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“महारथी बाजीराव ने निजाम को धूल चटाकर ध्वस्त किया दक्षिण भारत में इस्लामी साम्राज्य का सपना “

मुगलों के लिए विनाशक बाजीराव प्रथम ने बिना युद्ध के निजाम को दो बार ठोका

(भोपाल के युद्ध में विजय के आलोक में 7 जनवरी 1738 में दुरई – सराय ‘Durai sarai’ की संधि में निजाम की संपूर्ण पराजय तथा बाजीराव की वीरोचित स्मृति में सादर समर्पित है)

अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध(सन् 1720 से सन् 1740 तक) में विश्व के महानतम सेनापतियों की बात करें तो बाजीराव प्रथम, विश्व में सर्वश्रेष्ठ थे। बाजीराव प्रथम ने छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदू पद पादशाही के सिद्धांत का समूचे भारत में विस्तार किया था। वह मुगलों के लिए काल थे। बाजीराव प्रथम का उद्देश्य पतन्नोमुख मुगल साम्राज्य पर हिन्दू राज्य की स्थापना करना था।इसलिए बाजीराव प्रथम ने कहा था कि “हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी।” (Let us strike at the trunk of withering tree, the branches will fall by themselves) गौरतलब है कि 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में ही मुगल साम्राज्य का औरंगजेब की मृत्यु के साथ मृत्यु नाद बज गया था और लड़खड़ाते हुए उत्तर मुगल कालीन शासकों ने सत्ता संभाली थी। छत्रपति शाहू की ओर से बाजीराव प्रथम ने संपूर्ण भारत में मुगलों और इस्लामिक शासकों से मुगलिया के नाम से चौथ और सरदेशमुख वसूल की।भारत में इस्लामिक सत्ता की बखिया उधेड़कर उन्हें ध्वस्त कर दिया। इस कड़ी में तत्कालीन भारत में मुगल सेना के सबसे बड़े सेनापति चिनकिलिच खान उर्फ आसफजाह निजामुल्मुल्क (निजाम) जिसे मुस्लिम बड़ा योद्धा समझते जाता थे, उसे हिन्दू महा महारथी बाजीराव प्रथम ने बिना युद्ध के ही दो बार जमकर ठोका था।
उत्तर मुगल कालीन शासक मुहम्मद शाह रंगीला की रंग – रलियों से तंग होकर निजाम दक्षिण भारत भाग आया और उसने सन् 1724 में हैदराबाद की स्थापना की। निजाम चाहता था कि दक्षिण भारत में इस्लामिक साम्राज्य स्थापित हो जाए, परंतु बाजीराव प्रथम के होते हुए यह संभव नहीं था इसलिए बाजीराव प्रथम और निजाम के मध्य निर्णायक युद्ध होना अनिवार्य हो गया था। अचिरात् सन् 1726 में निजाम ने शंभाजी की सहायता से छत्रपति शाहू के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। उस समय शाहू की स्थिति बहुत खराब हो गई। सन् 1727 में अविलंब बाजीराव कर्नाटक से वापस आया उस अवसर पर बाजीराव ने महान् सेनापति की योग्यता का परिचय दिया। एक वर्ष की छुटपुट युद्धों के पश्चात फरवरी सन् 1728 में बाजीराव ने पालखेड (पालखेड़) नामक स्थान पर निजाम को घेर लिया और निजाम को ऐसी कठिन परिस्थिति में डाल दिया कि उसने बिना युद्ध के संधि कर ली यह बाजीराव की महान विजय थी।

मार्च सन् 1728 में मुंगी शेगांव (Mungishegaon) की संधि के द्वारा परास्त निजाम ने –

1.शाहू को महाराष्ट्र का एकमात्र शासक स्वीकार कर लिया।
2.चौथ और सरदेशमुख का वह धन जो पहले से बाकी था, देने का वादा किया।
3. मराठा सरदारों को अपनी सीमाओं में रहने देना स्वीकार किया।
परंतु निजाम पूर्णतया परास्त नहीं हुआ था उसने सेनापति त्रिम्बकराव दाभादे को बाजीराव के विरुद्ध सहायता दी और इस पराजय के पश्चात भी मराठों में फूट डालने का प्रयत्न करता रहा।

सन 1737 में निजाम को पुनः दिल्ली बुलाया गया और उसे आसफजा का पद देकर मराठों के विरुद्ध भेजा गया। भोपाल के निकट निजाम ने अपनी सेना बिछा दी। उसके पास बहुत अच्छा तोपखाना और लगभग डेढ़ लाख की बहुत बड़ी सेना थी। परंतु सेनापति और कई अन्य सरदारों की सहायता के ना होते हुए भी अस्सी हजार सैनिकों को लेकर बाजीराव ने निजाम को घेर कर फसा लिया। इस अवसर पर निजाम की भूल से उसकी सेना में भुखमरी और बर्बादी फैल गई। स्वयं बाजीराव ने कहा था “वह एक बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति है मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि उसने अपने को इस बुरी स्थिति में कैसे फंसा लिया, यह संपूर्ण भारत में उसके सम्मान को नष्ट कर देगा।” (He is an old and experienced man. I can not comprehend how he got himself in this difficulty, it will ruin him in the opinion of all India) अंत में बाजीराव प्रथम की बात सही सिद्ध हुई, बिना युद्ध के निजाम को 7 जनवरी 1738 में दुरई – सराय (Durai sarai) की संधि के लिए बाध्य होना पड़ा। जिसके अनुसार बेबस निजाम को –
1. संपूर्ण मालवा और नर्मदा तथा चंबल नदी के बीच की समस्त भूमि बाजीराव को देनी पड़ी। 2. 50 लाख रुपया बाजी राव को देना पड़ा।
इस युद्ध के पश्चात निजाम ने बाजीराव से पूर्ण पराजय मान ली। बाजीराव प्रथम भारत में विख्यात हो गये क्योंकि उन्होंने उस समय मुगलों के भारत के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ और प्रसिद्ध सेनापति को बिना युद्ध के बुरी तरह से धूल चटाई थी। बाजीराव का नाम उत्तर भारत के उत्तर मुगलकालीन तथाकथित बादशाह रंगीला और संपूर्ण भारत के मुस्लिम शासकों के लिए दहशत का पर्याय बन गया था।


डॉ. आनंद सिंह राणा