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तीन लाख से अधिक देशभक्तों ने दी थी शहादत – डाॅ. किशन कछवाहा

भारत का स्वाधीनता संघर्ष

क्रान्तिकारी एवं प्रख्यात लेखक मन्मथ गुप्त के अनुसार देश की स्वाधीनता के लिये सांसारिक मोह-ममता छोड़कर जो क्रान्ति की आग में कूद पड़े, वे ही आजादी के दीवाने शहर-शहर, जंगल-जंगल भटकते रहे, उन्होंने देश के लिये अपने प्राणों को हँसते-हँसते न्यौछावर कर दिया, लेकिन उन्हें स्वतंत्र भारत ने लगभग भुला ही दिया।

सन् 1919 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर जो कुछ था, वह केवल क्रान्तिकारी आन्दोलन था याने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक मात्र संग्राम। सन् 1885 से 1918 तक जो कुछ था, वह केवल ब्रिटिश सरकार से कतिपय सुविधायें माँगना, ब्रिटिश सरकार की नौकरियों में पहले से अधिक हिस्सा माँगना जैसा ही था। उसे स्वतंत्रता संग्राम कहना कतई उचित नहीं है। मन्मथनाथजी स्वयं ऐसा ही मानते रहे हैं।

महापुरूषों द्वारा व्यक्त किया गया यह कथन भी उतना ही सार्थक है कि वही कौम जिन्दा रहती है, जो समय आने पर मर-मिटना जानती है। सन् 1857 से 1918 तक और 1918 से 1947 आजादी मिलने तक और सन् 1947 में आजादी मिलने के बाद सत्ता पर काबिज का इतिहास लम्बा तो है लेकिन जनजन की धारणायें और वास्तविकताओं में मत वैभिन्नतायें पायी जाती हैं। भारत ने जितनी खून खराबी देखी है, शायद उतनी विश्व के किसी देश में अनुभव नहीं की गयी होगी।

मुस्लिम हमले, मुगलराज्य का विस्तार, फ्रांसीसी, पुर्तगालों और लगभग पूरे भारत पर अंग्रेजों का छल-कपट पूर्ण चालाकियों के साथ किया गया राज्य विस्तार, भारतवासियों पर चलाया गया दमन और अत्याचारों का कुचक्र रोंगटे खड़ा कर देने वाला और दिल दहला वाला मंजर ही साबित हुआ था, जिसका मुकाबला वीरों, वीरांगनाओं ने अपने शौर्य, साहस और बलिदान देकर किया।

सन् 1857 की तथाकथित क्रांति के पूर्व भी लगभग एक शताब्दी तक भीषण संघर्ष जारी रखा गया। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों का संघर्ष तो सन् 1757 के प्लासी युद्ध की हार के बाद से ही शुरू हो गया था। इसी दौरान जंगल महाल का विद्रोह, सन्यासी विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, बहावी विद्रोह, संथाल विद्रोह, कित्तूर विद्रोह आदि का रोमांचक इतिहास यत्र यत्र उपलब्ध है।

सन् 1824 में एक सैन्यदल की टुकड़ी ने वर्मा जाने से इंकार कर दिया था। वैरकपुर में प्रथम सिपाही विद्रोह हुआ था, तब 700 सैनिक निर्ममता पूर्वक गोलियों से भून डाले गये थे। दूसरा सैनिक विद्रोह भी सन् 1857 में ही प्रारम्भ हुआ था।

वर्तमान मोदी सरकार ने भी अब स्वीकार कर लिया है कि 1817 में संगठित पाइका संग्राम ही अंग्रेजों के खिलाफ देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि सरकार इस विषय पर गंभीरता से विचार कर रही है कि इस तथ्य को आगामी वर्षों तक पाठ्यपुस्तको में शामिल कर लिया जायेगा।

अभी तक सन् 1857 के सिपाही विद्रोह को ही देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना जाता रहा है। लेकिन तथ्यों के माध्यम से यह पता चलता है कि सन् 1817 में ओडिशा में हुआ संगठित पाईका संग्राम ही देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम था।

आमजन की यह धारणा बनी हुयी है कि केवल ईस्ट इंडिया कंपनी के काले कारनामें थे, जो व्यापार करने के बहाने भारत आयी थी और उसने देश को गुलाम बनाने का षड़यंत्र रचा। यह आधा-अधुरा सच है। अंग्रेजों के पहले डच आये, डच से पहले पुर्तगाली आये। इन तीनों की मिली जुली कंपनी थी- ‘‘ईस्ट इंडिया’’ जिस समय भारत में पुर्तगाली आये।

उस समय भारत पर अकबर का शासन था और और उसने ही पुर्तगालियों को भारत में व्यापार करने की अनुमति दी थी। पुर्तगालियों ने भी भारतीयों पर भारी अत्याचार किये। इन अत्याचारों की चर्चा न हो पाने का कारण स्पष्ट था कि उस चर्चा में अकबर को भी शामिल कर लिया जायेगा। उसके अत्याचारों के साथ पुर्तगालियों के भी अत्याचार सामने आ जायेंगे।

पुर्तगालियों के व्यापार के तौर-तरीकों और होने वाले फायदों की भनक लगते ही अंग्रेज भारत में आने लगे और ‘‘ईस्ट इंडिया कंपनी’’ ने अपनी धूर्तता पूर्ण नीतियों के माध्यम से देश की अर्थ व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था से भारतीयों पर अत्याचार करना शुरू कर दिये। भारी दमनात्मक रवैये अपनाये गये। ऐसे ही अत्याचारों का परिणाम था-देशवासियों में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश।

सन् 1854-55 में बिहार में संथाल विद्रोह हुआ। उन संथाल गरीब वनवासियों की शोषण गाथा अत्यंत पीड़ा दायक है। फसल की पैदावार न होने के बावजूद अंग्रेज अधिकारियों द्वारा जबरिया मालगुजारी वसूली जाती थी। बाल-बच्चे भूखे मर रहे थे।

इस तरह कष्ट एवं पीड़ादायक परिस्थितियों में 7 जुलाई 1855 को इन आदिवासी बंधुओं ने अंग्रेज ठिकानों पर हमले कर भीषण रक्तपात किया और ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराया। कईयों को बंदी भी बना लिया गया। इसके बाद अंग्रेजों का भी भीषण दमन चक्र जिसमें गरीब संथालों की हत्यायें की गयीं। महिलाओं-बच्चों को भी बक्शा नहीं गया। यह संथालों की बहुत बड़ी कुर्बानी थी।

14-15 जून सन् 1871 को कूका-विद्रोह हुआ। इस हिन्दू-सिख विद्रोह में भी महिलाओं का योगदान सरसाहनीय रहा। शिवालिक की पहाड़ियों के बीच स्थित तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुमारी, मध्यप्रदेश (मंडला) जिले के डिंडौरी तहसील की एक रियासत रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई, तुगलाई सल्तनत जमानी बेगम दिल्ली भी छिपकर छापामार लड़ाईयों में शामिल रहीं।

इसी प्रकार नाना साहब की दिल दहला देने वाली गाथा है। सिकन्दर से लेकर बाद के आततायी विदेशी आक्रमणकारियों के हमलों के दौरान अपनी अस्मिता बचाने के अपने प्रयासों के अंतर्गत अपने आपको ‘‘जौहर’’ कहा जाने वाला बलिदानी कदम उठाने में भी भारतीय नारियों को नमन ही किया जाता रहेगा। ऐसा सिलसिला भारत विभाजन के दौरान भी अनुभव किया गया।

आजादी के लिये किये गये प्रयासों के अंतर्गत नारी शक्ति के योगदान के असंख्य चमत्कारिक एवं अत्यंत साहस भरे प्रसंग हैं। उसी श्रृंखला में रानी शिरोमणि चेनम्मा महारानी जेंदा का नाम भी प्रमुखता एवं आदर के साथ लिया जाता है जिन्हें बर्बर अंग्रेजों ने जिन्दा जलाकर मार डाला। भारत पर विदेशियों की कुदृष्टि बनी रही। इस कारण लगातार हमले होते रहे। सर्वाधिक हमले भारत ने झेले। इन हमलों के दौरान वीरांग नाओं ने जो शौर्य और साहस का परिचय दिया उसका श्रेय इतिहाकारों की तंगदिली के कारण नहीं मिल सका, न ही उनका बलिदान चर्चा का विषय बन सका।

बदरी की ठुकराईन, टीकरी की रानी, का नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। दिल्ली की चैदह अज्ञात महिलाओं की आत्महत्या की दर्दनाक कहानी का भी पता चला है। क्रांति में भाग लेकर 16,जनवरी 1858 में जिन्हें फाँसी की सजा दी गयी थी, उनमं गाँव रसूलपुर की बेबी, छाजूनगर की लेखा, गाँव नागली की रानी, पलबल की मानी, मानी को खोजकर लाया गया और फिर फाँसी की सजा दी गयी। एक लंबी सूची भी है, जो अंग्रेजों की बंदूक की गोली लगने से शहीद हुयीं।

भारत के स्वातंत्र्य समर में अनेकों ज्ञात-अज्ञात महावीरों एवं महादेवियों ने अपनी आहुतियाँ दी हैं। उन्हें इतिहास के पन्नों में भी स्थान नहीं मिल सका।

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‘‘ले ली आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल’’ गाकर श्रेय ले लेना एक बात है। तब लाखों शहीदों ने जो शहादतें दी हैं, उनका क्या? और देश के बंटवारे का महापाप किसके सिर पर मढ़ा जाये?

यह महाक्रांति ब्रिटिश साम्राज्य बाद के खिलाफ भारत की आजादी के लिये जनजन के स्वस्फूर्ति से उठे ज्वार, उद्वेलितमन की आकाँ क्षापूर्ति की पावन भावना थी। इस जन आंदोलन ने अंग्रेजों की ब्रिटिश बादशाहत को मजबूर कर दिया था कि वे अब भारत छोड़कर चले जायें। उसी शंखनाथ का सुफल था सन् 1947 में मिली आजादी।

इस महासंग्राम में तीन लाख से अधिक ज्ञात देशभक्तों-देशप्रेमियों ने अपनी शहादत दी हजारों हंसते हंसते फांसी के फंदे पर लटके, लाखों ने गिरफ्तारी देकर अमानवीय यातनायें सही। अनेकों का जीवन अंडमान की काल कोठरियों में खप गया। अनेकों लापता बता दिये गये। कैसे-कैसे अत्याचार – यातनायें सहीं होगी – उनका वर्णन सुनकर रूह काँप उठती है।

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डाॅ. किशन कछवाहा