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भारतीय वस्त्र उद्योग को तार-तार किया अंग्रेजों ने / २

विनाशपर्व
अंग्रेजों ने तय करके भारतीय वस्त्र उद्योग को नष्ट किया. वे इस उद्योग कि महत्ता और इसके कारण भारत के वैश्विक महत्व को समझते थे. इसलिए भारत में उनके आगमन के मात्र ५ वर्षों पश्चात, १६१३ मे, उन्होंने अपनी पहली मिल (वस्त्रों का कारख़ाना) भारत के दक्षिणी छोर, तामिलनाडु के मछलीपट्टनम में लगाया. उन दिनों मछलीपट्टनम कलमकारी कपड़ों के लिए प्रसिध्द था. यहां के वस्त्रों को विदेशों में भी अच्छी मांग थी.
अंग्रेजों के आने से पहले, भारतीय वस्त्रों का निर्माण मदुरै, पाटन, सूरत, महेश्वर (मालवा), वाराणसी आदि स्थानों पर होता था, किन्तु बंगाल यह भारतीय वस्त्रों के निर्माण का प्रमुख केंद्र था. दुनिया में सबसे ज्यादा मांग यहां के कपड़ों कि होती थी. ‘ढांके कि मलमल’ तो दुनिया भर में राजे, रजवाड़ों और अमीरों कि पहली पसंद रहती थी. यूरोप में इसका निर्यात बड़े पैमाने पर होता था. किन्तु यह जापान से अमेरिका तक जाती थी.
बंगाल में अंग्रेजों की हुकूमत आने से पहले तक (प्लासी के युध्द के पहले तक), बंगाल का कपड़ा यह पश्चिम में तुर्कस्तान, ईरान, इजिप्त, इटली आदि देशों में जाता था. पूर्व में जावा, चीन और जापान इन देशों में भी बंगाल के मलमल कि और अन्य प्रकार के सूती वस्त्रों कि अच्छी खांसी मांग थी.
शशि थरूर ने अपने पुस्तक ‘एन इरा ऑफ डार्कनेस’ में लिखा हैं कि १७५० के दशक में कपड़ों कि यह निर्यात प्रतिवर्ष एक करोड़ साठ लाख से भी ज्यादा थी. (कल्पना करें, यह एक करोड़ साठ लाख रुपये, आज से पौने तीन सौ वर्ष पहले के हैं. आज के हिसाब से इसकी कीमत हम आंक सकते हैं.) इसके अतिरिक्त बंगाल से रेशम की होने वाली निर्यात यह प्रतिवर्ष ६५ लाख रुपयों की होती थी.
लगभग २ करोड़ २५ लाख रुपयों की इस पूरी निर्यात में से, भारत में अपनी कंपनियां खोल कर बैठे विदेशी व्यापारी (अंग्रेज़, पोर्तुगीज, डच, फ्रेंच आदि) लगभग ६० लाख रुपयों की निर्यात यूरोप को करते थे. इसके कारण, सोलहवी शताब्दी के मध्य से तो अठारहवी शताब्दी के मध्य तक, बंगाल के सूती और रेशम के वस्त्र उद्योग में ३३% से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई. किन्तु १७५७ मे, अंग्रेजों द्वारा प्लासी की लड़ाई जीतने के साथ ही दृश्य बदला.
भारतीय वस्त्र उद्योग को समाप्त करने की शुरुआत अंग्रेजों ने बंगाल से की. वे वहां केवल व्यापारी नहीं, तो क्रूरतम शासक बन गए. १७५७ के पहले तक, अंग्रेज़ ‘ब्रिटिश पाउंड’ में भारतीय माल खरीदते थे. अर्थात हमें विदेशी मुद्रा मिलती थी, जिसके अलग फायदे थे. किन्तु प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद, बंगाल की सत्ता पर काबिज होते ही, अंग्रेजों ने ब्रिटिश पाउंड में भारतीय माल खरीदना बंद किया. अब वे बंगाल से मिलने वाले राजस्व से भारतीय माल खरीदकर उसे यूरोप में बेचने लगे. इसलिए भारतीय उत्पादकों को कम कीमत मिलने लगी.
किन्तु इसके बाद भी वैश्विक बाजार में भारतीय कपड़े, स्पर्धा में थे. उनका लागत मूल्य ही कम था. इसलिए बाजार की कीमत भी कम थी. इंग्लैंड में वस्त्र उद्योग प्रारंभिक अवस्था में था. इसलिए वह भारतीय वस्त्र उद्योग से स्पर्धा करने की परिस्थिति में नहीं था. ‘कम कीमतें और अच्छी गुणवत्ता’ यह भारतीय कपड़ों की विशेषता थी, जो इंग्लैंड के उत्पादकों के लिए संभव नहीं थी.
लेकिन अंग्रेज़ व्यापारी, ब्रिटिश सरकार यह सब अपने माल के लिए बाजार चाहते थे. उन्हें भारतीय वस्त्र उद्योग से प्रेम या सहानुभूति रहने का कोई कारण नहीं था. इसलिए अंग्रेजों ने कपड़ा उद्योग में सिरमौर बनने के लिए सभी प्रकार की कुटिल चाले चली. गुणवत्ता में सुधार लाकर, भारतीय वस्त्रों की गुणवत्ता से आगे निकल जाना संभव नहीं, ये अंग्रेज़ अच्छे से जानते थे. इसलिए उन्होने तमाम गलत और अनैतिक हथकंडे अपनाएं.
ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने बंगाल के बुनकरों के करघे (looms) तोड़ दिये. अठारहवी शताब्दी के अंग्रेज़ व्यापारी विलियम बोल्ट्स ने एक पुस्तक लिखी, ‘कन्सिड्रेशन ऑन इंडियन अफेयर्स’. वर्ष १७७२ में प्रकाशित इस पुस्तक में बोल्ट्स ने ईस्ट इंडिया कंपनी के तमाम गलत और अनैतिक कार्यों का कच्चा चिठ्ठा खोल के रख दिया. इस पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक १९४ पर बोल्ट्स ने लिखा हैं कि अंग्रेजों ने देश भर के, और विशेषतः बंगाल के, कुशल कारीगरों के अंगूठे काट दिये, ताकि वे हथकरघा चलाने के काबिल ही न रहे. अंग्रेजों के दुष्टता की और क्रूरता की यह पराकाष्ठा थी..!
इसी बीच अंग्रेजों ने वस्त्र बनाने कि भारतीय तकनीक के आधार पर, वर्ष १७६५ के लगभग कुछ यंत्र बनाएं. इन यंत्रों में कम समय में ज्यादा वस्त्र बनते थे. बाद में भारत में हुकूमत में आने के बाद, जब कुछ भारतीय व्यापारियों ने उन यंत्रों को भारत में लाने का प्रयास किया, तो अंग्रेजों ने उस यंत्र पर ८०% से ज्यादा आयात शुल्क (कर) लगाया. किन्तु उसी समय, इंग्लैंड में बने वस्त्र भारत में आयात करने पर शुल्क था मात्र ५%. १८१८ के बाद भारत के अधिकतम भूभाग पर अंग्रेजी सत्ता कायम हो गई थी. इसलिए इंग्लैंड से आने वाले माल पर कर या आयात शुल्क लगाने का अधिकार भारतीयों के पास नहीं था.
इंग्लैंड में चल रहा औद्योगीकरण, वहां भांप पर चलने वाले कपड़ों के कारखाने, भारतीय वस्त्रों पर इंग्लैंड में लगा भारी भरकम आयात कर, अंग्रेजी वस्त्र भारत में लगभग करमुक्त, भारतीय हथकरघा उद्योग पर अंग्रेजों द्वारा किए गए क्रूरतापूर्ण हमले, इन सब का परिणाम यह रहा की अठारहवी शताब्दी के प्रारंभ में, वैश्विक कपड़ा उद्योग में जिस भारत का हिस्सा २५% से ज्यादा था, वहां का कपड़ा उद्योग, उन्नीसवी शताब्दी के प्रारंभ होते समय रास्ते पर आ गया था. भारतीय बाजार, सस्ते अंग्रेजी कपड़ों से पट जाने लगा. कपास की पैदावार तो अभी भी बंपर हो रही थी. किन्तु वो सारा कपास, इंग्लैंड जा रहा था.
किसी जमाने में भारत के मलमल का डंका दुनिया में बजता था. ढाका के मलमल के बारे में चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (Yuan Chwang) ने ६२९-६४५ में, सम्राट हर्षवर्द्धन के राज्य मे, लिख के रखा हैं कि, ‘यह वस्त्र तो इतना महीन हैं, जैसे प्रातः कि धुंध !” पहली शताब्दी के रोमन लेखक पेट्रोनीयस ने सटेरिकॉन (Satyricon) में भारत के मलमल से बने वस्त्रों की खूबियों के बारे में लिखा हैं.
जिस ‘ढांके की मलमल’ को पहनने के लिए यूरोप के अमीर, उमराव और दक्षिण एशिया के राजे, रजवाड़े लालायित रहते थे, ऐसे ‘ढाका’ के हालात बहुत दयनीय बन गए थे. अनेक कुशल बुनकर भिखारी बन गए थे. जिस ढाका की जनसंख्या १७६० में, जब यह ‘जहाँगीर नगर’ कहलाता था, कुछ लाख थी, उसी ढाका में १८२० के दशक में मात्र ५० हजार लोग बचे थे. (अर्थात बाद मे, अन्य कारणों से ढाका फिर गुलजार हुआ.) इधर इंग्लैंड से भारत को वस्त्रों का निर्यात बढ़ रहा था. वर्ष १८३० में वह ६ करोड़ यार्ड था, तो १८५७ के क्रांतियुध्द के तुरंत बाद, अर्थात १८५८ के आंकड़े बताते हैं की भारत ने इंग्लैंड से १०० करोड़ यार्ड से ज्यादा के वस्त्र आयात किए !
बीसवी सदी के प्रारंभ में भारत के उद्योगपतियों ने भी कपड़ों के आधुनिक कारखाने खड़े किए. किन्तु फिर भी, पहले विश्व युध्द से पहले, वर्ष १९१३ के आंकड़े बताते हैं की भारतीय कारखाने, भारत में खपने वाले कपड़े का मात्र २०% ही उत्पादन कर रही थी. कहां विदेशों में, सभी दिशाओं के देशों को सूती, रेशमी कपड़ों का निर्यात कर के, विश्व के कपड़ा बाजार का एक तिहाई या एक चौथाई हिस्सा काबिज करने वाला भारत निर्यात तो दूर की बात, अपने ही देश की आवश्यकताओं को पूरी करने में सक्षम नहीं रहा..! वैदिक काल से चल रहे, सारी दुनिया को सूती वस्त्र पहनाने वाले, उच्च गुणवत्ता का रेशम / मलमल बनाने वाले इस भारतीय वस्त्र उद्योग को अंग्रेजों ने नष्ट होने के निकट पहुंचा दिया था…!
संदर्भ-
1. Textile in Ancient India – Lallanji Gopal (Published in ‘Journal of the Economic and Social History of the Orient’ Vol 4. No. 1 – February 1961)
2. Our Oriental Heritage : India and Her Neighbors – Will Durant
3. Cotton as a World Power : Study in the Economic Interpretation of History – James A. B. Scherer
4. History of Cotton Manufacturers – Edward Baines (1835)
5. The Industrial Arts of India – Sir George Birdwood
6. भारतीय वस्त्र परंपरा में औद्योगिक हस्तक्षेप – प्रमोद भार्गव (हिन्दी विवेक)
7. Indian Textile Industry in 17th and 18th Centuries : Structure, Organization and Responses – Kanakalatha Mukund
8. How British destroyed Indian Textile Industry – Shubham Verma in indiafacts.org
9. Considerations of Indian Affairs – William Bolts (1772)
10. The Fabric of India – Rosemary Crill
11. The Story of Dhaka Muslin – Khademul Islam
12. Ancient Indias Development in Textiles – Stephan Knapp
13. An Era of Darkness – Shashi Tharoor
14. History of British India – James Mill
15. India and World Civilization – Prof D. P. Singhal
16. भारत में अंगरेजी राज – सुंदरलाल (१९२९ में प्रकाशित)
लेखक:- प्रशांत पोळ