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भारत का लोकतंत्र अमर है क्योंकि सनातन धर्म की तरह वह देश की आत्मा है

– रवीन्द्र वाजपेयी

हमारे देश का लोकतंत्र निश्चित रूप से अमृत पीकर पैदा हुआ और इसीलिए न सिर्फ जिंदा अपितु तंदुरुस्त भी है।दरअसल सनातन धर्म की तरह लोकतंत्र भी हमारे देश की आत्मा है। इसीलिए आदि काल से शासन व्यवस्था समाज केंद्रित रही। भगवान राम और श्रीकृष्ण ने अलौकिक शक्तियों के बावजूद अनेक बड़े काम समाज को साथ लेकर ही संपन्न किए।

भारत का जो स्वाधीनता संग्राम आंदोलन था उसमें भी चूंकि महात्मा गांधी ने समाज के सभी वर्गों का सहयोग लिया इसीलिए वह जनांदोलन बन सका। वस्तुतः भारत में लोकतंत्र एक राजनीतिक व्यवस्था न होकर मानसिकता है। इसलिए जब कोई कहता है कि उसकी हत्या कर दी गई तब हंसी आती है। दरअसल ऐसा कहने वाले वे लोग हैं जो स्वयं को राजपरिवार का मानते हैं और इसीलिए जैसे ही उनकी हैसियत खतरे में पड़ती है, वे लोकतंत्र की हत्या हो गई का शोर मचाकर अपनी रक्षा में जुट जाते हैं।

आजकल देश में जहां देखो लोकतंत्र की हत्या हो जाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है। हालांकि ये चलन काफी पुराना है। जनता की मदद से सत्ता में जमे कुछ लोगों को ये गुमान हो चला है कि वे इस देश के सर्वेसर्वा हैं । लिहाजा उनकी शान में किसी भी प्रकार की कमी न होने पाए। और जब भी ऐसा होता है , वे लोकतंत्र की सेहत को लेकर चिंता जताते हुए इस अवधारणा को मजबूत करने का षडयंत्र रचते हैं कि उनके महत्व में कमी आई तो देश टूट जायेगा। मानो, इस देश को एकसूत्र में बांधने वाले वे ही हों।

आजादी के बाद देश में राजा – महाराजाओं की रियासतें खत्म कर दी गईं। बदले में उन्हें कुछ अधिकार और सुविधाएं जरूर दी गईं जो 1969 में भी वापस ले ली गईं। लेकिन लोकतंत्र की आड़ में एक नव सामंतवाद अपनी जड़ें जमाने लगा। प्राचीन काल में राजा को ईश्वर का प्रतिरूप माना जाता था। उसी सोच को लोकशाही में भी दूसरी तरह से स्थापित करने का काम इन नव सामंतों ने किया।

यही कारण है कि ये अपने को समाज और कानून से भी ऊपर समझने लग गए। और जब भी इनकी शान में जरा सी कमी होती है तब – तब ये लोकतंत्र और देश की रक्षा के नाम पर जनमानस को भयाक्रांत करने में जुट जाते हैं। इस वर्ग को न तो लोक निंदा की फिक्र है और न ही कायदे कानून की। इनके मन में ये बात घर चुकी है कि ये आम जन की तुलना में बहुत श्रेष्ठ हैं अतः उनके लिए खींची मर्यादा रेखा इन पर लागू नहीं होती। इसलिए लोकतंत्र कब जीवित रहता है और कब उसकी हत्या कर दी जाती है उसका आकलन यही वर्ग करता है। इस बारे में उल्लेखनीय है , देश ही नहीं दुनिया में साम्यवादियों की पहली चुनी हुई सरकार केरल में बनी जिसके मुख्यमंत्री स्व. ईएमएस नंबूदरीपाद थे।

अचानक कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष स्व. इंदिरा गांधी को एहसास हुआ कि लोकतंत्र खतरे में है और तब उनके पिता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व.पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुत्री को संतुष्ट करने के लिए उस सरकार को भंग कर दिया। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के बाद भी ये सवाल आज तक अनुत्तरित है कि जिन पं.नेहरू को इस देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय दिया जाता है , उन्होंने उस चुनी हुई राज्य सरकार को महज इस वजह से भंग करवा दिया कि उनकी बेटी को वह पसंद नहीं थी। उसके बाद भी लोकतंत्र की रक्षा (?) के नाम पर कितनी चुनी हुई राज्य सरकारों को बिना किसी कारण के भंग किया जाता रहा इस पर कई शोध लिखे जा सकते हैं। कालांतर में यही प्रवृत्ति सत्ता पर काबिज अन्य विचारधारा के लोगों ने भी निर्लज्जता के साथ प्रदर्शित की। लेकिन खुद को इस देश का भाग्यविधाता समझने की जो सोच केरल की साम्यवादी सरकार को भंग करने के तौर पर विकसित हुई उसकी ही पराकाष्ठा 12 जून 1975 को देखने मिली जब अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा जी का चुनाव रद्द कर दिया।

परिणामस्वरूप वे प्रधानमंत्री बने रहने की पात्र नहीं रह गईं। विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान की शपथ लेकर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हुईं श्रीमती गांधी को सरकारी खजाने से तनख्वाह प्राप्त करने वाले एक अदना से न्यायाधीश का वह फैसला राज सत्ता से बगावत का ऐलान लगा और उन्होंने उसका सम्मान करते हुए आने वाली पीढ़ियों के समक्ष उदाहरण पेश करने के बजाय आपातकाल थोप दिया। समूचा विपक्ष जेल में ठूंस दिया गया, मौलिक अधिकार निलंबित हो गए, उक्त फैसला बदलवाकर अपनी गद्दी सुरक्षित कर ली गई और जब 1976 में जनता का सामना करने का अवसर आया तो संसद का कार्यकाल एक साल बढ़ाकर ये साबित करने की जुर्रत की गई कि देश और लोकतंत्र वही है जो एक परिवार के हितों और महिमाओं को संरक्षित रखे। इसके विपरीत हुआ कोई भी कार्य या निर्णय लोकतंत्र की हत्या करार दिया जावेगा। बीते 9 साल से लोकतंत्र की हत्या का शोर कुछ ज्यादा ही सुनाई दे रहा है। कारण भी किसी से छिपा नहीं है। दरअसल जबसे एक परिवार विशेष के हाथ से सत्ता की लगाम जनता ने छीनकर किसी और को दी तबसे ही कभी संविधान खतरे में पड़ता है तो कभी न्यायपालिका। और इन सबके साथ जुड़ी संस्थाओं के बारे में भी तरह-तरह के प्रलाप होते हैं।

एक छोटी सी अदालत ने राज परिवार के एक सदस्य के बारे में कोई फैसला क्या दिया, आसमान फट पड़ा। और लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाए जाने की चिल्ल पुकार मचने लगी। बात राजघाट तक जा पहुंची। देश के लिए परिवार द्वारा किए गए बलिदानों की याद दिलाकर इस देश की वसीयत अपने नाम लिखी होने के दावे किए गए। लेकिन जिन महात्मा गांधी की समाधि पर लोकतंत्र के नाम पर आंसू बहाए जाते रहे उनके वंशजों को इस लोकतांत्रिक सामंतवाद में कौन सी जागीर दी गई, इसका बखान करने की न किसी को फुरसत मिली और जरूरत महसूस की गई। उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि लोकतंत्र की आड़ में निजी हितों को साधने की परिपाटी को विकसित करते हुए उसे राष्ट्रहित का नाम दिया जाने लगा।

लेकिन 21 वीं सदी का भारत और उसमें बड़ी हो रही नई पीढ़ी को इस व्यक्ति केन्द्रित मानसिकता में कोई रुचि नहीं रही, ये बात जिन्हें अब तक समझ नहीं आई तो वे हमेशा शिकायत करते रहेंगे। लोकतंत्र का तकाजा है कि किसी के साथ अन्याय न हो लेकिन उसी के साथ ये भी कि किसी को कानून से ऊपर न समझा जाए। ये देश और उसका लोकतंत्र किसी व्यक्ति, परिवार अथवा पार्टी की निजी जागीर न होकर तकरीबन डेढ़ अरब देशवासियों की अमानत है, जिसकी रक्षा करना वे बखूबी जानते हैं। और वह इतना मजबूत हो चुका है कि कोई भी ताकत उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकती। अतीत में जिसने भी ये जुर्रत की उसने उसका दंड भोगा और भविष्य में भी ऐसा ही होगा।

लेखक मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक है