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पाँच पीढ़ी पहले मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे!

भारतीयों की संस्कृति एक ही है। सनातन धर्म लाखों साल पुराना है, जबकि इस्लाम और ईसाइयत क्रमशः 1400, और 2000 साल पहले अस्तित्व में आये हैं। भारत एक पुरातन एवं सनातन प्रकृति निर्मित राष्ट्र है, वेदों-पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। विश्व में पंथ अनेक हैं, किन्तु धर्म एक ही है- मानवधर्म, उसे ‘‘हिन्दूधर्म’’ कहते हैं। जल, जंगल, पशु-पक्षी और सभी के प्रति आदर रखने वाला कोई हो, विश्व के किसी कौने में रहने वाला खानपान, रीतिरिवाज कुछ भी हो वह हिन्दू है।
मुसलमान  हमारे हैं। ऐसा कहना सच है। उनके पूर्वज भी हिन्दू ही हैं। जो मुसलमान है, उनके पूर्वज अरब देशों से नहीं आये थे। उन्हें बर्बरता पूर्वक तलवार की नौंक पर धर्मांतरित किया गया था। इकबाल, जिन्ना, ओबैसी आदि नेताओं के पूर्वज भी हिन्दू ही हैं। इकबाल तो सारे जहाँ की बात करते हैं, लेकिन पाकिस्तान पर आकर उनकी सोच को लकवा मार जाता है क्योंकि हिन्दुओं की बहुसंख्या में उनका मजहब नहीं रह सकता। यह चालाक मनोवृत्ति संख्या की कमी में लोकतंत्र चाहती और बहुलता की स्थिति में मजहबी तंत्र।
कतिपय साहित्यिक लुटेरों और बटमारों ने ऐतिहासिक तथ्यों की काँट-छाँट का उपक्रम चलाया, उनकी मक्कारी की दास्तान लम्बी है, उन्होंने तो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को भी ‘सिपाही विद्रोह’ कहने में ‘शर्म’ महसूस नहीं की। एक के बाद एक कुटिल चालें चलीं गयीं। सन् 1905 को बंगाल का मजहब के नाम पर बँटवारा अंग्रेजों की बदनीयती का मिशाल था। आजादी के सत्तर साल बीतने के बाद आज भी अलगाववादी ताकतें सक्रिय है। उनके षड़यांत्रिक प्रयास है कि देश का एक और विभाजन हो। अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक समाज से ज्यादा सुविधायें और अधिकार प्राप्त हों। इसके बावजूद हिन्दू विरोध की चुनौतियों को झेला जा रहा है।

Hinduism - Origins, Facts & Beliefs - HISTORY

कठिनाई यही है कि इस्लाम मूलरूप से सह-अस्तित्व  को नहीं मानता। यद्यपि इस्लाम के भीतर भी मतभेद की जड़ें गहरी हैं। शरीयता या इन्सानियत-इन दो में से एक ही बची रह सकती हैं। जब तक इस बुनियादी बात को समझा नहीं जायेगा। निर्दोषों का खून बहता रहेगा। उपासना पद्धति के बदल जाने से संस्कृति ,पहनावा तथा खानपान कैसे बदल सकते हैं।
वास्तविकता और सच्चाई तो यही है कि आजादी के आन्दोलन के दौरान ही इस्लाम कट्टरपंथी नेताओं द्वारा अलग देश बनाने का षड़यंत्र रच लिया गया था। उसी का परिणाम था आजादी के मिलने की सम्भावना के चलते सन् 1946 में ‘डायरेक्टर एक्शन’ के नाम पर किया गया बंगाल का नरसंहार और उसके बाद कांग्रेस के दब्बू नेताओं को भारत -विभाजन के लिये सहमत कराया जाना।
कश्मीर को शामिल कराने के प्रयासों के तहत सन्1948 का  कबाईलों के नाम पर हमला किया जाना। यह भारत के पीठ पर छुरा भौंकने जैसी सुनियोजित नीति की शुरूआत थी। इस हमले को विफल करने के लिये जब भारतीय फौजें तेजी से आगे बढ़ रहीं थीं तब के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी। युद्ध तो रूक गया लेकिन अब तक भारतीय क्षेत्र (कश्मीर का लगभग दो तिहाई हिस्सा) पाकिस्तान के अवैध कब्जे में बना हुआ है। यह उस समय के कांग्रेस नेतृत्व की भयंकर भूल थी, जो अब तक शूल सी चुभ रही है।
भारत के बंगाल बिहार उत्तरप्रदेश के मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के लिये मुस्लिम लीग के पक्ष में 99 प्रतिशत मतदान किया था। उनमें से अधिकांश तो पाकिस्तान गये भी नहीं। जब जाना नहीं था और भारत में ही रहना था तो वोट ही क्यों दिया? जो गये उन्हें 72 साल बाद भी ‘मुजाहिर’ माना जाकर दूसरे दर्जे का व्यवहार किया जाता है। उर्दू बोलने के कारण उनसे घृणा की जाती है। उनके साथ भी न्याय नहीं हो रहा है। वह मानसिकता न तो आज तक थकी है, न ही बदली है। भ्रम के अलावा है क्या?
भारत को खंड-खंड करने की कुटिल योजना अंग्रेजों ने जिन्ना के साथ मिलकर बनायी थी। भारतीय नेताओं ने सत्ता के लालच में उस षड़यंत्र को नजर अंदाज कर भारत-पाक विभाजन स्वीकार कर लिया। विभाजन के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपना बलिदान देकर हिन्दुओं को सुरक्षित निकालने के भरसक प्रयास किये। उक्त षड़यंत्र का पहला चरण था कश्मीर घाटी को हिन्दू विहीन करना। दूसरा कदम था, सीमा से हजारों घुसपैठियों को कश्मीर में प्रवेश कराकर बसा देना।
बहुत कम लोगों को इस तथ्य की जानकारी है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक  सैयद अहमद जिन्हें पाकिस्तान का पिता मानने वाले भी बहुत हैं। दर असल पाकिस्तान जिस द्विराष्ट्र सिद्धान्त के आधार पर बना, उसके प्रणेता सैयद अहमद ही थे। इस सिद्धान्त को इकबाल और जिन्ना ने विकसित किया जो पाकिस्तान के निर्माण का सैद्धान्तिक आधार बना। सैयद ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रचार किया, जो बाद में अलीगढ़ आन्दोलन की नींव बना।
जिन्ना के जीवनीकार हेक्टर बोलियो लिखते हैं, वे पहले भारत के मुसलमान थे, जिन्होंने विभाजन के बारे में बोलने का साइस किया और यह पहचाना कि ‘हिन्दू-मुस्लिम’ एकता असंभव है, उन्हें अलग होना चाहिये।
14 मार्च 1888 को मेरठ में दिया गया भाषण बहुत भड़काऊ था। इसके पहले सन् 1895 में जब कांग्रेस की स्थापना की बात चली थी, तब बदरूद्दीन तैयब ने सैयद को उसमें शामिल होने के लिये कहा था, तब उन्होंने यह कहते हुए मनाकर दिया था कि हिन्दू और मुसलमान अलग- अलग कौमें हैं, उनकी अलग-अलग पहचान है और दोनों को एक करने की बात मैं कभी सोच भी नहीं सकता।
सन् 1920 से सन् 1942  तक चले ‘भारत-छोड़ो आंदोलन’ के नेतृत्व के परिणाम स्वरूप औपनिवेशिक ब्रिटिश दासता से मुक्ति तो मिल गयी लेकिन यह गाँधी जी की बड़ी हार थी। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया था ‘‘देश का विभाजन होगा, तो उनकी लाश पर’’ होगा। लेकिन इसकी चिन्ता न अंग्रेजों ने की, न मुस्लिमों ने, न ही उनके कांग्रेसी उत्तराधिकारी नेहरू- पटेल ने।
अपनी पराजित अंतरात्मा की अभिव्यक्ति उन्होंने ममन्तिक भाषा में अप्रैल 1947 को दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में की-‘‘होना क्या है? मेरे कहने के मुताबिक तो कुछ होगा नहीं। होगा वही जो कांग्रेस करेगी। मेरी आज चलती कहाँ हैं? आज मेरी कोई मानता नहीं, मैं बहुत छोटा आदमी हूँ। हाँ, एक दिन मैं हिन्दुस्थान में बड़ा आदमी था। तब सब मेरी मानते थे। आज न तो कांग्रेस मेरी मानती है, न हिन्दू और मुसलमान। मेरा तो अरण्यरोदन चल रहा है।’’
हालाँकि नवम्बर 1963 में लोकसभा में बोलते हुये नेहरू जी ने स्वीकार किया था कि ‘‘गांधी का रास्ता छोड़कर गलती की है।’’ लेकिन कहावत वही चरितार्थ हुयी। ‘‘अब पछिताये होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत।’’
कभी इस्लाम के उपदेशकों और उसके अनुयायियों को भी इस तथ्य पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये कि जनसंख्या के आधार पर बंटवारा कराकर पाकिस्तान तो बना लिया गया लेकिन क्या वहां के मुसलमानों के हालात भारत में रहने वाले मुसलमानों से बेहतर स्थिति में हैं और क्यों नहीं है, पूरा निजाम तो मुसलमानों के ही हाथों में हैं। तब वे कौन कौन से कारण हैं जो मुसलमानों की तरक्की में बाधक बने हुये हैं?
जिन्ना से लेकर आजमखान, औवैसी जैसे अनेक मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार अपनी कौम के लोगों को वोटों के लिये तरह-तरह से बरगलाते रहते हैं, कभी उनसे भी ऐसे प्रश्न पूछे जाने चाहिये, जो पुनः एक बंटवारा कराने की उम्मीद में विष-वमन करते रहते हैं। कभी इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये था कि जिन्ना ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के खिलाफ जो विषैला प्रचार किया था और आज भी उक्त स्वयंभू मुस्लिम नेताओं द्वारा जब-तब किया जाता रहता है, ऐसी विर्षली बातों का गैर-मुस्लिमों पर किस प्रकार का असर होता होगा? आज भी मुसलमानों द्वारा सौ-दो सौ- पाँच सौ साल पुरानी अहंकारी बातें जोर-शोर से कही जाती हैं।
इस सब बातों का असर यह हुआ है कि इस मुस्लिम सम्प्रदाय को विश्वभर में वैमनस्य और विद्वेष  का पर्याय बना दिया गया है। मध्य युग में अंग्रेजों द्वारा विशेषकर अंग्रेज इतिहासकारों मिलर-स्मिथ आदि ने पहले ही इस बात पर ठप्पा लगा रखा है। बाद के इतिहासकारों ने तो और भी नमक-मिर्च लगाकर कुछ ज्यादा ही रोचक बना दिया है। वहीं हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई, वही पूर्ववर्ती अहँ और वर्चस्व के प्रश्न और जबाव।
महमूद गजनवी, बख्तियार खिलजी तो विदेशी हमलावर लुटेरे थे, जिनका इस्लाम के प्रचार प्रसार से कुछ लेना देना भी न ही था। वे धन सम्पदा लूटकर ले गये, जो उनका मुख्य मकसद था।
अकबर-शाहजहाँ ने कुछ अच्छे काम भी किये, रहीम- रसखान, ने ऐसे ऐसे भक्ति-भाव भरे, मन का जीत लेने वाले भक्तिगीत लिखे। सभ्यता-संस्कृति का भी अच्छी तरह से आदान-प्रदान होता रहा, जिसे झुठलाया  भी नहीं जा सकता। मुसलमानों की गुलाब जामुन और पुलाव हिन्दुओं की रसोई तक जा पहुँचा, वहीं कुर्ता, पायजामा, शेरवानी से हिन्दुओं ने परहेज नहीं किया। मेल-मिलाप में कटुता नहीं आने दी गयी इस बात का ख्याल रखा गया। ईद के दिन खायी जाने वाली ‘सेवईं’ भारतीय परम्परा की द्योतक है। भारत, पाकिस्तान और बाँग्लादेश को छोड़कर यह ‘सेवईं’ कहीं का मुसलमान नहीं खाता। मुस्लिम महिलाओं ने भी सुर्ख जोड़ा, सुहाग के प्रतीक अपनाकर रखे हैं, जो विशुद्ध भारतीय परम्परा से आये हैं।
अमीर खुसरो के कलामों में इसको बखूबी देखा जा सकता है। और तो और मृत्यु के बाद दफनाने की रस्म के बाद सारे काम मुसलमान हिन्दुओं के तेरहवीं, तीसा और चालीसवाँ या फिर आगे बरसी  लगभग वैसे ही सम्पन्न किये जाते हैं जैसे हिन्दू घरों में। पाकिस्तान बँगलादेश और भारत के अलावा कहीं और के मुसलमान क्या ऐसा कुछ करते हैं? ये सब भारत की श्रेष्ठ परम्पराओं का अनुसरण ही तो है।

Stanford scholar casts new light on Hindu-Muslim relations

यह सर्वमान्य तथ्य है कि कोई भी सत्य विचार सामाजिक हो या दार्शनिक अपनी सत्यता और महत्ता के आधार पर ही स्थिर रहता है। इसके लिये किसी दबाव या हिंसा की जरूरत नहीं पड़ती। उपनिषद और श्रीमद्भागवत् गीता ने अपनी उपयोगिता की छाप विश्वभर में स्वयं सिद्ध की है। इसके लिये न हिंसा हुयी, न दबाव डाला गया।
इस्लाम के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह दूसरे के विचारों के साथ सह अस्तित्व को खारिज करता है। इसी बात की याद दिलाये जाने के लिये नमाज के लिये पाँच बार की पाबंदी लगी हुयी है। जिस रास्ते से कभी कोई हिन्दू व मुसलमान बना था, तो उसी रास्ते वापिस भी आ सकता है, लेकिन इस्लाम में इसकी अनुमति नहीं है। इसी से पता चलता है कि उसकी सच्चाई का दावा कितना कमजोर है?
दूसरा और एक और दावा एकाधिकार का, जिसके अंदर शिया, अहमदिया, बंगाली, यजदी आदि का सामूहिक संहार होता है। यह इस्लाम मानने वाले किसी एक देश या एक स्थान विशेष की बात नहीं है। जहां भी उसकी ताकत बढ़ी या अवसर प्राप्त हुआ कि दूसरों का अस्तित्व मिटाना इस्लाम का मूल सिद्धांत सामने आ जाता है। आज तक लिखी गयी तमाम इस्लामी पुस्तकों में इस प्रकार के किये गये आव्हानों का उल्लेख प्रायः सहजता से मिल जाता है।
इस्लाम अपने घेरे के बाहर जाने की अनुमति नहीं देता, जबकि बाहर के लोगों को अंदर आने में इस बात का उल्लेख स्थान स्थान पर मिलता है। इसके संस्थापन ने स्वयं तलवार की नौंक पर स्वयं अपने गांव में ऐसा किया। हिंसा और हिंसा की धमकी के अलावा क्या? क्या और कोई सार्थक उपाय नहीं हैं? मुसलमानों को अपने अधिकार से बाहर न जाने के लिये भी उनके पास मौत के फतवे के सिवाय और क्या है?
लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा