भारत की पीठ पर छुरा भौंकते हुये अक्साई चीन पर कब्जा किया। उसी तरह अब उसी दोस्ती और गलबहियाँ डालने वाली नीति पर चलते हुये पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी पर कब्जा जमाने की धूर्ततापूर्ण कोशिश कर रहा है। विश्व भर में भारत के अलावा करीब चैबीस से अधिक देशों की जमीन पर इसी तरह के विवाद पैदा कर उन्हें कब्जाना चाहता है।

चीन की सीमा यद्यपि 14 देशों से लगती है लेकिन उसके द्वारा 23 देशों की जमीनों या समुद्री सीमाओं पर अपना दावा जताने के कारण विवाद बढ़े हुये हैं। अब तक चीन अन्य देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर अपना कब्जा जमा चुका है। पिछले एक दशक में ही उसने अपने विस्तारवादी रवैये को अमल में लाते हुये अपने देश की सीमा को लगभग दुगुना कर लिया है। अभी भी उसकी लालसा का कोई अन्त नहीं है।

लाट्रोवे विश्वविद्यालय की एशिया सुरक्षा रिपोर्ट में बतलाया गया है कि चीन अब तक दूसरे देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि हथिया चुका है।

ईस्ट तुर्किस्तान में 16.55 लाख वर्ग किलोमीटर भू-भाग, मंगोलिया में 11.83 लाख वर्ग किलोमीटर, ताईवान में 35 हजार वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर उसकी नजर गड़ी हुयी है। यह चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। सन् 1997 में चीन ने हाँगकाँग पर जबरदस्ती कब्जा जमा लिया। इसी प्रकार मकाउ में भी कब्जा जमाये हुये है। चीन एशिया क्षेत्र में शक्तिशाली देश बनकर अपना दबदबा स्थापित करना चाहता है।

चीन ने बर्मा, बाँग्लादेश, सीशेल्स और श्रीलंका में अपनी नौसेना सुविधायें बना ली हैं। चीन पूर्वी अफ्रिका, केन्या में लागू और तंजानियाँ में वागामोचो में बंदरगाह विकसित कर रहा है। नेपाल में भी कुछ सड़कों का निर्माण किया है।

चीन ने अपने स्थापना काल सन् 1950 से पड़ोसी क्षेत्रों मंगोलिया, मंचूरिया और तिब्बत को कब्जे में लेने के प्रयास शुरू कर दिये थे। भारत के राजनय की कमजोरी के कारण चीन तिब्बत को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने में सफल हो गया।

अनेक बार उसने सीमाओं पर बहुत आक्रामक नीतियाँ अपनाईं हैं, इन निरंकुश नीतियों के कारण भौतिक संशाधन भी खूब बढ़ाये लेकिन हर बार उसका यह अतिलोभ उसके लिये अभिशाप ही बना है। एक ओर उसे आंतरिक बिखराव, जन विद्रोह के दौर से गुजरना पड़ा है। भारत-चीन सीमा विवाद के इस दौर में भी उसे मुंह की खाना पड़ेगी। वह चारों ओर से विश्व समुदाय द्वारा घिरता चला जा रहा है।

चीन का कोई भी पड़ोसी उसके व्यवहार से खुश नहीं है। विश्व भर में उसके खिलाफ भारी नाराजी है। चीन की विस्तारवादी नीति अब छिपी नहीं रह गयी है। उसकी धोखेबाजी उजागर हो चुकी है। उसके द्वारा समझौतों का भी उल्लंघन किया गया है। यही चीन का चरित्र है।

45 साल पहले 20 अक्टूबर 1975 को अरूणाचल प्रदेश के तुलुंगला में असम राईफल की पेट्रोलिंग पार्टी पर धोखे से एम्बुश लगाकर हमला किया था। सन् 1962 के हमले के बाद सन् 1967 में सिक्किम के नाथुला दर्रे में हमारे भारतीय जवानों ने उल्टे पाँव लौटने उसे बाध्य कर दिया था।

इस समय पाकिस्तान नेपाल को छोड़कर उसका कोई सहयोगी नहीं है। उसकी धूर्तता इसी बात से जानी जाती है कि एक ओर तो वह अतिक्रमण करता है, दूसरी ओर भारत को शांति बनाये रखने का उपदेश देता है और पीछे हटने से भी इंकार करता है। भारतीय सेना हमेशा संयम का परिचय दिया है, लेकिन उसने इस संयम को शायद कमजोरी समझ रखा है इसलिये अब उसकी गलतफहमी को दूर करने का भी संकल्प ले लिया गया है। बात देश के सम्मान की है।

चीन की मौकापरस्ती और मक्कारी को कभी माफ नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके कारण पूरा विश्व कोरोना वायरस के दुष्परिणामों को झेलने बाध्य है, उसी समय वह ताईवान और भारत को धमकाने की जुर्रत कर रहा है। हाँगकाँग और ताईवान को हड़पने की तो उसने पूरी तैयारी कर रखी है। विश्व समुदाय उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करे।