Trending Now

  भगवान बिरसा मुण्डा “न भूतो न भविष्यति”

मुण्डा जाति वर्तमान झारखण्ड राज्य के दक्षिण-पूर्वी तथा सिंहभूमि से सटे भागों में निवास करती है। मुण्डाओं की भाषा मुण्डारी कहलाती है। मुण्डा जाति अनेक गोत्र समूहों से मिलकर बनी है, जिन्हे किलि कहा जाता है। एक किलि के सभी सदस्य एक ही पूर्वज के माने जाते है। किलि से ही कोल शब्द निकला है। इस तरह से मुण्डा और कोल पर्यायवाची शब्द है।

पश्चिमी सिंहभूमि में एक कोल्हान क्षेत्र है-ही। जन्म-तिथि की बात करें तो अंग्रेजी कलेण्डर के अनुसार बिरसा मुण्डा की कई जन्म-तिथियां सामने आती है। परन्तु विद्वानों ने सर्वसम्मति से 15 नवम्बर 1875 को उनकी जन्मतिथि के रूप में स्वीकार किया है। बिरसा मुण्डा के पिता का नाम सुगना मुण्डा तथा माता का नाम करमी था। बिरसा मुण्डा का जन्म-स्थान उलीहातु नामक ग्राम माना जाता है, बाद में इसका नाम खुटकट्टरी पड़ गया।

सुगना मुण्डा की कुल पांच औलादे थी, जिसमें बिरसा मुण्डा चौथी संतान थे। सुगना मुण्डा को अपने बेटे बिरसा मुण्डा से बहुत प्यार था, वह उसे पढ़ा-लिखाकर एक योग्य व्यक्ति बनाना चाहते थे। उस वक्त अंग्रेज भारतवासियों को गुलाम बनाकर उनकी सुख-संपदा का दोहन कर रहे थे। ईसाई मिशनरी आदिवासी समाज के बीच जाकर और उनकी दुखती नस पर हाथ रखते हुए उनके सामने धर्म परिवर्तन का विकल्प रखा और बदले में ढे़र सारी सुविधाएं तथा सुरक्षा की गारण्टी देने का वायदा किया। वनवासी ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आ गए और वे ईसाई धर्म अपनाने लगे। बिरसा मुण्डा के पिता सुगना मुण्डा ने भी हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपना लिया। फिर भी बिरसा को उस बाम्बा गांव में जहां पर उस समय बिरसा के माता-पिता अपने बच्चों के साथ रह रहे थे, स्थानीय स्कूल में प्रवेश नहीं मिल सका। इसी बीच बिरसा को उनके पिता ने उनकी मौसी के साथ ख्ंटगा गॉव में भेज दिया, जहां पर बिरसा ने निम्न प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। बिरसा पढ़नें में बहुत तेज थे, अतएव वह चाईवासा में जर्मन मिशनरी स्कूल में पढ़ने लगे।

1886 से 1890 तक पूरे पांच वर्ष छात्रावास में रहकर बिरसा जर्मन मिशनरी स्कूल में पढते रहे। बासुरी और तुमड़ी बजाने का बिरसा को बहुत शौक था। जंगल के एकांत में बैठकर जब 15-16 वर्षीय बिरसा बांसुरी की तरंग छोड़ते तो वन्य जीवों के कान खड़ें हो जाते थे, और वनस्पतियां भी लहराने लगती थी। बांसुरी बजाने के बाद वह लोकगीत गाने लगते थे और फिर एकाएक गंभीर हो जाते थे और सोचने लगते थे- क्यों न इस अत्याचार और शोषण का विरोध करते हुए मरा जाए। यदि हम अन्याय के खिलाफ आवाज उठाए, संघर्ष करें तो कठिनाइयां अवश्य आएगी, परन्तु निश्चय ही कोई ऐसा विकल्प निकलेगा जिससे हम इंसानों की तरह जी सकेगें और प्रकृति के उन सभी उपहारों को भोग सकेंगे जो सारे मनुष्यों को ईश्वर ने समान रूप से दिए है। उन्होने तब तक यह भी देख लिया कि वनवासियों का अबाध शोषण जारी था। 16 वर्षीय बिरसा मिशनरियों की चाल समझ गए थे। उन्होने आक्रोश में आकर एक दिन पादरी को खरी-खोटी सुना ही दिया कि बेईमान मुण्डा नहीं, तुम हो, तुम लुटेरो हो, तुम धोखेबाज हो, तुम हमारा धर्म बदलने आए हो,हमें झूठे सपने दिखने आए हो। तुम सूदखोरों और जमीदारों से मिले हो। हमारी गरीबी का तुमने मजाक उडाया है, अब हम तुम्हे नहीं छोडेंगें। इस पर बिरसा को मिशनरी स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना से उनके वनवासी सरदार जो लालचवश पहले ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे, अब वे ईसाइयों के खिलाफ हो गए। बिरसा की उम्र ज्यादा नहीं थी, पर संवेदना गहरी थी, विचार सुलझे हुए थे। सोलह वर्ष की आयु में बिरसा ने अपनी जाति का उद्वार करने का संकल्प लिया और उसके लिए तैयारी शुरू कर दी। उन्होने पिछले सौ वर्षो में हुए वनवासी आंदोलनो का अध्ययन किया और ‘करो या मरों’ की शैली में काम करने की तैयारी करने का संकल्प लिया।

वह यह भी कहते थे- ‘अपने विचारों में सुधार लाओ, अपने बच्चों को स्कूल भेजो। अपने अंदर से निराशा और भ्रम निकाल फेंको। आशावादी बनो और मेहनत पर भरोसा करो, कभी किसी के साथ छल मत करो, झूठ मत बोलो। बिरसा यह मानते थे कि वनवासी समाज के पतन का सबसे बड़ा कारण धार्मिक अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियां है। बिरसा ने अज्ञान, अन्याय और दमन के विरूद्ध लड़ने वाले नायक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। लोग भारी संख्या में उनके उपदेश सुनने को आने लगे। वे यज्ञोपवीत धारण करते थे, खड़ाऊ पहनते थे और सिर पर 20 हाथ का सफेद साफा पहनते थे। उनकी धोती हल्दी के रंग में रंगी रहती थी। बिरसा अपने उपदेश में वनवासियों को कहते थे-वे बलि चढ़ाना बंद करें, मृतकों के साथ धन-दौलत गाड़नें की प्रथा त्यागें, भूत-प्रेतों की पूजा बंद करें, तांत्रिकों को महत्व न दें। आदिवसी यह मानने लगे थे कि बिरसा उनके लिए पैगम्बर बनकर अवतरित हुए है। उनकी वाणी में इतना असर हो गया था कि वे जो कहते थे वहीं हो जाता था।

बिरसा की प्रेरणा से आदिवासियों ने अपने तीरों की नोंके फिर से नुकीली कर ली थी, और उन्हे विष में भिगोंकर जान लेने के लिए उपयुक्त बना लिया था। उन्होने अपनी कुल्हाडियों की धार फिर से तेज कर ली थी। इस तरह से बिरसा मुण्डा ने अपने जाति के लोगों को निर्भय होना और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का रास्ता अपनाने के लिए तैयार कर दिया था। इस तरह से बिरसा मुण्डा अपने मिशन में कामयाब हुए।

बिरसा महाशक्तिमान होकर आदिवासियों का नायक बनकर छोटा नागपुर क्षेत्र में उभर आये। ऐसी स्थिति 20 साल का लड़का बिरसा मिशनरियों की आंखों में इतना खटकने लगा कि उन्हे वनवासियों को ईसाई बनाने का अपना स्वप्न अब दूर तक नहीं नजर आ रहा था। अंग्रेज डरने लगे थे कि कहीं ऐसा न हो कि आदिवासी एकजुट होकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक मुसीबत बन जाएं। ऐसी स्थिति में सरकार ने बिरसा की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। बड़ी मशक्कत और प्रयास के बाद बिरसा को चकलद से गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हे दो वर्ष का कठोर कारावास और 50 रू. का जुर्माना किया गया। फिर भी बिरसा मुण्डा पहले ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आए थे, जिन्होने वनवासियों को स्वाभिमान के साथ जीने की राह दिखाई थी, यहीं कारण था कि वनवासी बिरसा का साथ छोड़ने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। जेल से रिहा होने पर बिरसा ने अब घर-घर में क्रांति का बिगुल बजाने और वनवासी ताकत को मजबूत करने का फैसला किया। इसके बाद वह डेढ़ वर्ष एकांतवास में रहे और गंभीर चिंतन-मनन करते रहें। बिरसा ने अंग्रेजों से निर्णायक लड़ाई लड़ने का फैसला किया। उनका कहना था कि अंग्रेजों की पुलिस तथा सेना के साथ लडाई लड़ते-लड़ते यदि वनवासी शहीद हुए तो वे इतिहास में वे अपनी वीरता का अमर अध्याय अपने लहू से लिख जाएंगें। जिसे पढ़कर भावी पीढ़ी का खून खौलेगा ओर वह अपने पूर्वजों की हार को जीत में बदलकर दम लेगी।

तत्संबंध में 22 दिसम्बर 1899 को बिरसा ने कोतागाड़ा के कब्रिस्तान में अंतिम निर्णायक बैठक की और इसके पश्चात् आग लगाने और तीर चलाने का अभियान शुरू हो गया। इससे कुछ लोग घायल हुए, कुछ की जानें गई, आग लगाने से काफी नुकसान हुआ। ऐसी स्थिति में बिरसा की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया गया। बिरसा मुण्डा को लेकर अंग्रेजों में भय व्याप्त हो गया। आखिर गरीब घर का पढ़ा-लिखा 24 वर्षीय युवक बिरसा देखते-देखते इतना प्रभावशाली कैसे बन गया कि उसके इशारे पर हजारों वनवासी आंदोलनकारी हांथों में जलती मशाले, तीर कमान, बरछी-भाला तथा नंगी तलवारें लिए अंग्रेज पुलिस व सेना का भय भूलकर उनसे टकराने के लिए निकल पड़ें। इतना ही नहीं बिरसा के अनुयाइयों ने मिशनकारियों के खिलाफ हमले बंद कर दिये और सरकार से सीधी लड़ाई की घोंषणा कर दी। इस दौरान खूंटी के थाने समेत कई जगहो पर हमला हुआ। सरकार ने यह घोंषणा की कि जो कोई बिरसा को गिरफ्तार कराएगा या उसके छिपे होने की स्थान की सूचना पुलिस को देगा उसे जीवन भर के लिए उसके गांव का लगान-पट्टा दे दिया जाएगा।

19 जनवरी को सभी सरकारी बल एक साथ मिल गए और उन्होने बिरसा आंदोलन के गढ़ माने जाने वाले सभी क्षेत्रों को चारों ओर से घेर लिया ओैर छापे मारे। इस क्षेत्र के सभी पुरूष गिरफ्तारी से बचने के लिए घर छोड़कर जंगलों में भाग गए थे। फरार आंदोलनकारियों की संपत्ति जप्त कर ली गई। उनकी गिरफ्तारी होने तक सरकार ने उनकी पत्नियों व बच्चों केा पुलिस निगरानी में रखने के आदेश जारी कर दिए। बिरसा के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों ने पुलिस के हाथों बड़ी मार झेली। उन्हे तरह-तरह की यातनाएं दी गई। 15000 से अधिक मुण्डा पुलिस की मार से बचने के लिए ईसाई बन गए। बिरसा आंदोलन के प्रमुख सूत्रधर डोंका मुण्डा और मझिया मुण्डा ने 32 आंदोलनकारियों के साथ 28 जनवरी 1900 को आत्म समर्पण कर दिया। बिरसा आन्दोलन को इससे भारी धक्का लगा, परन्तु अब भी आंदोलन पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था। इसी बीच सरकार ने बिरसा की गिरफ्तारी के लिए 500 रू. का इनाम घोंषित कर दिया। बिरसा का भेद जानने वाले कुछ आदमी बदगांव के जमीदार जगमोहन सिंह से मिल गए और सात आदमी सेंतरा के पश्चिम छोर पर स्थिति उस स्थान में पहुंचकर सोते हुए बिरसा को गिरफ्तार कर लिया। बिरसा को मुकद्मों में फंसाकर आजीवन जेल में सड़ा देने का प्रशासन पूरी तैयारी कर रहा था। बिरसा को जेल में यातनाएं देने का दौर जारी था, परन्तु इसकी खोज-खबर लेने वाला केाई नहीं था। हाथों में हथकड़िया, पैरा में बेड़िया और कमर में भारी सीकड़ बांधकर बिरसा को इतना अधिक कष्ट दिया गया कि वे न ठीक से बैठ सकते थे, न खड़े रह सकते थे, न ही चल सकते थे। वर्ष 19000 को जून के 09 बजे असहाय अत्याचारों के चलते बिरसा को खून की उल्टियां आई और उनकी मृत्यु हो गई। 25 वर्ष के बिरसा मुण्डा जो कुछ करके इस धरती से बिदा हुए उसके आधार पर यही कहा जा सकता है।

वीरेन्द्र सिंह परिहार
8989419601