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मतान्तरण : अतीत की गलतियों को सुधारने का समय

रवीन्द्र वाजपेयी

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा छल , लालच और जोर – जबरदस्ती से किये जाने वाले मतान्तरण के आरोपों संबंधी याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा गया कि यदि वे सही हैं तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है , जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए । याचिकाकर्ता ने मतांतरण रोकने के लिए क़ानून बनाने की जो मांग की उस पर अदालत ने केंद्र सरकार से हलफनामा माँगा है ।

उल्लेखनीय है म.प्र और उड़ीसा में इस बारे में पहले से कानून बने हुए हैं और उनके अंतर्गत कार्रवाई भी की जाती रही है । उक्त कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहरा दिया था । उस आधार पर याचिकाकर्ता की मांग में वजनदारी प्रतीत होती है । उसके द्वारा चिंता जताए जाने के बाद हो सकता है केंद्र सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़े । बहरहाल ये मुद्दा काफी समय से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बना हुआ है । हालाँकि पूर्ववर्ती केंद्र सरकारें चूंकि इस बारे में उदासीन रहीं इसलिए देश के बड़े हिस्से में मतान्तरण एक सुनियोजित अभियान के रूप में चलता रहा । विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में मतान्तरण का काफी जोर देखा जा सकता है । बिहार , झारखण्ड , उड़ीसा , म.प्र और छत्तीसगढ़ में चूंकि अनु. जनजाति की जनसंख्या काफी ज्यादा है लिहाजा वहां मतान्तरण थोक के भाव हुआ । इसके पीछे जितनी गलती ईसाई मिशनरियों की है उससे ज्यादा हमारे देश के राजनताओं की भी रही जो अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर देश के दूरगामी हितों को ताक पर रख देते हैं । इसमें दो राय नहीं हैं कि मिशनरियां शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के साथ अनु. जाति और जनजाति बहुल इलाकों में डेरा जमाकर लोगों को आकर्षित करती हैं ।

भारत के संविधान में अपने धर्म का प्रचार करना जायज माना गया है । स्वेच्छा से यदि कोई व्यक्ति अपना धर्म त्यागकर दूसरे को अपनाना चाहता है तब वह भी कानून की कसौटी पर सही है । इसी तरह यदि किसी को धर्म में रूचि नहीं है और वह नास्तिक बना रहना चाहता है तो उसे आस्तिक बनने बाध्य नहीं किया जा सकता । सबसे बड़ी बात ये है कि धर्म या मत को मानना पूरी तरह निजी मामला है । मसलन एक परिवार में एक से ज्यादा धर्म के अनुयायी हो सकते हैं । लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सामने जो विषय विचाराधीन है वह धमकाकर , छल – कपट अथवा लोभ – लालच से मत या धर्म बदले जाने के विरुद्ध कानून बनाये जाने का है |

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है लेकिन प्रमाणित सत्य ये है कि बहुसंख्यक हिन्दुओं अथवा हिंदुत्व के करीब समझे जाने वाले भारतीय मूल के बाकी धर्म , पंथ या मत में आस्था रखने वाले जिस इलाके में अल्पसंख्यक होते हैं वे समस्या ग्रस्त बन जाते हैं । ये बात सेकुलर जमात को कड़वी लग सकती है और उसके पैरोकार गंगा – जमुनी तहजीब का राग अलापने लगेंगे किन्तु सर्वोच्च न्यायालय की ये टिप्पणी विचारणीय है कि मतान्तरण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है । याचिकाकर्ता ने जो आरोप लगाए हैं वे किसी से छिपे नहीं हैं ।

ताजा जानकारी के अनुसार पंजाब में दलित वर्ग के सिख भी बड़ी संख्या में ईसाई धर्म अपना रहे हैं । सही बात ये है कि ईसाई मिशनरियों द्वारा अपना अभियान ज्यादातर उन्हीं इलाकों में चलाया जाता है जहां आर्थिक और सामाजिक विषमता है । छुआछूत को भी इसका जिम्मेदार माना जाता है । लेकिन देखने वाली बात ये है कि बीते सात दशक में देश में मतान्तरण के अधिकांश मामले आदिवासी इलाकों में हुए । इसका कारण उनका समाज की मुख्यधारा से कटा रहना है जिसके लिए हिन्दू समाज के जिम्मेदार लोग और धर्माचार्य भी कम जिम्मेदार नहीं हैं । ये बात भी गलत नहीं है कि मत या धर्म परिवर्तन कर चुके बहुतेरे लोगों को ये पता ही नहीं होता कि उनसे क्या करवा लिया गया । यहाँ तक भी ठीक है लेकिन चूंकि मतान्तरण के प्रभावस्वरूप राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ संचालित होती हैं अतः उनको रोकना जरूरी हो जाता है ।

उड़ीसा और म.प्र में जो कानून बना है उसके प्रभावस्वरूप गैर कानूनी तरीके से मतान्तरण करवाने वालों पर कानून का शिकंजा कसता है । इसका अच्छा प्रभाव भी नजर आने लगा है । आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याओं को बढावा देने में भी धर्म परिवर्तन का बड़ा योगदान है । केंद्र सरकार को चाहिए वह याचिका के संदर्भ में सकारात्मक रवैया प्रदर्शित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाये जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय को तत्संबंधी जानकारी दे । देश विरोधी शक्तियों ने धर्म निरपेक्षता की आड़ में जो कुछ अब तक किया उसका दुष्परिणाम देखने के बाद भी यदि हम सावधान नहीं हुए तब ये मान लेना होगा कि हमने अतीत की ऐतिहासिक भूलों से कुछ नहीं सीखा ।

(लेखक मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक हैं)
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