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महिलाओं के सौभाग्य और सुहाग के प्रति त्याग समर्पण का प्रतीक पर्व हरतालिका तीज…

महिलाओं के सौभाग्य और सुहाग के प्रति त्याग समर्पण का प्रतीक पर्व हरतालिका तीज…

भारत में मनाए जाने वाले जितने भी छोटे और बड़े व्रत त्यौहार है वह कहीं ना कहीं हमारे संस्कारों की थाती हैं ।यह हमें हमारे संस्कारों से जोड़ते हैं ।इन्हीं त्यौहारों की श्रृंखला में आज हम हरतालिका व्रत त्योहार के संबंध में बात करेंगे।

हरतालिका, तीजा, हरतालिका तीज आदि आदि नामों से यह त्यौहार भारत के मध्य उत्तरी क्षेत्र में मनाया जाता है महिलाएँ अपने सौभाग्य की अभिवृद्धि के लिए यह व्रत रखती हैं और कुमारिकाएँ मनचाहे वर को प्राप्त करने के लिए माता गौरी और भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यह व्रत रखती हैं।इस व्रत का विधान और उपवास करवाचौथ से भी अधिक कठिन है।

 

करवा चौथ में सूर्योदय के पूर्व सरगी को ग्रहण करके उपवास प्रारंभ किया जाता है और चंद्रमा जी के दर्शन के पश्चात उपवास का पारायण किया जाता है किंतु तीजा में भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वितीया की रात्रि 12:00 बजे से उपवास प्रारंभ हो जाता है और चतुर्थी की प्रातः इस पूजन का उद्यापन करके पारायण किया जाता है।यह व्रत निर्जला(जल भी ग्रहण नहीं करते) होकर रखा जाता है।

इस व्रत की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं-:

पहला-पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती जी अपने मन ही मन भगवान शिव को पति के रूप में वरण करती है और उनकी माता मैना देवी भगवान श्रीहरि विष्णु को अपने जामाता के रूप में स्वीकार करना चाहती हैं।

यहाँ पर माता पार्वती हिमालय की कंदरा में घोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न करती है। जब भगवान महादेव उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं तब माता गौरी उनसे आग्रह करते हैं कि आप उनके पिता हिमालय राज को इस विवाह के लिए प्रस्ताव भेजें और पूर्ण विधि विधान से मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार करें।

इस प्रसंग से जो तथ्य सामने आते हैं वह यह कि माता गौरी ने अपनी सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं का पालन करते हुए भगवान शिव को प्रसन्न करके अपने पिता की अनुमति से शिवजी का वरण किया। कल्याणकारी शिव जी जैसा पति यदि चाहिए तो माता गौरी की तरह कठोर तक करना ही पड़ेगा।

दूसरा- कहीं-कहीं प्रसंग आता है कि माता गौरी की सखियों ने इनका हरण करके उन्हें गुप्त गुफा में ले गई अतः इस व्रत का नाम “हरितालिका” पड़ा ,किंतु अगर इसके शब्दों की गूढ़ता पर जाए तो स्पष्ट होता है कि हरतालिका शब्द में हर से तात्पर्य महादेव महेश्वर से हैं और तालिका से तात्पर्य कुंजी या ताली (चाबी) से है,

जिसमें आदि शक्ति माँ भगवती ने आदिदेव भगवान महादेव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय की गुप्त कंदरा में पहले आहार, फिर फलाहार, फिर जल और अंत में प्राण वायु को त्याग कर कठोर तप किया और इस तप के माध्यम से गौरी जी श्रीहर तक पहुँची, इस तरह यह हरतालिका नाम से प्रचलित हुआ।

तीसरा- माता गौरी ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए जिस शिवलिंग के सम्मुख कठोर तप किया वह शिवलिंग माता ने हस्त नक्षत्र में बालू से निर्मित किया था। वैदिक ज्योतिष विधान के अनुसार हरतालिका व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन होता है।

इस दिन उत्तर फाल्गुनी या हस्त या चित्रा नक्षत्र आता है। भगवान नीलकंठ महादेव जी द्वारा गरलपान करने के पश्चात सिर पर चंद्रमा तथा गले पर सर्प धारण किया गया और तप के लिए सदैव हिम से आच्छादित हिमालय पर्वत का चयन किया ताकि विष की उष्मा को नियंत्रित किया जा सके ।

इनसे स्पष्ट होता है कि भगवान शिव को शीतलता प्रिय है, क्योंकि उत्तर फाल्गुनी सूर्य का नक्षत्र है जो उष्मादाई है, चित्रा मंगल का नक्षत्र है जो बल प्रदान करता है और हस्त नक्षत्र चंद्रमा का नक्षत्र है जो शीतलता प्रदान करता है। अतः हस्त नक्षत्र में बालू के शिवलिंग का निर्माण करके यदि भगवान शिव का पूजन किया जाता है तो इसका फल कई गुना श्रेष्ठ होता है।

चौथा – सनातन संस्कृति में भगवान महेश्वर का रात्रि के चार पहर में अभिषेक पूजन करने का विशेष महत्व है। यह समय शाम 6:00 बजे रात्रि 9:00 बजे रात्रि 12:00 बजे प्रातः 4:00 बजे माना गया है। चार पहर के अभिषेक पूजन का विधान धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष की सिद्धि के लिए किया जाता है ।इस अवधि में किया गया पूजन अक्षय फल प्रदान करता है जिसमें अभिषेक के लिए क्रमश: दूध ,दही, घी और मधु का प्रयोग किया जाता है।

पांचवा-रात्रि जागरण के पीछे का मूल कारण था हमारी सामाजिक संपन्नता जिसमें परिवार के सभी सदस्यों के साथ-साथ आस-पड़ोस के भी परिवारों के सभी सदस्य एक जगह एकत्रित होकर सामूहिक रूप से भगवान शिव का पूजन करके ढ़ोल मंजीरों के साथ भक्तिमय भजनों को गाकर रात्रि जागरण करते है।

जिससे एक ओर हमारी लोक कला विकसित होती है वहीं दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक समरूपता के साथ-साथ हमारी आने वाली नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाया जाता हैं।
छठवां -हरतालिका के व्रत का उद्यापन करने के पश्चात जब साधिकाएँ प्रात: चतुर्थी हेतु गणेश भगवान का पूजन करके पारायण करती हैं।

तो भोजन में कढ़ी और चावल को ग्रहण करते हैं या दही चावल,ककड़ी,कच्ची चने की (जल में भिगोई) दाल को ग्रहण करती हैं। इसके पीछे का आहार विज्ञान यह कहता है इतने लंबे अंतराल तक निराहार, निर्जला व्रत करने के पश्चात जो पेट में जो ऊष्मा उत्पन्न होती है उसको शोषित करने के लिए यह भोजन श्रेष्ठ और सुपाच्य है।

तुलसी बाबा के द्वारा रचित मानस के सुंदरकांड में एक चौपाई आती है “भय बिन होत न प्रीत” कुछ ऐसा ही है इस व्रत को लेकर हमारी कथा में प्रचलित है। इसकी कथा में महिलाओं को जल, भोजन, फल आदि ग्रहण करने के पश्चात पुनर्जन्म के संबंध में जो बातें कथा कहीं गई है।

वह मात्र भयभीत करने और इस कठोर व्रत के नियम का पालन करने के लिए कहीं गई है।भगवान श्रद्धा के अधीन है हम अपनी श्रद्धा से भगवान का जिस प्रकार से पूजन करेंगे वह प्रभु को स्वीकार है।हमें सदैव शुचिता पूर्ण, मन, वचन, कर्म से इस पवित्र व्रत को रखना चाहिए।यह व्रत निसंदेह फलदाई है इस अतिशयोक्ति नहीं है।

आप सभी को हरतालिका तीज की मंगलकामनाएँ।हर हर महादेव ??