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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत महारथी खुदीराम बोस

एक बार विदाई दे माँ, घूरे आसी.. हंसी-हंसी पोरबो फांसी देखबे भारतबासी” (ओ माँ मुझे एक बार विदा दो तनिक घूमकर आता हूँ.. हँसता हँसता फांसी के फंदे में चढ़ जाऊंगा और सारे भारतवासी देखेंगे) सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत महारथी खुदीराम बोस ही प्रथम क्रांतिकारी थे जो सबसे कम उम्र (18 वर्ष 8 माह 8 दिन) में फाँसी पर चढ़ा दिये गये थे. आज अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है..

स्वाधीनता के रणबांकुरे वे लोग कोई और ही थे. कौन थे ये दीवाने, कौन थे वे पागल, जिन्हें सिर्फ एक प्रेम, देश प्रेम था. जिन्हें सिर्फ एक धुन राष्ट्र धुन थी और जिनका सिर्फ एक मकसद भारत मां की आजादी. फिर चाहे खुद का शरीर बेड़ियों में जकड़ कर कोड़ों से क्यों ने उधेड़ दिया, जाए लेकिन तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें न रहें गाते हुए फांसी झूल जाने वाले कई नामों को हम जानते भी नहीं. खुदीराम बोस ऐसे ही रणबांकुरे हैं.

हाथ में गीता, गले में फंदा 18 साल 8 माह 8 दिन की बांकी उमर, इस उम्र में जब आज के अधिकतर नौजवान यारी-दोस्ती और मौज-मस्ती को ही जीवन का ध्येय और पर्याय समझ रहे होते हैं, एक समय में इसी उम्र का नौजवान हाथ में गीता लेकर भारत माता की जय बोलते हुए फांसी के फंदे पर झूल गया. इस बांके का नाम था खुदीराम बोस.

बंगाल में जन्में खुदीराम बोस
पं. बंगाल के मिदनापुर जिले में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस धर्मात्मा कायस्थ थे. उनकी पत्नी लक्ष्मीप्रिया देवी भी एक हाथ से धैर्य-धर्म को थामें रखतीं और दूसरे हाथ में स्वदेश प्रेम की डोर लिए चलतीं. यह शुभ संस्कारों का ही असर था कि 1889 में दिसंबर के तीसरे रोज जब दंपती के घर बालक ने जन्म लिया तो उसका नाम रखा खुदीराम. यानी शुभ लक्षणों वाला यह राम खुद्दारी की परिभाषा सार्थक करने वाला था. तो फिर वह अंग्रेजों की दासता को कैसे स्वीकार कर लेता.

नवीं कक्षा में छोड़ दी पढ़ाई
जैसे उजियारे पक्ष का चंद्रमा एक-एक रोज करके बढ़ता रहता है, बालक भी एक-एक वर्ष बढ़ता गया और हर उम्र के साथ उसमें देश को आजाद करा लेने की कसमसाहट बढ़ती गई. यह कसमसाहट एक दिन इतनी बढ़ी की नौवीं के छात्र खुदीराम बोस ने पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े. लेकिन यह सिर्फ शुरुआत थी. बालक बोस को अभी लंबी दूरी तय करनी थी.

स्वदेशी आंदोलन से जुड़े स्वदेशी आंदोलन जारी तो था, लेकिन बोस के विचारों में सिर्फ इतना होना ही काफी नहीं था, जरूरी था कि समग्र जनता में चेतना आए और वह घरों से निकल पड़े इस शासन को उखाड़ फेंकने के लिए. इसके लिए जरूरी था कि लोगों को जागरूक किया जाए. स्वदेशी आंदोलन में कई ऐसे ही क्रांतिकारियों का साथ बोस को मिला और मां के सपूतों का कारवां बढ़ चला. जब मारा अंग्रेज सिपाही को मुक्का साल था 1906. मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी हुई थी. खुदीराम ने इस प्रदर्शनी में आए लोगों को सोनार बांगला जिसे कि सत्येंद्रनाथ ने लिखा था, उसे बांटा. यह बेहद ज्वलंत विषय पर लिखा गया पत्रक था. एक पुलिस वाले ने उन्हें यह पत्र बांटते देखा तो पकड़ने दौड़ा.

तेजतर्रार खुदीराम बोस ने सिपाही के मुंह पर घूंसा मार दिया और पत्रक को लेकर वहां से आसानी से भाग निकले. प्रकरण पर अभियोग चलाया गया, लेकिन गवाह न मिलने पर बोस निर्दोष छूट गए. अंग्रेजों ने कर दिया बंगाल का विभाजन साल था 1905. इसी साल अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन कर दिया. लॉर्ड कर्जन इसे अंजाम देने वाला था, जिसके विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए. इन क्रांतिकारियों के दमन के लिए मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को भेजा गया.

किंग्सफोर्ड के दमनकारी तरीके बेहद क्रूर थे. उसने कई निर्दोषों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया. अंग्रेजी सरकार ने इस दरिंदें को बदले में सम्मान देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश बना दिया.

युगांतर समिति ने बनाई बदले की योजना
बंगाल में क्रांतिकारियों की एक समिति युगांतर इस पूरी दमनकारी नीति से रोष में थी. बोस पहले ही इससे जुड़ चुके थे. एक गुप्त बैठक में तय हुआ कि किंग्सफोर्ड को उसके किए की सजा तो मिलनी ही चाहिए. और तय कि गए दो नाम.

प्रफुल्लकुमार चाकी और खुदीराम बोस. खुदीरामको एक बम और पिस्तौल दी गई. प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दी गई. अब दोनों को अपना लक्ष्य साधने के लिए रवाना कर दिया गया. किंग्सफोर्ड को मारने निकल पड़े इधर, क्रांतिकारी यह योजना बना रहे थे और उधर किंग्सफोर्ड को भी अपने खिलाफ हो रही इस योजना की जानकारी कहीं से मिल गई थी. दोनों ही क्रांतिकारी बेहद सतर्क थे. सबसे पहले दोनों ने फोर्ड के बंगले की निगरानी की.

बघ्घी और घोड़े की पहचान की. खुदीराम तो फोर्ड के ऑफिस तक में हो आए. अगले दिन योजना के मुताबिक दोनों अपनी-अपनी जगह तैनात हो गए. और फिर हुआ धमाका हिंदुस्तान के पहले बम विस्फोट का दिन तय था 30 अप्रैल 1908. दोनों क्रांतिकारी किंग्सफोर्ड के बंगले के बाहर जमे हुए थे. रात साढ़े आठ बजे क्लब से एक बघ्घी निकली. खुदीराम बोस उसके पीछे भागने लगे.
रास्ते में अंधेरा था. उन्होंने निशाना साधकर आगे जा रही बघ्घी पर बम फेंक दिया. यह हिंदुस्तान में किया गया पहले बम विस्फोट के तौर पर दर्ज है.

तीन मील तक सुनी आवाज, लंदन तक गई गूंज
इतिहास के मुताबिक, इसकी आवाज तब तीन मील दूर तक सुनी गई. और फिर कुछ दिनों बाद तो लंदन तक में सुनी गई. हालांकि सौभाग्य से उस दिन किंग्सफोर्ड बच गया था क्योंकि उसकी बघ्घी क्लब से कुछ देर बाद निकली थी. खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों-रात नंगे पैर 24 मील भागते चले गए और वैनी रेलवे स्टेशन जाकर रुके.

खुदीराम बोस- Prerak Prasang in hindi

1908 को दी गई फांसी
लेकिन, अंग्रेज अफसर भी चुप नहीं बैठे थे. वैनी स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया. प्रफुल्ल कुमार चाकी ने युगांतर का कोई भेद न खुल जाए इसलिए खुद को गोली मारकर वीरगति का मुख चूमा. इधर खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए. कई बार अंग्रेजों को छकाने वाले खुदीराम को अब अंग्रेज नहीं छोड़ने वाले थे. लिहाजा 19 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी दे दी गई.

क्रांति का पर्याय बन गया खुदीराम का नाम
उनकी इस वीरगति का असर भारत के नौजवानों पर ऐसा पड़ा कि बोस क्रांतिकारी वीरता के पर्याय बन गए. उनका नाम लेकर नौजवान आजादी की कसमें खाने लगे और बंगाल में लड़के खुदीराम नाम लिखी किनारी की धोती पहनने लगी. यह धोती स्वदेशी और स्वतंत्रता आंदोलन का पर्याय बन गई.

आज जो हम तिरंगा लहरा रहे हैं और उसकी छांव के नीचे खड़े हैं, इसके भगवा रंग में वीर अमर क्रांति खुदीराम बोस का लहू शामिल है. उन्हें शत-शत नमन

साभार विकास पोरवाल एवं गूगल यद्यपि 1872 में कूका आंदोलन में 68 सेनानी शहीद हुए थे जिसमें 13 वर्ष का बालक जिसका 50 वां नं वह लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी पकड़ ली थी और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके हाथ नहीं काट दिए गए फिर उसकी शहादत हो गयी यह सबसे अल्पायु की शहादत है परंतु दुर्भाग्य है कि बड़े नामों के आगे इस बालक का नाम ज्ञात नहीं है जो शोध का विषय है तथापि अब 12 वर्षीय महारथी बाजी राऊत का नाम सबसे कम उम्र में शहादत देने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में दर्ज है (सन् 1938) उपरोक्तानुसार अज्ञात महारथी बालक को तोप के मुंह बांधकर उड़ाया गया था और महारथी बाजी राऊत गोलियों से भून दिया गया था इसलिए महारथी खुदीराम बोस की सबसे कम उम्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्हें फांसी दी गई थी उपरोक्त तीनों महारथियों को शत् शत् नमन है.

लेखक:- डॉ. आनंद सिंह राणा