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‘मधु का श्री गुरूजी! बन जाना’

भारतीय संस्कृति में आक्रमण और वर्षों की परतन्त्रता के कारण कमजोर और दैन्य हो चुके हिन्दू समाज को संगठित करने के ध्येय से डॉ. हेडगेवार ने २७ सितम्बर सन् १९२५ विजयादशमी के दिन शक्ति की पूर्णता को मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन किया। जो हिन्दू समाज को सशक्त और सामर्थ्यवान बनाने तथा राष्ट्रीयता के प्रखर स्वर को लेकर सामाजिक -राजनैतिक-बौध्दिक विकास व हिन्दुत्व के लिए प्रतिबध्द है, समयानुसार जिसने स्वयं को परिवर्तित कर राष्ट्रसेवा के यज्ञ में लाखों स्वयंसेवकों के माध्यम से आहुति दी है। उसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर जिन्हें आदर श्रध्दावश श्रीगुरूजी के रुप में जाना जाता है। उन्होंने अपने जीवन को – हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए खपा दिया, तथा उनके कृतित्व एवं विचारमंथन से जो अमृत निकला वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तेज-पुञ्ज के रुप भारतवर्ष की उन्नति के रुप में आलोकित हो रहा है।

१९ फरवरी १९०६ को महाराष्ट्र के रामटेक में जन्में माधवराव सदाशिवराव ‘मधु’ जो आगे चलकर संघ के द्वितीय सरसंघचालक बनें और श्रीगुरूजी के तौर पर प्रसिध्द हुए। सन् १९१९ में उन्होंने ‘हाई स्कूल और १९२२ में मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (चन्द्रपुर, महाराष्ट्र) के’ जुबली हाई स्कूल’ से उत्तीर्ण की। सन् १९२४ में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित ‘हिस्लाप कॉलेज’ से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सन् १९२६ में बी.एससी. और सन् १९२८ में एम.एससी. में शिक्षा पूर्ण की।

तत्पश्चात १६ अगस्त सन् १९३१ को अस्थायी सेवा के रुप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में निदर्शक के रुप में प्राणिशास्त्र विषय में अध्यापन कार्य कराने लगे। उनकी विलक्षण प्रतिभा, ऊर्जस्वित प्रखर विचार, निष्ठा और समर्पण मुझे यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि आखिर! बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक रहते हुए विद्यार्थियों में इतने लोकप्रिय कैसे हो गए? कुछ न कुछ तो अवश्य ही रहा होगा। वे भी उन अध्यापकों में से ही एक रहे होंगें जो अपने वेतन को निजी हित से आगे सोच भी नहीं सकते थे। लेकिन श्री गुरुजी ने अपना मानदेय – आर्थिक तौर कमजोर विद्यार्थियों की शुल्क और पाठ्य-सामग्रियों को उपलब्ध करवाने में लगाया।

समाज को शक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए गति देने के लिए आगे आने की प्रेरणा कहाँ से आई? निश्चित ही यह हमारी संस्कृति व मूल्यों की परम्परा से ही स्फुरित हुई होगी। प्राणिशास्त्र के अध्यापन के अलावा उन्होंने राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, आँग्ल भाषा, दर्शन शास्त्र में भी निरन्तर अपनी मेधा के माध्यम से सबको चकित किया। वे विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए हर क्षण तत्पर रहते थे। विद्यार्थियों से अपार स्नेह, सहजता-सरलता ने ही तो उन्हें माधवराव से ‘गुरुजी’ बना दिया और फिर वे सदा श्री गुरुजी के नाम से ही जाने गए।

वे हिन्दू समाज के लिए निष्ठ थे। आध्यात्मिकता के विचार स्त्रोत ने उन्हें सन्यास के पथ की ओर मोड़ा और स्वामी अखण्डानन्द जी से दीक्षित हुए किन्तु जीवन के क्रम में कुछ और ही लिखा था इसलिए सन् १९३८ में डॉ. हेडगेवार के पास वे पुनः लौटे और उनके सतत् सम्पर्क में रहे आए।

उनका ज्ञान और बहुविशेषज्ञता अचरज में डालती है। उस पर भी दृढ़ संकल्प शक्ति और स्वयं को आहुति की भाँति समर्पित करने का अद्वितीय साहस,आदर्शोन्मुख । किन्तु यथार्थ की अनुभूति के साथ मूल्य परम्पराओं का वाहक बनकर हिन्दू समाज को सशक्त करने के लिए योगी सदृश बनकर जीवन को माँ भारती की सेवा का पर्याय बना पाना, असंभव सा प्रतीत होता है।

किन्तु उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में वह कर दिखाया जिसे डॉ. हेडगेवार ने अपनी पारखी दृष्टि से पहचानकर अपने जीवन के अन्तिम समय में चिठ्ठी में यह कहते हुए कि-

“इससे पहले कि तुम मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि अब से संगठन चलाने की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी”
उनसे यह वचन ले लिया था।

श्री गुरुजी ने सन् १९४० में मात्र ३४ वर्ष की आयु में संघ के सरसंघचालक का दायित्व ग्रहण किया, तो नश्वर देह को त्यागने के समय यानि सन् १९७३ तक जीवन के महान व्रत को पूर्ण करने में लगे रहे।

डॉक्टर हेडगेवारजी ने जिस संकल्पना के साथ हिन्दू समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक-बौध्दिक एवं शारीरिक तौर पर शक्ति-सामर्थ्यवान बनाने का जो संकल्प लिया था।उसे योजनाबद्ध ढँग से सूत्रबद्ध करने तथा वैचारिक एवं बौध्दिक विकास के साथ कुशल संगठनात्मक क्षमता व ओजस्विता को मूर्तरूप दिया। उनके अन्दर राष्ट्रीयता और संस्कृति का प्रचण्ड ज्वालामुखी प्रतिक्षण राष्ट्रोत्थान के लिए समर्पण, सशक्तिकरण व गर्वोक्ति के साथ हिन्दू और हिन्दुत्व के लिए निष्ठावान थे। उनका मानस अपनी परम्पराओं, संस्कृति, धर्म-ग्रन्थों, पूर्वजों व भारतवर्ष के गौरवशाली महान इतिहास के प्रति चैतन्य था। वे धर्मनिष्ठ और अपनी संस्कृति के प्रति गहरे अनुराग से भरे थे, और उसी सुप्त पड़े भाव को भारती की प्रत्येक संतति के अन्दर जागृत करने तथा रोम-रोम में प्रवाहित करने के लिए कटिबद्ध थे। देशवासियों को स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के लिए जनचेतना के कार्य में उन्होंने महती भूमिका निभाई।

उस समय की परिस्थिति में संघकार्य अपने आप में दुरूह कार्य था। भोजन-पानी से लेकर आवास तक की व्यवस्था का कोई भरोसा नहीं रहता था।संघ के प्रचारकों के पास एक झोला, एक जोड़ी वस्त्र, सतत् सम्पर्क के लिए यात्रा,शाखा कार्य की चुनौतियाँ थी। स्वयंसेवकों के लिए भूख-प्यास चिन्ता का विषय नहीं थी, बल्कि उनके चिन्तन के केन्द्र में राष्ट्र था। गुरूजी इस मर्म को जानते थे लेकिन जब सम्मुख राष्ट्र हो, तब निज दु:ख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। हिन्दू समाज को संगठित करने का संकल्प लेकर गुरुजी सरसंघचालक बनने के साथ ही राष्ट्र पथ में चलायमान हो गए थे। उन्होंने समूचे देश की लगभग पैंसठ बार से अधिक यात्राएँ की होंगी।

उनकी संघयात्रा निरन्तर चुनौतियों और संघर्षमय रही। सात वर्षों के अन्दर ही देश विभाजन की त्रासदी समक्ष खड़ी थी। विभाजन के दंगों में हिन्दुओं का नरसंहार और इस्लामिक क्रूरता के घ्रणित कृत्यों से समूचे राष्ट्र की अन्तरात्मा काँप गई थी। अब ऐसे समय में हिन्दुओं को संगठित और शक्ति-सम्पन्न बनाने ,पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं को सुरक्षित आश्रय स्थल और उनके भरणपोषण की चिन्ता के साथ राष्ट्र के रुप में भव्य भारतवर्ष का दायित्वबोध उनके समक्ष साक्षात्कार के रुप में प्रत्यक्ष खड़ा था।

सन् १९४७ में काश्मीर के विलय में सरदार पटेल के अलावा श्री गुरुजी का योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। १८ अगस्त १९४७ को उन्होंने महाराजा हरिसिंह से मिलकर विलय के लिए वार्ता की। अन्ततोगत्वा सभी के संयुक्त प्रयास से महाराजा हरिसिंह ने विलय पत्र में हस्ताक्षर किया और काश्मीर भारत का हिस्सा बना।

उनका पथ चुनौतियों से भरा हुआ था। देश को स्वतन्त्र हुए एक वर्ष ही नहीं बीता था कि महात्मा गाँधी की हत्या के बाद राजनैतिक दबाव – सन्देह – अज्ञात विवशता,मिथ्यारोपों के कारणवश सन् १९४८ में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लेकिन गुरुजी क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं हुए। क्योंकि उनकी राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक प्रवाह, राष्ट्रभक्ति, हिन्दू समाज के प्रति असीम आत्मीयता-अनुराग और संघ के व्रत को लेकर हिन्दू राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरोत्थान के प्रति दृढ़ आस्था थी। उस समय उन्होंने कहा था कि-

“सन्देह के बादल शीघ्र ही छँट जाएँगे,
और हम बिना किसी दाग के वापस आएँगे।”

उनका यह भविष्यवाणी सत्य हुई और छ:महीने बाद संघ पर लगा प्रतिबन्ध हटा दिया गया,यह जीत संघ की नहीं अपितु हिन्दू समाज की जीत थी। क्योंकि संघ में जो भी है सबकुछ प्रत्यक्ष था और वह हिन्दू समाज का है। उसे चाहे किसी परीक्षण से गुजार दिया जाए,संघ सदैव सत्य की कसौटी पर खरा उतरा है।

तत्पश्चात सन् १९५० में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने श्रीगुरुजी से राजनैतिक दल के गठन की स्वीकृति और सहयोग माँगा, तब श्री गुरुजी ने स्पष्ट कर दिया था कि- संघ प्रत्यक्ष राजनीति से सदैव दूर रहेगा और हिन्दू राष्ट्र भाव नए दल को स्वीकार्य होगा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी के द्वारा गुरूजी की शर्तों को स्वीकार करने पर जनसंघ का गठन हुआ। वे राष्ट्रीय एवं राजनैतिक घटनाक्रमों पर भलीभाँति नजर रखते थे, किन्तु दलगत राजनीति की धारा से उन्होनें संघ को सदैव दूर रखा। क्योंकि उनके विचार बिन्दु में हेडगेवार जी का वही स्वप्न था कि- हम हर हिन्दू को संगठित और समर्थ बनाएँगे, जो राष्ट्र के विभिन्न आयामों में अपने-अपने कार्यों के माध्यम से राष्ट्र की सेवा कर सकें।

श्रीगुरुजी को कोई भी संकट-विपदा या चुनौती डिगा नहीं सकी, उनके समक्ष जो चुनौतियाँ आईं उनका उन्होंने डटकर सामना किया और हेडगेवारजी के संकल्प रुपी बीज को वटवृक्ष बनाने लिए संगठन विस्तार से लेकर वे बौध्दिक प्रबोधन में सदैव रत रहे आए। प्रवास के रूप में पारस्परिक मिलन और वार्ता के पथ पर बढ़ते हुए वे ‘हिन्दू-हिन्दुत्व-राष्ट्रीयता’ को लेकर सुस्पष्ट रहे। उन्होंने एक ऐसी पीढ़ी के निर्माण को लक्ष्य बनाया जो ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ राष्ट्रीयता और संस्कृति से परिपूर्ण तथा जिनके रग-रग में राष्ट्रभक्ति का रक्त प्रवाहित हो। उन्होंने गर्वोक्ति के साथ हिन्दुत्व के भाव व सामाजिक चेतना के ऊर्जस्वित स्वर से राष्ट्रीयता के मूलमन्त्र को झंकृत किया। उन्होंने अनुशासित और राष्ट्रप्रेमी समाज को अपने पुरखों के अभूतपूर्व तेज उनके त्याग -बलिदान तथा राष्ट्र की संस्कृति के उच्च मानबिन्दुओं से सीख लेकर माँ! भारती को परम् वैभव सम्पन्न बनाने के लिए आह्वान किया।

वे राष्ट्र की प्रत्येक गतिविधि पर गहराई के साथ दृष्टि रखते थे। दूरदृष्टा के साथ ही वे राष्ट्र की आन्तरिक एवं विदेश नीति के सम्बन्ध में पूर्णरूप स्पष्ट थे।चीन की सन्देहास्पद गतिविधियों व नीतियों को लेकर उन्होंने कई बार अपने वक्तयों के माध्यम से सरकार को आगाह किया था। लेकिन तत्कालीन नेहरू सरकार ने उनकी उपेक्षा की। चीन से जिस विश्वास घात की आशंका थी, वह सन् १९६२ के भारत-चीन युध्द के रुप में परिणत हो गई। हमने अक्षय चीन के रुप में अपने देश का लगभग ३८ हजार वर्ग किलोमीटर भूभाग खो दिया।

भारत-चीन युध्द के समय श्रीगुरुजी ने संघ के स्वयंसेवकों को सेना के जवानों को राशन पहुँचाने तथा सैनिक मार्ग की सुरक्षा के लिए तैनात किया था। संघ के इस अतुलनीय कार्य से नेहरू खासे प्रभावित हुए थे और २६ जनवरी सन् १९६३ को लाल किले में होने वाली परेड में संघ को आमन्त्रित किया था। और संघ के स्वयंसेवकों ने गणवेश के साथ लालकिले की परेड में भाग लिया था।

वे गुरुजी ही थे जिनके समक्ष दोनों घटनाक्रम घटे – एक वह जब सन् १९५८ में संघ पर प्रतिबन्ध लगा और एक वह जब सन् १९६३ में गणतन्त्र दिवस की परेड पर सम्मिलित होने का आमन्त्रण। श्रीगुरुजी ने अपनी कुशल संगठनात्मक क्षमता के आधार पर यह सिध्द कर दिया था कि संघ के लिए सदैव राष्ट्र प्रथम था और राष्ट्रीयता का दूसरा पर्याय हिन्दू और हिन्दुत्व है।

लालबहादुर शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनसे भी गुरुजी का सतत् सम्पर्क रहा । सन् १९६५ के भारत-पाकिस्तान युध्द के समय पं. लालबहादुर शास्त्री ने उनके साथ परामर्श-वार्ता की थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि जनसंघ के गठन होने के बावजूद भी उन्होंने दलगत राजनीति की ओर अपनी दृष्टि नहीं घुमाई‌। बल्कि राष्ट्रोन्नति के लिए संघ और स्वयंसेवकों की जब-जब आवश्यकता हुई, उन्होंने तब-तब पूर्ण निष्ठा के साथ राष्ट्र की गति-प्रगति, संकट में सरकार के सहयोग के लिए तत्पर से अपने नैसर्गिक दायित्वों का निर्वहन किया।

श्रीगुरुजी ने अपनी वैचारिक मेधा, कुशल संगठनात्मक क्षमता, विराट हिन्दू समाज के प्रति समर्पण, राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति अनुराग से भरे हुए थे। उन्होंने दीन-हीन -पतित मनुष्य के उध्दार और सामाजिक सशक्तिकरण तथा राष्ट्रीयता के भाव को संघ साधना के माध्यम से समूचे राष्ट्र को हिन्दुत्व मूल्यों-परम्पराओं को शाखा कार्य के द्वारा―

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।

प्रार्थना को चरितार्थ का नवीन दिशा दी।

उनके विचार और दर्शन के मूल में हिन्दू समाज ,उसका गौरवशाली इतिहास तथा उसकी उन्नति के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना की ज्वाला को जलाकर अखण्ड भारतवर्ष के स्वप्न को साकार करने का व्रत है। भले ही ५जून १९७३ को उनकी ज्योति अनन्त में विलीन हो गई, लेकिन उनका दर्शन और कृतित्व सदैव प्रेरणा बनकर उपस्थित है। उन्होंने अपने जीवन के तैंतीस वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के रुप में जो अमिट लकीर खींची है। आज यह उसी की परिणति है कि डॉ. हेडगेवार ने जिस संघ का बीजारोपण किया था, वह वटवृक्ष के रुप में अपनी विभिन्न शाखाओं के द्वारा राष्ट्रोत्थान के पथ पर अनवरत गतिमान है। श्रीगुरूजी उनका उज्ज्वल चरित्र, दिशा बोध और संघकार्यों की प्रेरणा, विचार एवं दर्शन सदैव प्रज्वलित दीप्ति की भाँति संस्कृति एवं राष्ट्र के प्रति प्रेम के लिए पथप्रदर्शित करता रहेगा।

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल