Trending Now

“नानक नाम जहाज है, जो जपै वो तर जाए – जैंसे कोन्डा भील तर गए”

गुरुनानक देव जी के प्रकाश पर्व पर
जबलपुर घटित अविस्मरणीय गाथा सादर समर्पित
“एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मंदे”

गुरुनानक देव की उक्त वाणी भारतीय सामाजिक समरसता का मूल आधार है, इसका एक सुनहरा दृष्टांत जबलपुर से संबंधित है। गुरुनानक देव जी साहब के साथ भाई मरदाना के साथ दो बार जबलपुर आने के प्रमाण मिलते हैं, जिनकी पुष्टि नर्मदा के ग्वारीघाट के किनारे स्थित गुरुद्वारा और मढ़ाताल स्थित गुरुद्वारा करते हैं। कोन्डा भील की कथा पर जाने पूर्व यहां उल्लेखनीय है कि गुरुनानक देव ने हिंदुत्व के पालक बन कर 3 लोदी सुल्तानों एवं दो तथाकथित मुगल बादशाहों का निर्भीकता से सामना कर हिंदुत्व की रक्षा की। वैदिक ग्रंथों में सन्निहित उपदेशों को मूल आधार बनाकर ‘जपुजी साहब’ में पल्ववन किया। अपनी वाणी से उनको पल्लवित और पुष्पित किया।

मानव मात्र के प्रति दया, करुणा प्रेम और सौहार्द्र तथा ईश्वर में अटल निष्ठा गुरुनानक के आंदोलन के केंद्र बिंदु थे। इसलिए उक्त आंदोलन को व्यापक बनाने के आलोक में गुरुनानक देव ने देश – देशांतर की यात्राएं कीं, जिन्हें सिख धर्मग्रंथों में ‘उदासी’ कहा गया है। इन जनसंपर्क – यात्राओं के माध्यम से उन्होंने पुनर्जागरण के प्रतिमानों को स्थापित कर आध्यात्मिक पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया है।

गुरुनानक देव के प्रभाव से जबलपुर में दस्यु कोन्डा भील के संत बनने की गाथा अविस्मरणीय है, जिसने मढ़ाताल में अपनी अमिट यादें छोड़ीं। ‘सूरज प्रकाश’ नामक सिख ग्रंथ में एक उदासी का वर्णन आया है जिसमें सन् 1508-09 तदनुसार चैत्र संवत् 1565 तथा भादों संवत् 1566 में गुरुनानक देव ने विंध्याचल पर्वत पार कर जबलपुर पहुंचे थे, तब तत्कालीन समय गढ़ा कटंगा के नाम से गोंडवाना साम्राज्य था तथा संग्राम शाह के पिता अर्जुन दास का शासन काल था। इस उदासी के दौरान सघन वनों से निकलते समय दस्यु कोन्डा भील ने गुरुनानक देव के साथी मरदाना को पकड़ लिया और उनकी हत्या कर भक्षण के लिए तत्पर हुआ तो नानक जी ने अपने अंतर्मन में इस घटना का पूर्वाभास कर लिया था। इसलिए गुरुनानक देव जी ने शीघ्र ही मरदाना और कोन्डा भील को खोज लिया और जैंसे ही उनकी दिव्य दृष्टि कोन्डा भील पर पड़ी तो कोन्डा का हृदय परिवर्तन हो गया। वह नानक देव ने चरणों गिर गया और अपने जरायम पेशा के अपराधों के लिए क्षमा मांगी तथा गुरुनानक के पीछे लिया।

गुरुनानक साहब जब जबलपुर पहुंचे तो कोन्डा भील भी उनके साथ था। यहां मढ़ाताल में कोन्डा भील को नानक साहब ने दीक्षित किया गया और गुरु वाणी के रुप यह समझाया कि-
“एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैर अकाल मूरत अंजुनी स्वेम्भ गुरु प्रसाद”

एक ओंकार –परमात्मा एक हैं !
सतनाम –परमात्मा का नाम सच्चा हैं ! हमेशा रहने वाला हैं !
करता पुरख –वो सब कुछ बनाने वाला हैं !
निरभऊ — परमात्मा को किसी का डर नहीं हैं !
निरवैर — परमात्मा को किसी से वैर (दुश्मनी) नहीं हैं !
अकाल मूरत –परमात्मा का कोई आकार नहीं हैं !
अंजुनी –वह जुनियो (योनियों) में नहीं पड़ता ! न वह पैदा होता हैं, न मरता हैं !
स्वेम्भ– उसको किसी ने नहीं बनाया –न पैदा किया हैं वह खुद प्रकाश हुआ हैं !
गुरु प्रसाद –गुरु की कृपा से परमात्मा सबके हृदय में बसता है –!

इसके बाद कोन्डा भील दस्यु से संत बन गया जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि बने थे। इसका उल्लेख पंजाब विश्वविद्यालय की पुस्तक “गुरु नानक देव की यात्राएं” में आया है। इसके साथ ही प्रो. सुरेंद्र सिंह कोहली ने पहली उदासी का वर्णन करते हुए इस घटना का प्रमाणीकरण किया है। प्रो. कोहली यह भी लिखते हैं कि जबलपुर में नानक देव को फूल नामक एक जंगम साधू मिले, जो अपने चमत्कारों के कारण जन मानस को प्रकारांतर से प्रभावित करते थे उन्हें यह समझाया कि धर्म के नाम पर चमत्कार नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि आध्यात्मिक चिंतन में चमत्कारों का कोई स्थान नहीं है।

गुरुनानक देव की दूसरी उदासी के अंतर्गत दुबारा जबलपुर आने के प्रमाण मिलते हैं। यह आगमन सन् 1511-12 तदनुसार आषाढ़ संवत् 1568-69 के कालखंड में हुआ। नर्मदा नदी के किनारे ग्वारीघाट पर आप पहुंचे थे। इस समय भी गोंडवाना साम्राज्य के राजा अर्जुन दास ही थे। जबलपुर नगर अपने आपको धन्य मानता है कि गुरुनानक देव के चरण इस भूमि पर पड़े और उनकी चरण रज से यह नगर पावन हो गया।

प्रकाश पर्व की लख लख बधाई

“सतगुरु नानक प्रगट्या, मिट्टी धुंध जग चानन होया।
नानक नाम चढ़दी कला तेरे भाने सरबत दा भला।”
       लेख़क
डॉ. आनंद सिंह राणा
   7987102901