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या तो देश को धर्मनिरपेक्ष कहना बंद करो या सबके लिए एक जैसा कानून बनाओ

कर्नाटक के एक शिक्षण संस्थान में कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनकर आने पर मचा विवाद उस राज्य की सीमाओं से बाहर आकर देशव्यापी राजनीतिक विषय बन गया है। इस मामले में अदालती आदेश आना है इसलिए इसके कानूनी पक्ष पर तो कुछ कहना उचित न होगा किन्तु जिस तरह की टिप्पणियाँ पक्ष और विपक्ष से आ रही हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत न होगा कि विवाद के पीछे कोई न कोई सोची-समझी योजना रही।

उक्त मामले में आज वहाँ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित दो अन्य की पीठ विचार कर रही है जिसमें एक मुस्लिम महिला भी हैं। मामला केवल इतना था कि एक शिक्षण संस्थान की कक्षा में कुछ मुस्लिम छात्राएं अचानक हिजाब पहिनकर आने लगीं। जबकि संस्थान में प्रवेश के आवेदन में ये स्पष्ट था कि परिसर के भीतर भले ही हिजाब का इस्तेमाल किया जावे किन्तु कक्षा के भीतर उसकी अनुमति नहीं थी। अचानक कुछ छात्राओं द्वारा उक्त अनुमति का उल्लंघन किये जाने पर आपत्ति व्यक्त की गई। प्रबन्धन ने भी विरोध किया और उसके बाद दूसरे समुदाय की जवाबी प्रतिक्रिया भगवा के रूप में देखने मिली और फिर बात उससे भी बढ़ते हुए दलितों का प्रतीक बने नीले रंग तक आ पहुँची।

इसके बाद जैसा कि होता है अन्य स्थानों पर भी हिजाब, दुपट्टा और साफे की शक्ल में शक्ति प्रदर्शन होने लगा तथा मामला खुलकर हिन्दू-मुस्लिम बन गया। आम तौर पर सरकारें ऐसी आग से अपने हाथ बचाना चाहती हैं इसीलिये बात उच्च न्यायालय तक पहुंच गयी। जिस नियम और व्यवस्था का अब तक किसी मुस्लिम छात्रा ने विरोध नहीं किया वही उनको धर्म विरोधी लगने लगी और फिर पूरे देश में हिजाब मानो मुस्लिम अस्मिता और पहिचान से जुड़ा मुद्दा बन गया।

Man pulled off Muslim Girl Hijab in America – News18 हिंदी

कहीं मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहिनकर खेल के मैदान में उतरने लगीं तो कहीं मोटर साइकिल चलाती नजर आने लगीं। खुद को आधुनिक और प्रगतिशील मानने वाली और मुस्लिम महिलाओं को कठमुल्लेपन से आजाद करवाने के लिए संघर्षरत कुछ देवियाँ भी अचानक हिजाब को मौलिक अधिकार मानकर कर्नाटक की हिजाबधारी मुस्लिम छात्राओँ के समर्थन में कूद पड़ीं।

बात मंगलसूत्र, दाढ़ी, टोपी और मंगलसूत्र तक आ पहुंची। उच्च न्यायालय के समक्ष विचारणीय मुद्दा केवल ड्रेस कोड अर्थात गणवेश का है। कोई संस्थान क्या किसी परिधान को धारण करने या न करने की अनिवार्यता थोप सकता है इस पर न्यायालयीन व्यवस्था का सभी को इंतजार है।

लेकिन इसी बीच कांग्रेस महामंत्री प्रियंका वाड्रा ने ये कहकर विवाद में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हुए ट्वीट किया कि बिकिनी, घूँघट या हिजाब क्या पहिनना है ये महिलाओं का संविधान प्रदत्त अधिकार है। उनका ये बयान अप्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक की उन छात्राओं के समर्थन में माना गया जिन्होंने शिक्षण संस्थान के नियमों को धता बताते हुए कक्षा में अचानक हिजाब पहिनकर जाना शुरू किया, जबकि पहले वे ऐसा नहीं करती थीं। बात आगे बढऩे पर ये साफ़ हुआ कि किसी मुस्लिम संगठन के उकसावे पर उन्होंने वैसा किया।

किसी संस्थान द्वारा ड्रेस कोड लागू करना अनोखी बात नहीं है। अनेक महिलाएं पुलिस में भर्ती होती हैं तब उनको वर्दी धारण करनी होती है। यात्री हवाई जहाज में परिचारिका (होस्टेस) की वेशभूषा विमान कम्पनी तय करती है जिसका पालन मुस्लिम परिचारिकाएँ भी करती हैं।

ये देखते हुए लगता है कि कर्नाटक के शिक्षण संस्थान में हिजाब का उपयोग विवाद पैदा करने के मकसद से ही किया गया था। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि मुस्लिम समाज में आज भी महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें हैं। जिनके कारण कश्मीर की एक लड़की अचानक फि़ल्मी दुनिया को अलविदा कहते हुए कश्मीर लौट जाती है क्योंकि वैसा न करने पर वहां उसका और उसके परिवार का रहना दूभर हो जाता।

तीन तलाक संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मुस्लिम महिला की याचिका पर ही आया था जिसका आम तौर पर मुस्लिम महिलाओं ने स्वागत किया लेकिन कुछ समय बाद उनकी बोलती बंद कर दी गई।

श्रीमती वाड्रा एक अत्याधुनिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से आती हैं। उनकी माँ इटली की हैं और पिताजी तथा भाई विदेश में शिक्षित हुए। दादी ने एक पारसी से विवाह किया था। इस आधार पर उन्होंने हिजाब सम्बन्धी बयान पर जो कहा उसमें अनपेक्षित कुछ भी नहीं है। लेकिन क्या उनमें इतना साहस है कि वे मुस्लिम समाज में प्रचलित हलाला जैसी प्रथा के विरुद्ध भी मुस्लिम महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे लड़की हैं इसलिए इसके विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।

जहाँ तक बात गणवेश या ड्रेस कोड की है तो वह केवल कर्नाटक के उस शिक्षण संस्थान में ही नहीं अपितु देश भर के हजारों संस्थानों में लागू है। अदालतों में अधिवक्ताओं की वेशभूषा में एकरूपता है।

दरअसल आजादी के बाद देश में हिन्दू समाज की परम्पराओं को बदलने के लिए संसद में कानून लाया गया तब राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद उससे असहमत थे किन्तु प्रगतिशीलता के हामी प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने उनके ऐतराज को तो नजरंदाज कर दिया और अपनी आधुनिक सोच के बाद भी वे मुस्लिम समुदाय में व्याप्त रूढ़ियों और कुरीतियों को छूने का साहस न कर सके। जबकि उनको इस बात का अनुभव था कि उसके कारण उस समुदाय के मन में मुख्य धारा से अलग रहने की वही भावना बनी रहेगी जिसके चलते देश के दो टुकड़े हुए।

यदि आजाद होने के बाद ही सभी धर्मावलम्बियों के लिए एक समान नागरिक संहिता बना दी जाती तब शायद इस तरह के बखेड़े खड़े नहीं होते। उल्लेखनीय है धार्मिक स्थलों में जाने के भी कुछ नियम होते हैं जिसके अंतर्गत मस्जिदों और गुरुद्वारों में पुरुषों को भी सिर पर पगड़ी और टोपी न सही तो रूमाल रखना जरूरी है। वहां जाने वाले गैर मुस्लिम और सिख भी उसका पालन करते हैं। इसी तरह अनेक ज्योतिर्लिंगों में हिन्दू भारतीय परिधान पहिनने की अनिवार्यताहै। इसी तरह जैन मुनि दिगम्बर अवस्था में सार्वजनिक रूप से विचरण करते हैं लेकिन जैन होने के आधार पर अन्य कोई निर्वस्त्र रहने की जिद करे तो उसी धर्म के लोग उसे रोकेंगे। सही बात तो ये है कि धर्म अपने आप में अनुशासन है।

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ऐसे में विवाद चाहे कर्नाटक का हो या दूसरी किसी जगह का, उसके पीछे के भाव और ताकतों की पहिचान होना जरूरी है। हिजाब संबंधी विवाद इस्लाम के नियमों और परम्पराओं की रक्षा से सर्वथा परे शाहीन बाग़ जैसी किसी साजिश का पूर्वाभ्यास है। केवल वोटों की राजनीति की खातिर आँख मूंदकर उसका समर्थन कर देना अपरिपक्वता की निशानी है।

श्रीमती वाड्रा के बयान से प्रेरित होकर कोई महिला सांसद यदि बिकिनी पहिनकर सदन में जा पहुंचे तब क्या वे उसके परिधान संबंधी अधिकार का भी समर्थन करेंगी? उन्हें और उन जैसे बाकी लोगों को ये बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि या तो देश को धर्मं निरपेक्ष कहना बंद करें या फिर सभी धर्मों के लिये एक जैसी सामाजिक व्यवस्था वाला क़ानून लागू किया जावे।

लेखक:- रवीन्द्र वाजपेयी