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याद रहे गुरु तेगबहादुर का बलिदान….

गुरु जी का अनुसरण कर हम उस नए भारत का निर्माण कर सकते हैं, जिसकी जड़ें अपनी मिट्टी में सिमटी हों। 

भारतीय इतिहास में नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह दैदीप्यमान है। उनका जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी को पिता गुरु हरगोबिंद जी तथा माता नानकी जी के घर अमृतसर में हुआ।

नानकशाही कैलेंडर के अनुसार एक मई, 2021 को उनके प्रकाश को 400 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। जिस कालखंड में भारत के अधिकांश भू-भाग पर मध्य एशिया के मुगलों ने कब्जा कर रखा था, उस समय जिस परंपरा ने उन्हें चुनौती दी, तेगबहादुरजी उसी के प्रतिनिधि थे।

उनका व्यक्तित्व तप, त्याग और साधना का प्रतीक है। उनका कर्तृत्व शारीरिक और मानसिक शौर्य का अदभुत उदाहरण था। तेगबहादुर जी की वाणी एक प्रकार से व्यक्ति निर्माण का सबसे बड़ा प्रयोग है। नकारात्मक वृत्तियों पर नियंत्रण कर लेने से सामान्य जन धर्म के रास्ते पर चल सकता है।

निंदा-स्तुति, लोभ-मोह, मान-अभिमान के चक्रव्यूह में जो फंसे रहते हैं, वे संकट काल में अविचलित नहीं रह सकते। जीवन में सुख आता है और कभी दुख आता है, सामान्य आदमी का व्यवहार उसी के अनुरूप बदलता रहता है, लेकिन सिद्ध पुरुष इन स्थितियों से ऊपर हो जाते हैं।

गुरु जी ने इसी साधना को कहा, ‘उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि’ और ‘सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु।’ गुरु जी ने अपने श्लोकों में कहा, ‘भै काहु कउ देत नहि नहि भै मानत आन’, लेकिन मृत्यु का भय तो सबसे बड़ा है। उसी भय से व्यक्ति मतांतरित होता है,

जीवन मूल्यों को त्यागता है और कायर बन जाता है। ‘भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनुजारा।’ गुरु जी अपनी वाणी एवं कार्य से ऐसे समाज की रचना कर रहे थे, जो सभी प्रकार की चिंताओं एवं भय से मुक्त होकर धर्म के मार्ग पर चल सके।

गुरु जी का संपूर्ण जीवन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के पुरुषार्थ का सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्होंने सफलतापूर्वक अपने गृहस्थ जीवन में अर्थ और काम की साधना करते हुए अपने परिवार और समाज में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों का संचार किया। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया।

उनका दृष्टिकोण संकट काल में भी आशा एवं विश्वास का है। उन्होंने बताया, ‘बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ।’ गुरु जी का निवास आनंदपुर साहिब मुगलों के अन्याय, अत्याचार के खिलाफ जनसंघर्ष का केंद्र था। औरंगजेब हिंदुस्तान को दारुल-इस्लाम बनाना चाहता था।

कश्मीर बौद्धिक एवं आध्यात्मिक केंद्र होने के कारण मुगलों के निशाने पर था। कश्मीर के लोग गुर जी के पास इन सभी विषयों पर मार्गदर्शन के लिए पहुंचे। गुरु जी ने गहन विचार-विमर्श किया। कश्मीर सहित पूरे देश की परिस्थिति गंभीर थी, पर मुगलों के दारुल-इस्लाम बनाने के क्रूर कृत्य को रोकने का मार्ग क्या था?

एक ही मार्ग था कि कोई महापुरुष देश और धर्म की रक्षा के लिए आत्मबलिदान दे। उस बलिदान से देश में जन चेतना का जो ज्वार उठेगा, उसमें विदेशी मुगल साम्राज्य की दीवारें हिल जाएंगी, लेकिन प्रश्न था बलिदान कौन दे? इसका समाधान गुरु तेगबहादुर जी के सुपुत्र गोविंद राय जी ने कर दिया।

उन्होंने पिता से कहा, इस समय देश में आपसे बढ़कर महापुरुष कौन है? औरंगजेब की सेना ने गुरु जी को तीन साथियों समेत कैद कर लिया। सभी को कैद कर दिल्ली लाया गया। वहां उन पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। इस्लाम स्वीकार करने के लिए उन पर शिष्यों सहित तरह-तरह के दबाव बनाए गए।

धर्म गुरु बनाने एवं सुख संपदा के आश्वासन भी दिए गए पर वे धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुरजी की आंखों के सामने भाई मति दस को आरे से बीचों-बीच चीर दिया गया, भाई दियाला को खौलते तेल में उबाल दिया गया और भाई सती दास को रूई के ढेर में बांधकर जला दिया गया।

शायद मुगल साम्राज्य को लगता था कि अपने साथियों के साथ हुआ यह व्यवहार गुरु जी को भयभीत कर देगा। गुरु जी जानते थे कि अन्याय और अत्याचार से लड़ना ही धर्म है। इसलिए वह अविचलित रहे। काजी ने आदेश दिया और जल्लाद ने गुरु जी का सिर धड़ से अलग कर दिया।

उनके इस आत्मबलिदान ने पूरे देश में एक नई चेतना पैदा कर दी। दशम गुरु गोविंद- सिंह ने पिता के बलिदान पर कहा, ‘तिलक जंजू राखा। प्रभ ताका। कीनो बड़ो कलू महि साका। साधनि हेति इति जिनि करी। सीस दीआ पर सी न उचरी।’ आज जब देश गुरु जी के प्रकाश के चार सौ साल
मना रहा है तो उनके बताए रास्ते का अनुसरण करनााही उनकी वास्तविक पुण्य स्मृति होगी।

आज सर्वत्र भोग और भौतिक सुखों की होड़ लगी हुई है, लेकिन गुरु जी ने तो त्याग और संयम का रास्ता दिखाया था। गुरु जी सृजन, समरसता और मन के विकारों पर विजय पाने की साधना की चर्चा करते हैं।

यह गुरु जी के साधनामय आचरण का ही प्रभाव था कि वह दिल्ली जाते हुए जिस-जिस गांव से गुजरे, वहां के लोग आज भी तंबाकू जैसे नशे की खेती नहीं करते। गुरु जी ने त्याग, शौर्य और बलिदान का मार्ग दिखाया। मानव जाति परिवर्तनशील नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है।

ऐसे समय में गुरु जी का पुण्य स्मरण तो यही है कि उनके मार्ग पर चलकर उस नए भारत का निर्माण करें जिसकी जड़ें उसकी अपनी मिट्टी में सिमटी हों।

-श्री दत्तात्रेय होसबाले ज़ी

सरकार्यवाह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह हैं)