Trending Now

बढ़ते तापमान से पैदा होते खतरे – डाॅ. किशन कछवाहा

विश्व मौसम विज्ञान दिवस 23 मार्च 2017 को डब्लू एम ओ की स्टेट ऑप द ग्लोबल क्लाईमेट नाम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व औद्योगिक कालखंड (1750-1850) की तुलना में धरती का तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इस कारण आर्कटिक क्षेत्र में तेजी से बर्फ का स्तर गिर रहा है। इस स्थिति में पेरिस समझौते पर तेजी से अमल नहीं किया गया तो हालात पहले से ज्यादा चिन्ता जनक हो सकते हैं।

पेरिस समझौता
पेरिस जलवायु समझौते की नींव सन् 2015 में रखी गयी थी। उस समय लक्ष्य यह रखा गया था कि इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान दो डिग्री संल्सियस के नीचे रखने के प्रयास किये जायें। दो डिग्री से ऊपर जाने पर समुद्र का स्तर बढ़ने की सम्भावना रहती है। मौसम के बदलाव के साथ-साथ पानी और भोजन की समस्यायें सामने आयेंगी।

विश्व में हानिकारक गैसों के उत्सर्जन की प्रक्रिया तथा अन्य प्रकार के प्रदूषणों के जरिये खराब हुये वातावरण के कारण ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं का मुकाबला करने के लिये दिसम्बर 15 में चिन्तन-मनन हुआ था। 195 देशों ने अपनी स्वीकृति भी दी थी। भारत ने भी सहमति जतायी थी। भारत सहित अन्य देश 48 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करते हैं। जबकि चीन और अमेरिका दोनों देश मिलकर 44 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करते हैं।

World Environment Day 2019 How Will Save Environment - जब बदल रहे जल, जंगल और जमीन के मायने तो कैसे बचेगा पर्यावरण? - Amar Ujala Hindi News Live

भारत का रूख:- भारत लगभग पाँच हजार वर्षों से पर्यावरण की सुरक्षा के लिये जागरूक रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत नान फासिल केटेगरी का फ्यूल जिनमें कोयले और अन्य चीजों के उपयोग से ऊर्जा उत्सर्जित की जाती है, उसे समझौते के अनुसार सन् 2030 तक 40 फीसदी तक कम कर देगा। (यह भी प्रयास है कि सन् 2020 तक अक्षय ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत ऊर्जा, वायोमास, जैव ईंधन का प्रयोग किया जाता है।) के प्रयोग से 175 से मेगावाट बिजली का इस्तेमाल करना है। इस ऊर्जा में सौर, पवन, जल विद्युत वायोमास, जैव ईंधन का प्रयोग शामिल है।

धरती पर जीवन के अस्तित्व को लेकर इक्कीसवी सदी ने कुछ अधिक ही चिन्तित कर दिया है। कतिपय बदलाव ऐसे भी हैं, जिन्हें शीघ्र ही न रोका जा सका तो ऐसा भी संभव है कि जीवन को अस्तित्व में रखने वाली परिस्थितियों में भी वापिस न लौटा जा सके।

संयुक्त राष्ट्र ने कुछ समय पहले इस बात का उल्लेख किया था कि जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिये हुये निर्णयों (क्योटो समझौता) के बाद भी सन् 1990 और सन् 2009 के बीच कार्बन डा-ऑक्सासाईड से प्रतिवर्ष भारी वृद्धि जारी रही। जलवायु में बदलाव से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय समिति का मानना है कि सन् 2000 और सन् 2030 के बीच विश्व स्तर का उत्सर्जन बहुत अधिक बढ़ जाने की आशंका है।

समुद्री जीवों पर खतरा:- सन् 2016 में तापमान में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज होने के कारण पहला असर यह हुआ कि समुद्र का जल स्तर पहले की तुलना में और अधिक बढ़ गया। समुद्री सतह का तापमान बढ़़ने से आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ का द्रव्यमान 04 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर गिरा। ट्राफिकल वाटर में समुद्री जीवों को बड़े पैमाने पर क्षति पहुँची। समुद्री जल स्तर में बढ़ोत्तरी होने के कारण आर्कटिक क्षेत्र के लाखों लोगों को विस्थापन का भी शिकार होना पड़ा।

स्वास्थ्य पर असर:- जलवायु में आये परिवर्तन से वातावरण में कार्बन डायऑक्साईड 400.0ः0.1 कण प्रति मिलियन बढ़ गया है। आगामी वर्षों में इसका मानव-स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा। त्वचा, श्वसन प्रणाली, ब्रेन और एलर्जिक बीमारियों में वृद्धि होगी। वैश्विक स्तर पर लोगों को इसका सामना करना पड़ेगा।

ग्लोबल वार्मिंग:- यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू हेम्प शायर द्वारा किये गये एक शोधपत्र में कहा गया है कि अगर वैश्विक तापमान औसत से कई गुना अधिक हो जाता है तो स्तनधारी जीवों का कद छोटा होने लगेगा। तात्पर्य यह कि आने वाले समय में इंसान भी बौने कद के होने लगेंगे। यह रिपोर्ट ‘‘साईंस एडवांसेज’’ में भी प्रकाशित हो चुकी है। ग्लोबल वार्मिंग ने वनस्पतियों और खाद्य सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर डाला है। अतः भोजन भी कम मिलने लगेगा। कम भोजन सामग्री से ये पशु भी प्रभावित होंगे और कम भोजन सामग्री से अपना गुजारा करने मजबूर होंगे। उसी परिस्थिति में अपने आपको ढालने लग जायेंगे। ऐसा समय 1.80 लाखा साल पहले तक रहा है। उस दौरान जानवरों का कद औसत कद से 14 फीसदी तक घट गया था।

अमेरिका के व्योमिंग स्थित बिगहार्न बेसिन में मिले जानवरों के चार समूहों के जीवाश्मों का अध्ययन करने के पश्चात् शोधकर्ताओं को उक्त अध्ययन में उनके द्वारा खाये गये पौधों और पिये गये पानी के बार में कुछ जानकारियाँ मिली हैं। इन्हीं से उनके कद के बारे में जानकारी मिली र्है। घोड़ों के पूर्वजों के कद में 14 फीसदी की कमी दर्ज की गयी। उनका वजन आठ किलो तक कम हो गया था।

इस शोध अध्ययन से पता सचलता है कि ग्लोबल वार्मिंग न केवल पर्यावरण के लिये हानिकारक है वरन् इंसानों पर भी उसका सीधा असर देखा जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन को लेकर सन् 1922 स्ट्राक होम सन् 1992 रियोडिजैनेरियो, सन् 2002 जोहाँसबर्ग सन् 2006 मांट्रियल और सन् 2007 बैंकाक सम्मेलनों में भी चिन्तायें व्यक्त की गयी और उसे सन्तुलित बनाये रखने के प्रयासों के लिये अनेक नियम कानून कायदे गढ़े गये। गत दिनों मेक्सिको खाड़ी स्थित लुईसियाना बहुचर्चित रहा क्योंकि इसका एक शहर डेलाक्रोईस धीरे-धीरे समुद में डूबता चला जा रहा है। उसका एक बड़ा हिस्सा पानी में समा भी चुका है। गत एक सौ वर्षों में उसकी 1886 वर्गमील भूमि डूब चुकी है। बड़े समुद्री तूफान से और भी अधिक नुकसान हो जाना सम्भावित है।

असल समस्या यह है कि ग्लैसियरों को कैसे बचाया जाये? ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक समुद्र की बर्फ का पूरी तरह से सफाया हो जाना सम्भावित है। अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आईस डाटा सेन्टर की सेटेलाईट से प्राप्त चित्र संकेत यही दे रहे हैं। वैज्ञानिकों का भी यही अनुमान है कि आर्कटिक समुद में 113 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची हुयी है। तेजी से बर्फ पिछलने की प्रक्रिया के कारण समुद्र भी गर्त होने लगेंगे।

जिस वायुमंडल से हम सांस ले रहे हैं, वह जानलेवा प्रदूषण का स्त्रोत बनाता चला जा रहा है, उससे हम पूरी तरह अचेत ही हैं या जानते हुये भी अनजान बने हुये हैं। यह हमारी बेबसी भी हो सकती है। दुनियाभर के शोधकर्ता और वैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार कर

चुके हैं कि दस मौतों में से एक मौत दम घोंटू धुयें के दुष्परिणाम से हो रही है। इन मौतों में से 50 प्रतिशत इन चार चीन, भारत, अमेरिका और रूस जैसे देशों के लोग शामिल हैं।

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि 50 सालों से भी अधिक समय से दुनिया भर के देश इस प्रकार के धुँआ मिश्रित वायुमंडल के दुष्प्रभावों को झेलते आ रहे हैं। इसमें तम्बाखू के सेवन से हाने वाली मौतें भी हैं। आज तो युवा पीढ़ी के 35 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में तम्बाखू का सेवन कर रहे हैं। जो धूम्रपान नहीं करते, वे भी इन धूम्रपान करने वालों द्वारा छोड़े गये धुयें से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो रहे हैं।

एक नये शोध:- अध्ययन के अनुसार सौ साल में पहली बार भारत के पर्यावरण में प्रदूषण का स्तर चीन से भी आगे निकल गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे ज्यादा प्रदूषित 100 शहरों में से 13 भारत में हैं।

वायु प्रदूषण से होने वाले रोग – Einsty.com

वातावरण में व्याप्त प्रदूषण को समाप्त करने की प्रक्रिया में सबसे अधिक मददगार पेड़-पौधे हैं, जिनकी संख्या बढ़ाई जाना सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र ने वान जलवायु परिवर्तन सम्मेलन सन् 2017 के पूर्व चेतावनी दी थी कि जल्द कदम नहीं उठाये गये तो बदलाव आयेगा। उससे तापमान बढ़ोत्तरी 3 से 3.5 डिग्री तक होने की आशंका है। इसी बीच यू.एन. वेदर एजेंसी ने कहा था कि वर्ष सन् 1917 सबसे गर्म हो जाने वाले तीन वर्षों में से एक होगा। इसे मानव निर्मित मौसम बदलाव माना है जिसके कारण सूखा, बाढ़ और भूकम्प जैसी आपदायें सम्भावित हैं।

ब्रिटिश वैज्ञानिक (फिजिसिस्ट) स्टीफन हाकिंग ने चेताया भी था कि जनसंख्या वृद्धि और बढ़ते बिजली के उपयोग के कारण आगामी 600 सालों से भी कम अवधि में धरती आग का गोला बन जायेगी और मानव जाति ही नष्ट हो जायेगी। हाकिंग ने यह भी कहा था कि आगामी हजारों वर्षों तक अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये मानव को कहाँ जाना होगा, जहाँ अभी तक कोई नहीं पहुँच पाया है।

        आलेख
डाॅ. किशन कछवाहा